Wednesday 16 July 2014

पर्यावरण

हवा में जहर 

    Friday, 07 February 2014

जनसत्ता 7 फरवरी, 2014 : हफ्ता भर पहले आई अमेरिका के येल विश्वविद्यालय की एक अध्ययन-रपट में भारत को दुनिया के सबसे अधिक वायु प्रदूषण वाले देशों की श्रेणी में रखा गया था। अब सेंटर फॉर साइंस ऐंड एनवायरमेंट ने बेजिंग एनवायरमेंट प्रोटेक्शन ब्यूरो, दिल्ली प्रदूषण नियंत्रण समिति और केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के चार महीनों के आंकड़ों का अध्ययन कर बताया है कि दिल्लीवासियों को ज्यादातर समय खतरनाक आबोहवा के बीच सांस लेनी पड़ती है। दिल्ली सरकार के सेंटर ऑफ आकुपेशनल ऐंड एनवायरमेंटल हेल्थ ने भी अपनी एक रपट में ऐसे ही चिंताजनक तथ्य दिए हैं। अनेक इलाकों की हवा में बेंजीन और कॉर्बन मोनो आक्साइड जैसे घातक रसायनों की मात्रा निर्धारित स्तर से दस गुना तक अधिक है। इसकी वजहें छिपी नहीं हैं। सड़कों पर वाहनों की बढ़ती तादाद इसका सबसे बड़ा कारण है। इसे नियंत्रित करने का मंसूबा जरूर एक-दो बार बांधा गया, पर अमल अब तक नहीं किया जा सका है। कई यूरोपीय देशों में कारों का इस्तेमाल नियंत्रित करने के नियम लागू हैं। कुछ साल पहले चीन के बेजिंग में वायु प्रदूषण की समस्या गहराई तो वहां सरकार ने सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था को कारगर बनाने पर ध्यान केंद्रित किया और निजी इस्तेमाल के वाहनों की बिक्री पर कड़ाई से अंकुश लगा दिया। फिलहाल वहां पूरे साल में डेढ़ लाख से अधिक नई गाड़ियों की बिक्री नहीं की जा सकती। जबकि हमारे यहां अकेले दिल्ली में रोज करीब डेढ़ हजार नई गाड़ियां सड़कों पर उतरती हैं। वाहन खरीदने के लिए कर्ज पर ब्याज दर बाकी कर्जों की अपेक्षा जानबूझ कर कम रखी गई है। तमाम वाहन निर्माता कंपनियां उपभोक्ताओं के रुझान को देखते हुए हर साल गाड़ियों के नए मॉडल और खरीदारी की आसान योजनाएं पेश करती रहती हैं। कारों की बेलगाम बढ़ती तादाद ने  पार्किंग की समस्या भी विकट बना दी है। पिछले साल केंद्र सरकार ने डीजल से चलने वाले निजी वाहनों पर अतिरिक्त कर लगाने, ऐसी गाड़ियों के लिए डीजल की कीमत बढ़ाने आदि का इरादा जताया था, पर पता नहीं किस वजह से इस दिशा में उसके कदम अब तक ठिठके हुए हैं। करीब पंद्रह साल पहले जब सार्वजनिक वाहनों में सीएनजी अनिवार्य की गई तो निजी वाहनों में भी इसका चलन बढ़ा था। पर इधर के कुछ सालों में जिस तरह सीएनजी की कीमत लगातार बढ़ती गई है, डीजल और सीएनजी की कीमतों में बहुत अंतर नहीं रह गया है। इससे डीजल से चलने वाली गाड़ियों का चलन तेजी से बढ़ा है। जबकि अनेक अध्ययनों से जाहिर हो चुका है कि वायु प्रदूषण सबसे अधिक डीजल-चालित गाड़ियां फैलाती हैं। ट्रकों के शहर में आवागमन को लेकर भी खासी उदारता बरती गई है। सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था को भरोसेमंद बना कर इस समस्या से काफी हद तक पार पाया जा सकता था, मगर इस मामले में भी पिछली दिल्ली सरकार लगातार विफल साबित हुई। दिल्ली की नई सरकार को इस मसले पर भी सक्रियता दिखानी चाहिए। स्वास्थ्य विज्ञानी चेताते रहे हैं कि वाहनों से निकलने वाले धुएं में कॉर्बन मोनो आॅक्साइड और बेंजीन जैसे घातक रसायन होते हैं जो इंसान के फेफड़े, दिमाग, हड्डियों, रक्त प्रवाह और स्नायुतंत्र पर बुरा प्रभाव डालते हैं। इसके चलते दमा, चिड़चिड़ापन, याददाश्त कमजोर होना, रक्ताल्पता और त्वचा संबंधी परेशानियां बढ़ती हैं। अब शहरी नियोजन और परिवहन नीति को पर्यावरण और सेहत की कसौटी पर कसना एक अनिवार्य तकाजा है।
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पर्यावरण की अनदेखी

जनसत्ता 07 जुलाई, 2014 :

पर्यावरण संरक्षण को लेकर मोदी सरकार ने जैसा रुख अपनाया हुआ है, वह चिंता का विषय होना चाहिए। कुछ ही दिनों में सरकार ने ऐसे कई फैसले किए हैं जो पर्यावरण के प्रति उसके गैर-जिम्मेदाराना व्यवहार को दर्शाते हैं। सबसे पहले पोलावरम परियोजना के तहत विस्थापित होने वाले गांवों की संख्या बढ़ाई गई, जिस पर तेलंगाना के सांसद राष्ट्रपति से मिल कर विरोध जता चुके हैं। विडंबना है कि यह फैसला अध्यादेश के जरिए लागू किया गया, जबकि यूपीए सरकार ने जब भी अध्यादेश का सहारा लिया, उसे कोसने में भाजपा ने कोई कसर नहीं छोड़ी थी। यह मोदी सरकार का दूसरा अध्यादेश था; पहला अध्यादेश वह था जिसके जरिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने मनपसंद प्रधान सचिव की नियुक्ति के लिए ट्राइ के नियमों में संशोधन किया। पोलावरम संबंधी अध्यादेश के बाद, नर्मदा बांध की ऊंचाई सत्रह मीटर बढ़ाने का फैसला हुआ। जबकि पहले के सभी विस्थापितों का पुनर्वास पूरा नहीं हो पाया है, और सर्वोच्च न्यायालय कह चुका है कि जब तक ऐसा नहीं हो जाता, बांध की ऊंचाई नहीं बढ़ाई जानी चाहिए। लेकिन राज्यपालों के बारे में संविधान पीठ के  फैसले को धता बताने वाली सरकार ने इस मामले में भी सर्वोच्च न्यायालय की हिदायत को ताक पर रख दिया। अब खबर है कि रेणुका बांध के जिस प्रस्ताव को यूपीए सरकार ने आखिरकार छोड़ देना ही ठीक समझा था, उसे मोदी सरकार पर्यावरणीय मंजूरी देने का इरादा बना चुकी है। 
हिमाचल प्रदेश के सिरमौर जिले में यमुना की सहायक नदी गिरि पर रेणुका बांध बनाने का प्रस्ताव यूपीए सरकार के पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने खारिज कर दिया था, यह देखते हुए कि बत्तीस गांव विस्थापित होंगे, तेरह सौ हेक्टेयर उपजाऊ जमीन और नौ सौ हेक्टेयर सघन वन डूब में आएंगे। उनके बाद पर्यावरण मंत्रालय की कमान जयंती नटराजन के हाथ में आई, पर उन्होंने भी पर्यावरण-हानि, विस्थापन और स्थानीय लोगों के विरोध के मद््देनजर रेणुका बांध के प्रस्ताव को मंजूरी नहीं दी। पर मौजूदा पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावडेकर को उस चीज की फिक्र नहीं है जिसके वे मंत्री हैं, पर्यावरण की चिंता करने के बजाय वे उद्योग-हितैषी दिखना पसंद करते हैं। कहने की जरूरत नहीं कि वे मोदी सरकार की प्राथमिकता के हिसाब से चल रहे हैं। यों यूपीए सरकार के समय भी परियोजनाओं को पर्यावरणीय मंजूरी देने में कम उदारता नहीं दिखाई गई, इसके लिए पर्यावरण संरक्षण और वनरक्षा कानून की अनदेखी भी होती रही। हालांकि उद्योग जगत को पर्यावरणीय मंजूरी मिलने में तमाम तरह की अड़चनें आने की शिकायत रही, पर हकीकत यह है कि पिछले दस सालों में बड़े पैमाने पर वनभूमि औद्योगिक इकाइयों और खनन परियोजनाओं की भेंट चढ़ गई। स्वीकृत परियोजनाओं की तुलना में नामंजूर किए गए प्रस्तावों का अनुपात ढाई फीसद से अधिक नहीं रहा। 
मोदी सरकार पर्यावरण की अनदेखी करने में और भी निर्मम नजर आती है। रेणुका बांध के प्रस्ताव के पक्ष में दिल्ली की पानी की जरूरत पूरी करने की दलील दी जा रही है। पहले भी यही तर्क दिया गया था। तब के पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने कहा था कि परियोजना को मंजूरी देने पर वे तभी विचार करेंगे, जब पहले दिल्ली जल बोर्ड आपूर्ति और प्रबंधन में होने वाले नुकसान में कम-से-कम चालीस फीसद कमी लाकर दिखाए। यह शर्त कभी पूरी नहीं हुई। दिल्ली में पानी की समस्या यमुना के विनाश और सैकड़ों तालाबों और झीलों का वजूद खत्म कर देने का नतीजा है। एक और पर्यावरण-विरोधी निर्णय करने के बजाय सरकार को दिल्ली के जल संकट के असल कारणों पर ध्यान देना चाहिए।
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