Monday 27 October 2014

प्राकृतिक आपदाएं




सक्षम भारत का उदय

Fri, 17 Oct 2014

तूफान और तबाही पर्यायवाची हैं। इसलिए तूफान से टकराना आसान नहीं, लेकिन भारत अब ऐसा ही आत्मविश्वासी राष्ट्र है। इजरायली चिड़िया हुदहुद के नाम वाले ताजे तूफान से भारी क्षति हुई। 10 हजार करोड़ से ज्यादा की संपदा तहस-नहस हो गई। सड़क, संचार सहित सारी सेवाएं नष्ट हो गईं, लेकिन भारतीय मौसम विज्ञानियों, आपदा प्रबंधन से जुड़े विशेषज्ञों ने भयावह आपदा से संभावित जन-क्षति को बचाया है। लगभग 5 लोग ही विभिन्न कारणों से मारे गए हैं। लाखों लोगों को सुरक्षित स्थानों तक पहुंचाने का कमाल प्रशंसनीय है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मुख्यमंत्री व अधिकारियों के साथ बैठक की। 1000 करोड़ की अंतरिम सहायता की घोषणा की है। इसके पहले जम्मू-कश्मीर में जल प्रलय जैसी स्थिति थी। मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला के मुताबिक उनकी सरकार भी बह गई थी, लेकिन केंद्र सरकार व भारतीय आपदा प्रबंधन ने कमाल किया। 51 हजार लोग बाढ़ से बचाए गए। सेना ने अभिभावक जैसी पालनहार भूमिका निभाई। मोदी ने कश्मीरी अवाम का दिल जीता। प्राकृतिक आपदाओं से टकराना अब भारत के बाएं हाथ का खेल है। सारी दुनिया में भारत की छवि आत्मविश्वासी और आत्मनिर्भर राष्ट्र के रूप में विकसित हुई है।
प्राकृतिक आपदाएं रोकी नहीं जा सकतीं, लेकिन आधुनिक विज्ञान, तकनीक और राष्ट्रीय संकल्प के चलते उनके प्रभाव घटा देना असंभव नहीं। हुदहुद इसका ताजा उदाहरण है। जम्मू-कश्मीर की बाढ़ भी ताजी आपदा ही है। गए बरस भी तूफान आया था। इस साल आंध्र प्रदेश निशाना रहा तो 2013 में ओडिशा में प्रलय हुई। पानी की लहरें आकाश में पहुंची थीं। अपने रौद्र रूप के कारण उसे फेलिन कहा गया। फेलिन ओडिशा में आया था 2013 में, लेकिन इसके पहले ओडिशा में ही 1999 में भयानक तूफान साइक्लोन ने तबाही मचाई थी तब दस हजार लोग मारे गए थे। तभी प्राकृतिक आपदा पर एक हाई पावर कमेटी बनी। गुजरात के भूकंप के बाद भी एक समिति बन चुकी थी। समिति को आपदा प्रबंधन के संबंध में सुझाव देने थे। दसवीं पंचवर्षीय योजना में भी आपदा प्रबंधन का विशेष उल्लेख किया गया। 2005 में आपदा प्रबंधन अधिनियम बना और राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण की व्यवस्था हुई। प्रधानमंत्री इसके अध्यक्ष होते हैं और संबंधित क्षेत्रों के मुख्यमंत्री सहित अन्य अनेक सदस्य। आपदा प्रबंधन पर सक्षम कानूनी संस्था और तकनीकी विकास का नतीजा था कि 2013 में फेलिन जैसे भयंकर तूफान के समय लाखों लोगों को सुरक्षित स्थान पर पहुंचाया गया।
भारत विशाल भू-क्षेत्र है। प्राकृतिक आपदाएं आती ही रहती हैं। हुदहुद आपदा की कार्रवाई के संदेश आशावादी और आत्मविश्वासी हैं। नरेंद्र मोदी ने जन और सत्ता के बीच सतत संवाद बढ़ाया है। आपदा प्रबंधन के लिए आवश्यक जन-शिक्षण पर पहल होनी चाहिए। 1971 से 1999 तक ओडिशा, आंध्र आदि क्षेत्र भयावह आपदाओं के शिकार हुए। 1971 में लगभग 10 हजार लोग मारे गए। 1972 में 260, 1976 में लगभग 100 और 1977 में 10 हजार से ऊपर जनहानि हुई। जन-धन की व्यापक हानि का सिलसिला 1999 तक चला। परिवर्तन दिखाई पड़ा 2013 में। बहुत कुछ खोकर हुदहुद से बचने की शक्ति प्राप्त हुई है, लेकिन इसी तूफानी वर्षा में यूपी में लगभग 17 लोग मारे गए हैं।
उत्तराखंड राज्य की प्राकृतिक आपदा आज भी सिहरन पैदा करती है। जल प्रवाह अचानक बढ़ा, पलक झपकते ही हजारों लोग डूब गए। ऐसी आपदा का पूर्वानुमान नहीं था। पहाड़ों पर जल प्रवाहों के रास्ते में अंधाधुंध निर्माण हुए। जल प्रवाह रोके गए। तमाम निर्माण कायरें को खतरनाक बताने वाली रिपोटर्ें भी थीं। आपदा प्रबंधन भी हुआ, लेकिन मारे गए लोगों की संख्या बहुत ज्यादा रही। तत्कालीन विधानसभाध्यक्ष केअनुसार मरने वालों की संख्या 10 हजार से भी च्यादा थी, लेकिन सरकार ने 1000 के करीब ही जनहानि बताई। सच जो भी हो पर क्षति भयावह ही थी। देश आहत था। सारे देश के श्रद्धालु तीर्थयात्रा में थे। आपदा के समय भी राजनीतिक लाभ लेने के प्रयास हुए। जनमानस ने प्राकृतिक आपदा के साथ राजनीतिक आपदा भी झेली। बावजूद इसके सारा देश पीड़ितों व पीड़ित परिवारों के साथ खड़ा हुआ। न उत्तराखंड के पीड़ित अकेले थे, न आंध्र या ओडिशा के और न ही जम्मू-कश्मीर के ही। भारत लगातार मजबूत हुआ है। आपदा से बचने, लड़ने और फिर से राष्ट्रीय पुनर्निर्माण में जुट जाने की सांस्कृतिक व राजनीतिक शक्ति बढ़ी है।
प्राकृतिक आपदाओं का कैलेंडर नहीं होता। यहां बाढ़ और सूखा साथ-साथ आते हैं। वर्षा इस साल गच्चा दे गई। मौसम विज्ञानी पूर्वानुमान भी यही था। टिप्पणीकार सूखे को लेकर निराशाजनक आर्थिक टिप्पणियां कर रहे थे, लेकिन मोदी की सत्ता और जनता के साझे आत्मविश्वास से सूखा भयावह आपदा नहीं बना। खाद्य क्षेत्रों की मुद्रास्फीति दर घटी है और महंगाई भी। देश के अनेक राच्यों में बाढ़ भी आई। व्यवस्था में नि:संदेह खामियां भी थीं, लेकिन राष्ट्रीय आत्मविश्वास की बाढ़ में प्राकृतिक बाढ़ आपदा से निपटने में कोई कमी नहीं आई। जम्मू-कश्मीर की बाढ़ आपदा ने अलगाववादी तत्वों को भी भारत होने और भारत में होने का सही अर्थ समझाया है, लेकिन प्राकृतिक आपदाओं से जूझने के लिए भारतीय प्रशासन की क्षमता अभी भी आदेश देने तक ही सीमित दिखाई पड़ रही है। प्रशासनिक अधिकारी आपदा के दौरान भी चुनौतियों में नहीं डूबते। वे प्राय: तटस्थ और निरपेक्ष रहते हैं। शुभ लक्षण है कि केंद्र की नई सरकार की नीति और कामकाज का प्रभाव उन पर भी पड़ रहा है। भारत पहले से कहीं च्यादा लैस है हरेक चुनौती का सामना करने के लिए।
भारत का आत्मविश्वास पंख फैलाकर उड़ा है। राष्ट्रीय स्वाभिमान और आशावाद भी। आपदा प्रबंधन के साथ मंगल अभियान की कामयाबी ने लोकमंगल का वातावरण बनाया है। धरती ही नहीं अंतरिक्ष में भी भारत की प्रतिष्ठा है। भारत सिद्धांतहीन गठबंधन राजनीति से उबर चुका है। केंद्र अब लाचार और निरुपाय नहीं है। अब नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में आत्मविश्वास से भरी पूरी सरकार है। राष्ट्रनीति और विदेशनीति में एकात्मकता है। भारत के बारे में विश्व दृष्टि बदल गई है। विज्ञान, तकनीक, मानविकी, दर्शन, संस्कृति और नेतृत्व सहित राष्ट्र जीवन के सभी क्षेत्रों में भारत की खास पहचान बनी है। दुनिया के राष्ट्राध्यक्ष अब भारत की उपेक्षा नहीं करते। वे भारत से मैत्री और संवाद के लिए उत्सुक हैं। राष्ट्र प्राकृतिक आपदाओं व अन्य चुनौतियों से भी निपटने में सक्षम है। न धन की कमी है और न साधन या मानव संसाधन की। कमी पहले भी नहीं थी। सिर्फ राजनीतिक इच्छाशक्ति की ही कमी थी। इसी से जन-विश्वास की कमी थी। जनविश्वास की कमी राष्ट्रीय विकास व पुनर्निर्माण में बाधक होती ही है। अब भारत का मन बदल रहा है। आत्मविश्वास बढ़ा है। राष्ट्र अपनी प्रकृति, संस्कृति और परंपरा में आधुनिक हो रहा है और आत्मनिर्भर भी। सक्षम और साम‌र्थ्यवान राष्ट्र होना ही भारत की नियति है।
[लेखक हृदयनारायण दीक्षित, उप्र विधान परिषद के सदस्य हैं]

औद्योगिक प्रदूषण




प्रदूषण की नई चुनौती

Wed, 22 Oct 2014

लंबे समय से प्रदूषण की समस्या से जूझ रहे उत्तर प्रदेश के सोनभद्र जिले में सिंगरौली क्षेत्र के लोगों के लिए अंतत: अब जाकर थोड़ी बहुत राहत मिलने की उम्मीद जगी है। यहां पर बड़ी तादाद में निजी और सार्वजनिक क्षेत्र की औद्योगिक इकाइयां तथा विद्युत पैदा करने वाले उद्योगों का समूह है। यह इलाका देश में सर्वाधिक विद्युत उत्पादन और खनन वाले क्षेत्रों में शुमार है। कुछ आकलन के अनुसार जहरीले मरकरी अथवा पारा का उत्सर्जन करने वाले देश के उद्योगों में 17 प्रतिशत उत्सर्जन केवल इस इलाके से होता है। स्थानीय आबादी को लेकर किए गए आधिकारिक और गैर-आधिकारिक, दोनों ही तरह के अध्ययनों से पता चलता है कि यहां के लोगों के खून में मरकरी का स्तर बहुत अधिक है। इसी तरह उनके बालों में भी इसका प्रभाव नजर आता है और इसके चलते उनके स्वास्थ्य में कई तरह की विसंगितयां उत्पन्न हो रही हैं। इस तरह के प्रदूषण से होने वाली बीमारी विशेषकर श्वांस संबंधी होती है।
दिसंबर 2009 में आइआइटी, दिल्ली और पर्यावरण तथा वन मंत्रालय के केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने संयुक्त अध्ययन के बाद घोषित किया कि सिंगरौली क्षेत्र देश के 43 सबसे अधिक प्रदूषित औद्योगिक क्षेत्रों के शीर्ष क्त्रम में शुमार है। इस गंभीर समस्या को देखते हुए निर्णय किया गया कि सफाई-स्वच्छता की विश्वसनीय योजना पर क्रियान्वयन किए बिना इस क्षेत्र का और अधिक विस्तार नहीं किया जाएगा। इस प्रतिबंध को एक एक्शन प्लान के आधार पर हटा लिया गया। लेकिन यह बात अलग है कि जिस एक्शन प्लान के आधार पर इस प्रतिबंध को हटाया गया वह कभी फलीभूत नहीं हो सका। यहां मरकरी के उच्च प्रदूषण की समस्या आज भी बरकरार है। मरकरी मानव स्वास्थ्य के लिए बेहद हानिकारक है। यही कारण है कि पिछले माह ही भारत अंतत: मिनामाटा कन्वेंशन ऑन मरकरी पर हस्ताक्षर करने को राजी हुआ। इस समझौते को पूर्ण रूप लेने में तकरीबन छह वषरें का समय लगा और इसका नामकरण एक जापानी शहर के आधार पर किया गया जो 1950 से ही घातक मरकरी के प्रदूषण और इसके जहरीलेपन का पर्याय रहा है। मरकरी प्रदूषण विभिन्न प्रकार के स्नोतों अथवा माध्यमों से बढ़ता है। अभी भी मरकरी का खनन कार्य जारी है। हालांकि यह विशेष रूप से चीन और कुछ मध्य एशियाई देशों में होता है। दस्तकारी में इसका बहुतायत में उपयोग होता है और अयस्कों से स्वर्ण कणों को अलग करने के लिए छोटे स्तर पर स्वर्ण खनन के दौरान इसका इस्तेमाल किया जाता है।
मरकरी का इस्तेमाल रासायनिक और पेट्रोरासायनिक उद्योगों में होता है और घरेलू जरूरत की चीजों जैसे सीएफएल और थर्मामीटर आदि में भी इसका इस्तेमाल किया जाता है। जिन संयत्रों में कोयले का इस्तेमाल होता है अथवा उसे जलाया जाता है उससे भी वातावरण में मरकरी का उत्सर्जन होता है। उद्योगों से स्नावित पदाथरें में भी मरकरी की उपस्थिति होती है जो बाद में पानी में फैलता है और नदियों तथा समुद्र तक पहुंचता है। इस प्रकार यह मानव खाद्य पदाथरें में पहुंचता है और मछली के माध्यम से भी हमारे शरीर में पहुंचता है। यही वे कारण हैं जिसने 1950 में जापान के मिनामाटा में एक आपदा का रूप लिया। प्रदूषित स्थलों में पुरानी खदान, अपशिष्ट भरावक्षेत्र तथा कूड़ा फेंकने वाले स्थान शामिल हैं। ये मरकरी प्रदूषण फैलने के महत्वपूर्ण स्नोत हैं। सिंगरौली से इतर बात करें तो तमिलनाडु के कोडाइकनाल हिल स्टेशन पर भी यह बहुत ही चिंता का विषय है। यहां पर थर्मामीटर का निर्माण करने वाले कारखानों की मौजूदगी है। इन कारखानों को पोंड कंपनी ने 1983 में अमेरिका से यहां पर स्थानांतरित किया और बाद में 1998 में हिंदुस्तान लीवर ने इसका अधिग्रहण कर लिया। मार्च 2001 में इस फैक्ट्री को तब बंद किया गया जब राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने इन्हें बंद करने का आदेश दिया। इसके बाद कंपनी ने यह आश्वासन दिया कि वह बंदीकरण के बाद व्यावसायिक सुरक्षा के साथ-साथ उपचारात्मक अन्य मानदंडों का पालन करेगी, लेकिन सिविल सोसायटी के कार्यकर्ताओं समेत कुछ गैर सरकारी संगठन निरंतर इसके खिलाफ संघर्षरत रहे हैं। चार वर्ष बाद दिसंबर 2011 में मद्रास हाईकोर्ट द्वारा गठित विशेषज्ञ समिति ने कंपनी के पक्ष में अपनी रिपोर्ट सौंपी, जबकि केंद्रीय श्रम और रोजगार मंत्रालय ने मद्रास हाईकोर्ट को एक अन्य रिपोर्ट सौंपी जिसमें उसके पूर्व कर्मचारियों ने खुद पर मरकरी के दीर्घकालिक हानिकारक प्रभावों का उल्लेख किया था। यह मामला अभी भी लंबित है।
कोडाइकनाल और सिंगरौली के अतिरिक्त ओडिशा का गंजम एक अन्य क्षेत्र है जहां मरकरी प्रदूषण खतरनाक स्तर पर पहुंच चुका है। इस बारे में कुछ विशेषज्ञों ने इसके खतरनाक पहलुओं पर ध्यान आकर्षित करते हुए बताया है कि भारतीय संदर्भ में मरकरी के संचयन के मामले में कीटनाशकों का प्रयोग सर्वाधिक खतरनाक है। मरकरी के प्रदूषण जिनमें आर्सेनिक, कैडमियम, क्रोमियम और सेलेनियम को भी जोड़ा जा सकता है, का उच्च स्तर पंजाब के भटिंडा जिले में पानी की सतह पर देखा जा सकता है। पंजाब का यह शहर कैंसर संभावना की दृष्टि से खतरनाक क्षेत्र के तौर पर उभरा है। आगामी दशकों में इनका तेजी से विस्तार होना स्वाभाविक है। इन वजहों से यह आवश्यक हो जाता है कि भारत अब कोयला आधारित विद्युत संयत्रों के साथ साथ कोयला खदानों के मामलों में मरकरी उत्सर्जन के मानदंडों का सख्ती से पालन सुनिश्चित करे। इस संदर्भ में मिनामाटा समझौते के तहत भारत के पास पांच वषरें का समय है, जबकि वह इन्हें नियंत्रित करे और नए विद्युत संयत्रों में इनका उत्सर्जन घटाए या कम करे। इस क्रम में मौजूदा विद्युत संयंत्र अधिकतम 10 वषरें तक इनका उत्सर्जन कर सकेंगे। लेकिन हमें इतना अधिक इंतजार करने की आवश्यकता नहीं है। हमें मरकरी रहित तकनीक की ओर अग्रसर होना है और सीएफएल से मरकरी मुक्त एलइडी तकनीक पर जोर देना होगा। मिनामाटा समझौते को लेकर आलोचना की जाती है कि यह एक कानूनी प्रक्त्रिया अधिक है, जो राजनीतिक दृष्टि से बहुत अधिक महत्वपूर्ण है, लेकिन इसके प्रभाव को कम करके नहीं आंका जाना चाहिए।
अंततोगत्वा इस बात की भी आवश्यकता है कि भारत मरकरी के अतिरिक्त विद्युत संयंत्रों से निकलने वाले सल्फर डाइऑक्साइड के उत्सर्जन के मानदंड को भी सख्ती से लागू करने की दिशा में कदम उठाए। भारत एकमात्र बड़ा देश है जिसके पास ऐसे किसी मानदंड का अभाव है। सिंगरौली जैसे स्थानों पर यह स्वास्थ्य संबंधी एक अन्य बड़ी समस्या है। सल्फर डाइऑक्साइड उत्सर्जन के मामले में भारत दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा देश है। इसका एक प्रमुख कारण देश में कोयला आधारित विद्युत उत्पादन की प्रणाली है। तथ्य यही है कि सल्फर डाइऑक्साइड वातावरण में लंबे समय तक बना रहता है। सल्फर डाइऑक्साइड हमारी श्वांस प्रणाली में आसानी से समा जाती है। इस प्रदूषण का हमारे स्वास्थ्य पर हानिकारक प्रभाव पड़ता है, जो दूसरी अन्य गंभीर बीमारियों को जन्म देती है।
[लेखक जयराम रमेश, पूर्व केंद्रीय मंत्री हैं]

वायु प्रदूषण




प्रदूषण पर शोध

Mon, 13 Oct 2014 

दिवाली के मौके पर आतिशबाजी के कारण होने वाले वायु प्रदूषण को लेकर अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) के डॉक्टरों का यह खुलासा चौंकाने वाला है कि इससे न केवल सांस की बीमारी बढ़ती है, बल्कि गठिया व हड्डियों के दर्द में भी इजाफा हो जाता है। संस्थान ने यह तय किया है कि इस बार इसी बात पर शोध किया जाएगा कि दिवाली पर पटाखे जलाने के कारण हवा में प्रदूषण का जो जहर घुलता है, उसका गठिया व हड्डी के मरीजों पर कितना असर पड़ता है। एम्स के विशेषज्ञों का कहना है कि अब तक हुए शोध में यह पाया गया है कि वातावरण में पार्टिकुलेट मैटर 2.5 का स्तर अधिक होने पर गठिया के मरीजों की हालत ज्यादा खराब हो जाती है। चूंकि दिवाली में आतिशबाजी के कारण प्रदूषण का स्तर बहुत बढ़ जाता है, लिहाजा इस बार गठिया के मरीजों पर दिवाली में होने वाले प्रदूषण के असर पर शोध किया जाएगा।
विशेषज्ञ यह भी मानते हैं कि जलवायु परिवर्तन और प्रदूषण भी गठिया की बीमारी के लिए जिम्मेदार कारक हैं। इस मामले में पिछले दो वर्षो से शोध चल रहा है। केंद्र सरकार के विज्ञान व प्रौद्योगिकी विभाग की मदद से किए जा रहे देश में अपनी तरह के इस अनूठे शोध के तहत गठिया के 400 व 500 सामान्य व्यक्तियों पर अध्ययन किया जा रहा है। यह शोध रिपोर्ट वर्ष 2016 तक आएगी। दिल्ली में दिवाली सबसे ज्यादा धूमधाम से मनाई जाती है। इस त्योहार पर राजधानी सचमुच किसी दुल्हन की तरह सजाई-संवारी जाती है। लेकिन इस साज-सज्जा का एक स्याह पक्ष यह भी है कि दीपों के त्योहार के इस मौके पर दिल्ली में इतनी ज्यादा आतिशबाजी होती है कि कई बार तो दिवाली के अगले दिन तक पूरे वातावरण में प्रदूषण की धुंध सी छाई रहती है। यह प्रदूषण बीमार व्यक्तियों के लिए तो मुसीबत खड़ी करता ही है, स्वस्थ व्यक्ति को भी कम नुकसान नहीं पहुंचाता। यदि एम्स के शोध में यह बात सामने आती है कि प्रदूषण के कारण गठिया के रोगियों में इजाफा हो रहा है, तो यह मानना पड़ेगा कि दिवाली की आतिशबाजी असल में बीमारी बांटने का काम करती है। दिल्ली में पहले ही 75 लाख से अधिक वाहन वायु प्रदूषण की बड़ी वजह बने हुए हैं। ऐसे में दिवाली पर खुशी के नाम पर बेहिसाब आतिशबाजी का चलन बंद होना चाहिए। इससे बहुत ज्यादा नुकसान होता है।
[स्थानीय संपादकीय: दिल्ली]

जैव विविधता




बड़ी चिंता

Sun, 05 Oct 2014

हाल ही में व‌र्ल्ड वाइल्डलाइफ फंड द्वारा जारी लिविंग प्लेनेट इंडेक्स में जैव विविधता के क्षरण को बड़ा खतरा बताया गया है। इस खतरे की व्यापकता, कारण और निवारण पर पेश है एक नजर:
तेजी से घटती जैव विविधता
* 1970 से 2010 के बीच के चालीस साल में जैव विविधता समग्र रूप से 52 फीसद कम हुई है।
स्थलीय प्रजातियां: चालीस साल में इन प्रजातियों में 39 फीसद कमी हुई है। इंसानों द्वारा कृषि व अन्य कार्यो में इस्तेमाल के चलते आवासीय संकट मुख्य कारण। शहरी विकास, ऊर्जा उत्पादन और शिकार अन्य प्रमुख वजहें।
ताजे जल की प्रजातियां: औसतन 76 फीसद कमी। आवास की कमी और रूप छोटे होना, प्रदूषण, और हमलावर प्रजातियां मुख्य वजहें।
समुद्री प्रजातियां: 39 फीसद की कमी। 1970 से 1985 तक तेज गिरावट, बाद में कुछ ठहराव, लेकिन कमी का दूसरा दौर शुरू। उष्णकटिबंधीय और दक्षिणी महासागर क्षेत्र में सर्वाधिक कमी। कछुए, शार्क की कई प्रजातियां, बड़े प्रवासी समुद्री पक्षी पर सर्वाधिक संकट
* दक्षिणी अमेरिका और एशिया प्रशांत क्षेत्र में जीव प्रजातियों की संख्या में अप्रत्याशित कमी
प्रकृति का तेज दोहन
* इंसान आज जितना प्रकृति का उपभोग कर रहा है, उसे पूरा करने के लिए डेढ़ पृथ्वी की जरूरत है। हम अपनी प्राकृतिक पूंजी का जिस तरह से अपव्यय कर रहे हैं उससे भविष्य में जरूरतें पूरी करनी मुश्किल हो जाएंगी।
* कार्बन फुटप्रिंट कुल इकोलॉजिकल फुट प्रिंट (धरती की पारिस्थितिकी से इंसानी मांग) के आधे से अधिक हो गया है।
* ग्लोबल वाटर फुटप्रिंट में कृषि की हिस्सेदारी 92 फीसद हो गई है। बढ़ती इंसानी जल जरूरतें और जलवायु परिवर्तन पानी के संकट को और जटिल कर रहे हैं।
* बढ़ती इंसानी आबादी और उच्च प्रति व्यक्ति फुट प्रिंट का दोहरा असर हमारे पारिस्थितिकी संसाधनों पर गुणात्मक दबाव डालेंगे।
* उच्च आय वाले देशों की प्रति व्यक्ति इकोलॉजिकल फुट प्रिंट निम्न आय वाले देशों के मुकाबले पांच गुना अधिक
असर
* मानव कल्याण जल, उपजाऊ जमीन, मछली, लकड़ी जैसे प्राकृतिक संसाधनों और परागण, पोषक चक्र और भूक्षरण नियंत्रण जैसे पारिस्थितिकी तंत्र पर आश्रित है।
* प्राकृतिक संसाधनों पर आश्रित गतिविधियों की प्लानिंग और प्रबंधन के केंद्र में पारिस्थितिकी तंत्र को रखकर ही आर्थिक और सामाजिक लाभ लिया जा सकता है।
* खाद्य, जल और ऊर्जा के अंतर-संबंधित मसले हम सभी को प्रभावित करते हैं।
* अधिसंख्य आबादी शहरों में रह रही है। विकासशील विश्व में शहरीकरण तेजी से हो रहा है।
क्या हैं उपाय
वन प्लेनेट सॉल्युशन यानी सभी को अपनी जरूरत और मांग धरती की क्षमता के मुताबिक ही करनी चाहिए। अकेली धरती के संसाधनों के उपभोग के लिए जरूरतों और मांगों का बेहतर चयन, प्रबंधन और साझेदारी की ओर उन्मुख होना होगा।
प्राकृतिक पूंजी का संरक्षण: क्षतिग्रस्त हुए पारिस्थितिकी तंत्र के पुन: दुरुस्त करने की जरूरत। प्राथमिकता वाले आवासों के नुकसान पर लगे रोक। संरक्षित क्षेत्र में उल्लेखनीय रूप से हो विस्तार
अच्छा पैदा करो: इनपुट और कचरे को करते हुए संसाधनों का टिकाऊ प्रबंधन हो। नवीकरणीय ऊर्जा उत्पादन में वृद्धि की जाए।
चातुर्य पूर्ण उपभोग: निम्न फुट प्रिंट जीवनशैली द्वारा टिकाऊ ऊर्जा इस्तेमाल और स्वस्थ खाद्य उपभोग पद्धति को बढ़ावा मिले।
वित्तीय बहाव की दिशा में बदलाव: प्रकृति का मूल्य हो, पर्यावरण और सामाजिक लागत तय हो, संरक्षण को समर्थन और पुरस्कृत किया जाए, संसाधनों का टिकाऊ प्रबंधन और नवोन्मेष हो
न्यायोचित संसाधन प्रशासन: उपलब्ध संसाधनों की साझेदारी हो। उचित और पारिस्थितिकीय रूप से सूचित विकल्पों को अमल में लाया जाए। सफलता को जीडीपी से परे भी देखा जाए।

प्राकृतिक संसाधन




भयावह भविष्य

Sun, 05 Oct 2014 

अगर इंसान प्राकृतिक संसाधनों के इस्तेमाल में सूझबूझ का इस्तेमाल नहीं करेगा तो आने वाली पीढि़यों के लिए ये जरूरतें पूरी करनी मुश्किल हो जाएंगी।
आबादी
तेज वृद्धि दर संसाधनों पर दबाव बढ़ाएगी।
7.2 अरब 2013 में
9.6 अरब 2050 में
शहरीकरण
ज्यादा आबादी अब शहरों में रहती है।
3.6 अरब लोग 2011 में
6.3 अरब लोग 2050 में
जंगल से लाभ
जंगल की पारिस्थितिकी दो अरब से अधिक लोगों के लिए रहने का सहारा, आजीविका, जल, ईधन और खाद्य सुरक्षा प्रदान करती है।
खाद्यान्न उत्पादन
खाद्य उत्पादन के मद में दुनिया का 70 फीसद पानी और 30 फीसद ऊर्जा का इस्तेमाल होता है।
ऊर्जा उत्पादन
औद्योगिक देशों में 45 फीसद स्वच्छ जल का इस्तेमाल ऊर्जा पैदा करने में किया जाता है।
समुद्री पारिस्थितिकी
वैश्विक रूप से 66 करोड़ से ज्यादा लोगों को रोजगार मुहैया करने में मददगार है।
पेयजल
धरती पर बसे प्रमुख एक तिहाई शहर पेयजल के लिए प्राकृतिक भंडार पर आश्रित हैं।
पर्यावरण नुकसान लागत
दुनिया में पर्यावरण को हो रहे नुकसान की लागत 2008 में करीब 6.6 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर थी। यह विश्व की जीडीपी का 11 फीसद है।
पेयजल मांग
2030 तक स्वच्छ जल की मांग वर्तमान आपूर्ति के मुकाबले 40 फीसद अधिक होगी।

वन




घटते वन, बढ़ते खतरे

Sat, 04 Oct 2014 

वनों के अंधाधुंध क्षरण और प्राकृतवास में बढ़ते मानव दखल से परेशान वन्यजीवों ने अपना रुख गांवों, कस्बों और शहरों की ओर कर दिया है। इन दिनों बुलंदशहर के निकट बाघ दिखने से हड़कंप मचा है। लाउडस्पीकरों से सतर्क रहने की चेतावनी दी जा रही है। यह पहला मामला नहीं है जब वन्यजीवों ने प्राकृतवास छोड़कर गांवों और शहरी क्षेत्रों का रुख किया हो। इसके पहले राजधानी लखनऊ सहित तमाम इलाकों में इस प्रकार की घटनाएं होती रही हैं। तेजी से घटते जंगलों के कारण चार साल में लगभग तीन दर्जन लोग वन्यजीवों के शिकार बने हैं। ऐसे में विचारणीय है कि आखिर इसके लिए जिम्मेदार कौन है? एक रिपोर्ट के अनुसार कुछ वषरें में प्रदेश में सैकड़ों वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र कम हो चुका है। जंगलों में जल संरक्षण के लिए सरकार लाखों रुपये हर साल खर्च करती है। बावजूद इसके जंगलों में पानी का संकट बना रहता है। जंगली जानवर पानी की तलाश में भी कई बार जंगल छोड़ कर भागते हैं। जंगली जानवरों और मानव में टकराव का एक और बड़ा कारण है। प्रदेश में गन्ने की खेती बहुतायत में होती है। बाघ और तेंदुए ऊंची घास में छिपकर रहना पसंद करते हैं। ऐसे में गन्ने के खेत उन्हें प्राकृतवास सरीखे लगते हैं। गन्ने के खेतों में छिपे वन्यजीवों को बस भोजन के लिए ही बाहर आना पड़ता है और तभी उन्हें टकराव का सामना करना पड़ता है। इस टकराव में वन्यजीव भी मारे जाते हैं और मानव भी। यह वातावरण तेंदुओं को ज्यादा रास आ रहा है। कुछ वषरें में दुधवा नेशनल पार्क, कतर्नियाघाट वन्यजीव अभ्यारण्य, सोहेलवा, हस्तिनापुर सेंचुरी सहित अन्य वन्य क्षेत्रों में सर्वाधिक टकराव की घटनाएं तेंदुए और मानव में ही हुई हैं। तमाम जानें भी गईं। जिस तेजी से वनों की तरफ आबादी बढ़ रही है उससे जंगली जीवों के अस्तित्व पर खतरा बढ़ा है। भारत की लगभग 1400 किलोमीटर सीमा नेपाल से सटी है। 1975 से पूर्व सीमा के दोनों ओर घने और विशाल वनक्षेत्र थे, जिससे वन्य-पशुओं का आवागमन निर्बाध रूप से होता था। अब इस क्षेत्र में भी वनों का काफी क्षरण हो चुका है, जिससे वन्यजीवों का भोजन और विचरण क्षेत्र घटा है। जरूरत आज के परिवेश में वन नीति बनाने की है। उम्मीद की जानी चाहिए कि सरकार कारगर वन नीति बनाएगी, जिससे वन्यजीवों और मानव दोनों सुरक्षित रह सकें।
(स्थानीय संपादकीय: उत्तर प्रदेश)
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तट के वन

जनसत्ता 7 अक्तूबर, 2014: पर्यावरणविद बहुत पहले से समुद्रतटीय वनों के संरक्षण के लिए आवाज उठाते रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र की एक ताजा रिपोर्ट ने भी ऐसे वनों की हालत को लेकर चिंता जताते हुए उन्हें बचाने का आह्वान किया है। यों सब तरह के जंगल तेजी से कटे हैं, पर यह रिपोर्ट बताती है कि मैंग्रोव वनों के नष्ट होने की रफ्तार कहीं ज्यादा रही है। सामान्य वनक्षेत्रों की तुलना में तटीय वन तीन से पांच गुना ज्यादा तेजी से कट रहे हैं। इस रिपोर्ट की अहमियत इसलिए और बढ़ जाती है, क्योंकि ग्लोबल वार्मिंग के चलते समुद्र का दायरा बढ़ने का अंदेशा जताया जा रहा है। मैंग्रोव वन समुद्र और थल के बीच बफर क्षेत्र का काम करते हैं। वे समुद्री भूकम्प या चक्रवात के समय रक्षक की भूमिका निभाते हैं; उनकी मौजूदगी ऐसी आपदा का असर कम कर देती है। इंडोनेशिया, श्रीलंका, भारत में आई सुनामी के जिन इलाकों में मैंग्रोव वन बचे हुए थे, वहां लहरों का कहर कम रहा। ये वन प्राकृतिक आपदा में प्रहरी का काम तो करते ही हैं, हमेशा से तटीय आबादी के लिए र्इंधन के स्रोत और आजीविका का सहारा भी साबित हुए हैं। इसके साथ ही ये जंगल जलीय और स्थलीय, दोनों तरह की बहुत-सी जीव-प्रजातियों के आश्रय भी रहे हैं। लेकिन इनके अनियंत्रित दोहन ने तटीय आबादी के साथ ही बहुत-सी वन्य प्रजातियों के लिए भी खतरा पैदा कर दिया है। अगर यही सिलसिला जारी रहा, तो संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट कहती है कि अगले सात-आठ दशक में मैंग्रोव नाममात्र को बचेंगे। यों इस रिपोर्ट ने होने वाले नुकसान का आर्थिक हिसाब भी लगाया है, पर ज्यादा बड़ा सवाल पारिस्थितिकी के क्षरण का है, जिसकी भरपाई नहीं की जा सकती।
भारत पहले ही इस मामले में बहुत कुछ खो चुका है। खुद एक सरकारी अध्ययन के मुताबिक पिछली शताब्दी में देश का मैंग्रोव आवरण चालीस फीसद कम हो गया। भारत के मैंग्रोव वन मुख्य रूप से इसके पश्चिमी और पूर्वी समुद्रतटीय क्षेत्रों और अंडमान एवं निकोबार में हैं। लेकिन इन्हें गंवाने की गति का अंदाजा इस एक तथ्य से लगाया जा सकता है कि 1987 से 1997 के बीच, एक दशक में अंडमान एवं निकोबार में बाईस हजार चार सौ हेक्टेयर मैंग्रोव वन नष्ट हो गए। यह सब कुदरती तौर पर नहीं, अंधाधुंध दोहन के चलते हुआ है। यही हाल सुंदरबन का भी है, जिसका एक हिस्सा भारत में आता है और बाकी बांग्लादेश में। वहां के मैंग्रोव वनों के भविष्य की कीमत पर बांग्लादेश ने तेरह सौ मेगावाट की बिजली परियोजना स्थापित की। दुनिया भर के पर्यावरणविदों की चेतावनी पर आखिरकार अमेरिका और विश्व बैंक ने उस परियोजना की वित्तीय मदद से हाथ खींच लिए। भारत में तटीय वनों के संरक्षण के मकसद से 1976 में पर्यावरण मंत्रालय के तहत राष्ट्रीय मैंग्रोव समिति गठित हुई थी। फिर मैंग्रोव वनों के सर्वेक्षण, सीमांकन जैसेकाम हुए।
पर समिति की ज्यादातर सिफारिशें ठंडे बस्ते में डाल दी गर्इं। सुनामी के कड़वे अनुभव के बावजूद तटीय जंगलों को बचाने की कोई कारगर योजना नहीं दिखती, उलटे पर्यटन को बढ़ावा देने के नाम पर समुद्रतटीय नियमन कानून को और नरम बना दिया गया। पर्यावरणीय तकाजों की अनदेखी करते हुए नदियों के किनारे भी अतिक्रमण और बेजा निर्माण का सिलसिला चलता रहा है, जिसका भयावह नतीजा पिछले साल उत्तराखंड में और हाल में जम्मू-कश्मीर में हम देख चुके हैं। संयुक्त राष्ट्र की ताजा रिपोर्ट एक गंभीर चेतावनी है, जिसे अनसुना नहीं किया जाना चाहिए।


वन्यजीव




गिद्ध के बहाने

Fri, 03 Oct 2014 

गुरुवार को गांधी जयंती पर आयोजित स्वच्छता दिवस बीता और शुक्रवार को दशहरा है। एक दिन हमने सफाई का सच्चा झूठा संकल्प दिखाया और यदि चाहते हैं कि वास्तव में देश में गंदगी न दिखे तो यह अभियान दीप पर्व से भी जोड़ें। नरक चौदस (छोटी दीवाली) तो सफाई का धार्मिक दिन ही है। आरंभ दशहरे से कर सकते हैं। दशहरा बुराई पर अच्छाई की जीत का दिन है। गंदगी भी बड़ी बुराई है तो क्यों न इस बार हम इसे गंदगी पर सफाई की विजय का दिन मानें। गंदगी से ही उपजती हैं रावण के दस सिर रूपी महामारियां। उनसे लड़ना और जीत हासिल करना भी वर्तमान भारत में विजय दिवस होगा। शायद ऐसी ही सोच के तहत प्रदेश सरकार ने प्रकृति के कुशल स्वच्छकारों के प्रति स्वागतयोग्य चिंता दिखाई है। विभिन्न गिद्ध प्रजातियों को प्रकृति का नैसर्गिक स्वच्छकार माना जाता है, लेकिन तीन दशक में इनके सामने अस्तित्व का संकट है। बहुतों ने अरसे से आसमान में मंडराते गिद्धों की टोली नहीं देखी होगी जबकि कभी ये दृश्य हमारे जीवन का हिस्सा थे। अध्ययन बताते हैं गिद्धों की आबादी 97 फीसद तक घट गई है। नेचर पत्रिका में दशक भर पहले प्रकाशित हो चुका था कि पशुओं की दवा डाइक्लोफेनाक गिद्धों की आबादी के लिए काल साबित हुई है। गिद्ध मुख्य रूप से मृत मवेशियों का मांस खाकर जीवन निर्वाह करते हैं। डाइक्लोफेनाक खाने वाले मृत पशुओं के मांस में इस दवा के तत्व रह जाने के कारण वे गिद्धों के लिए काल बन गए। जब यह तथ्य प्रकाश में आये तभी से डाइक्लोफेनाक को प्रतिबंधित करने की बहस शुरू हो गई थी। अब उत्तर प्रदेश में भी यह दवा प्रतिबंधित कर दी गई है और अगले तीन महीने में इसे पूरी तरह हटा दिया जाएगा। यह सिर्फ एक उदाहरण है जो बताता है कि जरा सी उदासीनता से प्रकृति का कितना नुकसान हो सकता है। पारिस्थितिकी में प्रत्येक जीव व वनस्पति की भूमिका तय है। कोई एक कड़ी भी टूटी तो पूरा संतुलन भरभरा कर ढह सकता है। गिद्धों को ही ले लें। वह मृत पशुओं का मांस खाकर पर्यावरण को स्वच्छ और सड़ांध मुक्त रखते हैं। महामारी नहीं फैलने देते। गिद्धों का उदाहरण हमारे लिए चेतावनी है कि पारिस्थितिकी के साथ खिलवाड़ न होने दें। इसके लिए अज्ञानता के जाले हटाकर मस्तिष्क की सफाई करना भी जरूरी है। तभी सम्पूर्ण स्वच्छता का सपना पूरा होगा।
[स्थानीय संपादकीय: उत्तर प्रदेश]
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अकेले रह जाएंगे

नवभारत टाइम्स| Oct 3, 2014

वन्यजीवों के लगातार कम होने की चिंता दुनिया भर में जताई जाती रही है। किंतु चौंकाने वाला तथ्य यह है कि अब बमुश्किल इनकी 3000 प्रजातियां ही पृथ्वी पर बची हैं। डब्ल्यूडब्ल्यूएफ (वर्ल्ड वाइड फंड फॉर नेचर) की रिपोर्ट बताती है कि पिछले 40 सालों में इंसानों की आबादी दोगुनी हुई है, लेकिन वन्यजीवों की संख्या घटकर आधे से भी कम रह गई है। साल 1970 से 2010 के बीच स्तनधारियों, पक्षियों, सरीसृपों, उभयचरों और मछलियों की संख्या पूरी दुनिया में 52 प्रतिशत कम हुई है। समुद्री कछुए 80 प्रतिशत कम हो गए हैं, जबकि अफ्रीकी हाथियों के तो हमारे सामने ही विलुप्त हो जाने की आशंका है। ऐसा नहीं कि वन्यजीवों पर आई यह आपदा टाली नहीं जा सकती थी। इस विनाश की वजह अनियंत्रित तरीके से बढ़ रही जनसंख्या और हमारी कभी न खत्म होनेवाली प्राकृतिक संसाधनों की भूख है। वन्यजीवों के घर छीनने भर से हम संतुष्ट नहीं हुए, उनका शिकार भी किया। समुद्रों में विशाल ट्रॉलर लगाकर इतनी बेरहमी से मछलियां पकड़ीं कि न सिर्फ उनकी बल्कि उस इलाके के सभी समुद्री जीवों की संतति ही नष्ट हो गई। प्रकृति का दोहन हम इस गति से कर रहे हैं कि जैसे दो-चार और पृथ्वियां हमारे पास उपभोग के लिए मौजूद हों। इस तरह हम अपने ही भविष्य को जोखिम में डाल रहे हैं। बढ़ते मानव-वन्यजीव संघर्ष को लेकर बातें तो होती रहीं है, लेकिन अब बातों से आगे बढ़ने का समय आ गया है। अगर हम चाहते हैं कि हमारी अगली पीढ़ी के लिए वन्य जीव सिर्फ किताबों में पढ़ने की चीज न रह जाएं तो वनों में बढ़ते मानव दखल पर सख्ती से लगाम लगानी होगी।
विकास और जंगल के बीच बेहतर समन्वय को विकास रणनीति का केंद्रबिंदु बनाना होगा। प्रकृति के साथ किए जा चुके खिलवाड़ को जड़ से सुधारना हमारे वश में नहीं है, लेकिन अपनी गलती को दोहराते जाने से बचना, प्रकृति के साथ अपने रिश्ते को याद रखना हमारे वश में है। पशु एक दूसरे के प्रति क्रूर हो सकते हैं, लेकिन इतने नहीं कि किसी अन्य पशु की जाति ही नष्ट कर दें। हमें तो सोच-समझ का उपहार मिला हुआ है, फिर ठीक यही गलती हम कैसे करते जा रहे हैं?
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वन्यजीव हैं तो हम सभी हैं

Sun, 05 Oct 2014

जंगल, जानवर, जमीन और जल इन चार 'ज' के बिना जीवन की कल्पना भी संभव नहीं। इन सबमें से आजकल बड़ा खतरा बेजुबान वन्यजीवों पर है। बात चाहे जंगल के अनियंत्रित दोहन की हो, उसके कारण सूखते जल स्नोतों की हो या सीमित होते वन क्षेत्रों की, उसका सबसे अधिक दुष्प्रभाव उन जानवरों पर पड़ता है, जो अपनी पीड़ा बयां ही नहीं कर पाते। मगर, धरती का सबसे समझदार जीव यानी मनुष्य तो इस बात को समझ सकता है। एक पल के लिए वन्यजीव की चिंता न सही, अपनी खातिर तो कम से कम वन्यजीवों की पीड़ा जरूर समझनी होगी। क्योंकि वन्यप्राणियों के बिना संसार की कल्पना भी नहीं की जा सकती। धरती पर जो भी जीव मौजूद हैं, उनकी भूमिका पारिस्थितिक तंत्र में बेहद अहम है और पारिस्थितिकी चक्र में सभी प्राणी एक श्रृंखला के रूप में बंधे हैं। श्रृंखला की एक कड़ी में भी दिक्कत पैदा होगी तो उसका असर श्रृंखला की सभी कड़ियों पर समान रूप से पड़ेगा।
ठीक है देश को विकास चाहिए और विकास की हर गाथा कुछ न कुछ कीमत जरूर मांगती है। लेकिन, उस कीमत को टिकाऊ बनाना भी मनुष्य का ही काम है। देश में करीब 30 फीसद सड़कें वन क्षेत्रों में बन रही हैं। इनमें राष्ट्रीय पार्क हैं, वाइल्डलाइफ सेंचुरी हैं और विस्तृत रूप में अन्य आरक्षित वन भी शामिल हैं। गौर करने वाली बात यह कि अधिकतर विकास कार्य वन्यप्राणियों की सुविधा को देखते हुए नहीं किए जा रहे। यदि कहीं पर सुरंग बन रही तो निर्माण संस्था को यह पता होना चाहिए कि कितनी लंबी व ऊंची सुरंग बनाकर वन्यजीवों की स्वच्छंदता को खलल से बचाया जा सकता है। बेशक सिविल इंजीनियर को यह बात मालूम नहीं होगी।
मगर, इसके लिए वन्यजीवों पर काम कर रहे संस्थानों की मदद ली जा सकती है। उनकी रिसर्च, सहयोग व जुटाए गए आंकड़ों का इस्तेमाल कर विकास को विनाशरहित बनाया जा सकता है। सबसे पहले तो हमारी सरकार व विशेषज्ञों को यह समझना होगा कि चारों 'ज' का आपस में संबंध किस तरह जुड़ा है। आज बाघ, गुलदार, हाथी या अन्य किसी जानवर के ट्रेन या वाहनों की चपेट में आ जाने पर होहल्ला तो होता है, मगर हादसे के पीछे की असल वजह को जानने व उसके समाधान के प्रयास कम ही हो पाते हैं। यह भी कम चिंताजनक नहीं कि हमारी सरकारी संस्थाओं का आपस में समन्वय ना के बराबर है। कोई विभाग पानी पर काम कर रहा है, कोई जंगल पर, कोई प्रदूषण नियंत्रण पर। सभी का मकसद जीवन की सुरक्षा व उसे उन्नत बनाना है। गौर करने वाली बात यह कि जब तमाम प्राकृतिक संसाधनों का आपस में अटूट संबंध है और किसी एक संसाधन पर खतरा पैदा होने का असर दूसरे संसाधन पर भी पड़ता है, तो क्यों संबंधित विभाग आपस में समन्वय बनाकर काम नहीं कर सकते। सरकार को किसी वन क्षेत्रों के आसपास बन रही परियोजना में ऐसे संस्थानों की मदद लेनी चाहिए, जो वन्यजीवों के लिए काम करती हों। कुछ समय पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि देश को विकास चाहिए, लेकिन पर्यावरण की कीमत पर नहीं। उनकी इस बात के पीछे भी यही मकसद है कि विकास ऐसा हो, जो पर्यावरण को नुकसान न पहुंचाए। भारतीय वन्यजीव संस्थान की ही बात करें तो हमारे वैज्ञानिकों ने ऐसे तमाम शोध कार्यो को अंजाम दिया है, जिनकी संस्तुतियों को अमल में लाकर विकास और विनाश के बीच संतुलन बनाया जा सकता है। संस्थान राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण को इस तरह के कुछ आंकड़े देने पर विचार कर रहा है, ताकि सड़क परियोजनाओं में जानवरों के प्राकृतिक वास स्थलों, उनके कॉरीडोर आदि को खतरा न पहुंचे। दूसरी बड़ी बात यह कि सरकारी स्तर पर वन्यजीवों की सुरक्षा के लिए बड़ी-बड़ी योजनाएं बनी हैं और बन रही हैं। लेकिन, योजनाएं तभी सार्थक हो पाएंगी, जब आम आदमी का सहयोग भी सरकार को मिलेगा। हर व्यक्ति को यह समझना होगा कि वन्यजीव भले ही उनसे दूर रहते हैं, लेकिन मानव जीवन के लिए उनका जिंदा और सुरक्षित रहना बेहद जरूरी है। बेशक वन क्षेत्रों की सैर करें, पर उनके विचरण में बाधक न बनें। जहां तक संभव हो वन क्षेत्रों और वन्य जीवों के कॉरीडोर पर कब्जा न करें। लोग जानवरों को प्रकृति के संरक्षक के रूप में स्वीकार करेंगे तो उनकी सुरक्षा की गारंटी पक्की हो जाएगी।
-डॉ वीबी माथुर [निदेशक- भारतीय वन्यजीव संस्थान, देहरादून]
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सीमाएं लांघती मानवता

Sun, 05 Oct 2014

डब्ल्यूडब्ल्यूएफ-इंटरनेशनल के डायरेक्टर जनरल ने ताजा लिविंग प्लेनेट रिपोर्ट की प्रस्तावना में सही लिखा है कि कमजोर दिल वालों के लिए यह रिपोर्ट नहीं है। महज 35 वर्षो में कशेरुकी प्राणियों की वैश्विक आबादी घटकर आधी रह गई है और पूरी दुनिया में वन्यजीवों की संख्या लगातार कम होती जा रही है। जो लोग वन्यजीव या कशेरुकियों के प्रति चिंतित नहीं हैं, वह पूछ सकते हैं तो क्या? इससे क्या फर्क पड़ता है? लेकिन थोड़ी सी गहराई में जाने पर कोई भी समझ सकता है कि पृथ्वी में हो रहे परिवर्तनों के कारण यह नुकसान हुआ है। मानव भी अपनी प्रगति और तकनीकी उन्नति के बावजूद इसके प्रभाव की चुनौती का मुकाबला करने की स्थिति में नहीं है। हम अपने संसाधनों का इस कदर दोहन कर रहे हैं कि इससे सीमित प्राकृतिक संसाधनों पर जबर्दस्त दबाव उत्पन्न हो गया है। क्रोनी कैपटलिज्म, लालच और बढ़ती उपभोक्तावादी संस्कृति के चलते हम धीरे-धीरे खुद ही अपने विनाश की ओर बढ़ रहे हैं। वन्यजीव आबादी का घटना यह बताता है कि धरती पर जीवन धारण क्षमताएं भी खत्म हो रही हैं। क्या भारत को भी इसके लिए चिंतित होने की जरूरत है? हालांकि हमारा संसाधनों का प्रति व्यक्ति उपभोग कम है और देश की बड़ी आबादी गरीब है लेकिन विशाल आबादी के कारण हमारा इकोलॉजिकल फुट प्रिंट चीन और अमेरिका के बाद हमको तीसरा सबसे उपभोगी राष्ट्र बनाता है।
भारत का प्रकृति से बहुत ही सहज नाता रहा है। हमारे प्राचीन ग्रंथों में प्रकृति को शांति और आनंद का प्रतीक बताते हुए ध्यान और चिंतन का स्थल बताया गया है। आदिवासी समूहों में प्रकृतिवादी मान्यताओं के तहत प्रकृति और प्राकृतिक तत्वों की पूजा होती है। यद्यपि यह सही है कि मानव-वन्यजीव संघर्ष बढ़ा है लेकिन यह भी सही है कि 1947 में सरगुजा के महाराजा द्वारा देश के अंतिम चीता को मारने के बाद से कोई बड़ा जीव विलुप्त नहीं हुआ है।
जंगलों के निकट रहने वाली आबादी ने भी अपने पशुओं और फसलों को नष्ट करने वाले जंगली जीवों के प्रति सहिष्णुता का ही परिचय दिया है। लेकिन दूसरी तरफ हम बेहद तेजी से विकसित होने की कोशिशों में लगे हैं। देश का आर्थिक विकास जरूरी है लेकिन हमारा पोषण करने वाले वातावरण की कीमत पर इसको नहीं किया जाना चाहिए। हमारी नदियों में कूड़ा-कचरा भरा है और शहर भी बहुत आरामदेह और मनोनुकूल नहीं हैं। हमारे देश में तीन प्रतिशत से भी कम भू-भाग का उपयोग जैव विविधता संरक्षण के लिए होता है। क्या इस छोटे भू-भाग से अपने हाथों को दूर रखना बहुत जटिल है? तीव्र शहरीकरण, कृषि का विस्तार, बड़े बांध और राजनीति से प्रेरित होकर जंगली भूमि का अतिक्रमण, उद्योगों के लिए जंगलों का कटाव, सड़क और खनन मिलकर वनों और वन्यजीवों पर बहुत बुरा प्रभाव डाल रहे हैं। जंगलों और वन्यजीवों पर हानिकारक प्रभाव डालने वाले प्रत्येक गतिविधि की तुलना में ऐसे कम हानिकारक वैकल्पिक विकल्प उपलब्ध है जिसके माध्यम से थोड़े से अतिरिक्त प्रयास के जरिये पर्यावरण पर होने वाले नुकसान को कम किया जा सकता है। इसके साथ ही हमको यह अंतदर्ृष्टि भी विकसित करनी होगी कि अपनी प्राकृतिक संपदा की लूट से राष्ट्र की तरक्की नहीं हो सकती।
जलवायु परिवर्तन, झुलसाती गर्मियां, सूखे और बाढ़ की शक्ल में चेतावनी के निशान मिलने लगे हैं। प्रकृति के प्रकोप से बचाने के लिए हमारी कोई भी तकनीकी उन्नति पर्याप्त नहीं है। जटिल संरचना के जरिये सभी प्राकृतिक अस्तित्व अंतर्सबंधित और अंतर्निभर हैं। हम अभी तक मुश्किल से ही इस खूबसूरत धरती पर जीवन की तारतम्यता की जटिल संरचना को समझ पाए हैं लेकिन जो व्यवस्था अपने आप ही निरंतर गति से चल रही है उसमें हस्तक्षेप करने की कोशिश करते रहते हैं। प्रकृति भी इस तरह की कुछ हल्की-फुल्की छेड़छाड़ की अनुमति देती है और हमारी कुछ भूलों को माफ करते हुए प्रकृति अपने आप ही उसके उपचार प्रक्रिया में लग जाती है। लेकिन मानवता अपनी सीमाएं लांघ रही है। प्रकृति का इस कदर दोहन कर रही है कि प्रकृति के पास इसके उपचार का समय ही नहीं मिल रहा है।
दुनिया की परेशानी का कारण यह तथ्य नहीं है कि हम विकसित होना चाहते हैं। प्रत्येक राष्ट्र, व्यक्ति विकसित होकर समृद्ध, सुरक्षित और अर्थपूर्ण जीवन चाहता है। हमें अपने आप से सवाल पूछना चाहिए कि क्या हम उस देश में विकसित होना चाहते हैं जहां विकास का आकलन लोगों की समृद्धि, संसाधनों का समान वितरण, घने जंगलों और वन्यजीवों के साथ खुशी और समरसता से किया जाता है, अथवा हम विकास के कुछ अमूर्त आंकड़ों को छूकर विकसित कहलाना चाहते हैं। जिसमें इन जादुई आंकड़ों तक पहुंचने के लिए अपने संसाधनों को नष्ट किया गया है।
-ऋषि कुमार शर्मा [वन्यजीव विशेषज्ञ, डब्ल्यूडब्ल्यूएफ-इंडिया]
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किस्सा

Sun, 05 Oct 2014

धरती के संसाधनों पर सभी का हक बराबर है। केवल जीव ही नहीं पादप भी उसके बराबर के हिस्सेदार हैं। अगर हम उन्हें बराबर की हिस्सेदारी दे सकने में कामयाब रहते तो आज पर्यावरण असंतुलन की नौबत ना आती। पृथ्वी के सबसे समझदार जीव होने के नाते हमें यह जानना चाहिए कि जीवन की उत्पत्तिऔर क्रमिक उद्विकास में हर जीव यहां के संसाधनों का बराबर का हकदार रहा है। यह बात एककोशीय अमीबा से लेकर स्तनपायी और रीढ़वाले होमोसेपियंस तक पर लागू होती है।
हिस्सा
चूंकि जीवों और पादपों के साथ अभिव्यक्ति का संकट है या यूं कहें कि उनकी अभिव्यक्ति हम समझना नहीं चाहते, लिहाजा अपनी मनमानी उनके ऊपर लगातार थोपते चले आ रहे हैं। उनके अधिकारों का अतिक्रमण करते चले आ रहे हैं। इंसानों और जानवरों के टकराव की घटनाएं बढ़ रही हैं। अति शिकार और उनके आवासों पर कब्जा करके हम जीवों की कई प्रजाति समाप्त कर चुके हैं। कई समाप्त होने के कगार पर हैं। आजिज आकर उन्हें इंसानी बस्तियों का रुख करना पड़ रहा है। मानो वे अपना हक मांग रहे हों। लिहाजा टकराव अपरिहार्य हो जा रहा है।
शिक्षा
धरती पर इंसान और वन्यजीव का सहअस्तित्व प्रकृति की चाहत रही है। इन्हें धरती का गहना कहा जाता है। जीवों को खत्म करके हम एक तरह से प्रकृति की इच्छा के विपरीत काम कर रहे हैं। अगर उनका अस्तित्व नहीं रहेगा तो हम भी नहीं रह पाएंगे। विकास की अंधाधुंध धुन से परे प्रकृति और उसके अंगों-उपांगों को सहेजना भी हमारा ही दायित्व है। वन्य जीवों को बचाने और उनका अस्तित्व बरकरार रखने के प्रति लोगों को जागरूक करने के लिए हर साल देश में 2-8 अक्टूबर तक वन्य जीव सप्ताह मनाया जा रहा है। ऐसे में जंगल और जंगली जीवों को बचाना, उनकी विविधता बरकरार रखना, प्रकृति प्रदत्ता उन्हें उनका हक सुनिश्चित कराना आज हम सबके लिए बड़ा मुद्दा है।
जनमत
क्या वन्य जीवों पर संकट के लिए इंसानी अतिक्रमण जिम्मेदार है?
हां 94 फीसद
नहीं 6 फीसद
क्या विकास की कीमत पर वन्य जीवन की चिंता करनी चाहिए?
हां 85 फीसद
नहीं 15 फीसद
आपकी आवाज
विकास की चकाचौंध से हम पर्यावरण पर उसके पड़ने वाले प्रभाव को भूलते जा रहे हैं। जिसका प्रभाव वन्य जीव और मानव जाति पर भी पड़ रहा है। - रजत श्रीवास्तव
वन्य जीवन प्रकृति की अनिवार्य योजना का अभिन्न अंग है। मानव जीवन की सुरक्षा हेतु वन्यजीवन चिंता अपरिहार्य है। - मनीषा श्रीवास्तव
वन्यजीवन की चिंता किए बगैर विकास कहां संभव है, हमारा परिवेश प्रकृतिवाद है, जिसके विकास में ही हमारा विकास है। -लवकुश पांडे
जब हम विकास की बात करते हैं तो तब यह भूल जाते हैं कि मानवीय जीवन के विकास का मूल आधार ही प्रकृति के साथ उसके द्वारा दिया गया वन्य जीवों और वनस्पतियों का उपयोग करते हुए आगे बढ़ना है। -शुभमगुप्ता100@जीमेल.कॉम
हम जिस तरह प्रकृति का दोहन कर रहे हैं तो ऐसा होना लाजमी है। -अश्विनी सिंह
वन्य जीवों पर संकट के लिए इंसान ही प्रमुख रूप से जिम्मेदार है। अपनी महत्वाकांक्षा और आवश्यकताओं के लिए मानव जंगलों को मिटाता जा रहा है। जिसके परिणामस्वरूप वन्य जीवों पर संकट छाने लगा है। -शरद नौगेन1@जीमेल.कॉम