गुरुवार को गांधी जयंती पर आयोजित स्वच्छता दिवस बीता और शुक्रवार को दशहरा है। एक दिन हमने सफाई का सच्चा झूठा संकल्प दिखाया और यदि चाहते हैं कि वास्तव में देश में गंदगी न दिखे तो यह अभियान दीप पर्व से भी जोड़ें। नरक चौदस (छोटी दीवाली) तो सफाई का धार्मिक दिन ही है। आरंभ दशहरे से कर सकते हैं। दशहरा बुराई पर अच्छाई की जीत का दिन है। गंदगी भी बड़ी बुराई है तो क्यों न इस बार हम इसे गंदगी पर सफाई की विजय का दिन मानें। गंदगी से ही उपजती हैं रावण के दस सिर रूपी महामारियां। उनसे लड़ना और जीत हासिल करना भी वर्तमान भारत में विजय दिवस होगा। शायद ऐसी ही सोच के तहत प्रदेश सरकार ने प्रकृति के कुशल स्वच्छकारों के प्रति स्वागतयोग्य चिंता दिखाई है। विभिन्न गिद्ध प्रजातियों को प्रकृति का नैसर्गिक स्वच्छकार माना जाता है, लेकिन तीन दशक में इनके सामने अस्तित्व का संकट है। बहुतों ने अरसे से आसमान में मंडराते गिद्धों की टोली नहीं देखी होगी जबकि कभी ये दृश्य हमारे जीवन का हिस्सा थे। अध्ययन बताते हैं गिद्धों की आबादी 97 फीसद तक घट गई है। नेचर पत्रिका में दशक भर पहले प्रकाशित हो चुका था कि पशुओं की दवा डाइक्लोफेनाक गिद्धों की आबादी के लिए काल साबित हुई है। गिद्ध मुख्य रूप से मृत मवेशियों का मांस खाकर जीवन निर्वाह करते हैं। डाइक्लोफेनाक खाने वाले मृत पशुओं के मांस में इस दवा के तत्व रह जाने के कारण वे गिद्धों के लिए काल बन गए। जब यह तथ्य प्रकाश में आये तभी से डाइक्लोफेनाक को प्रतिबंधित करने की बहस शुरू हो गई थी। अब उत्तर प्रदेश में भी यह दवा प्रतिबंधित कर दी गई है और अगले तीन महीने में इसे पूरी तरह हटा दिया जाएगा। यह सिर्फ एक उदाहरण है जो बताता है कि जरा सी उदासीनता से प्रकृति का कितना नुकसान हो सकता है। पारिस्थितिकी में प्रत्येक जीव व वनस्पति की भूमिका तय है। कोई एक कड़ी भी टूटी तो पूरा संतुलन भरभरा कर ढह सकता है। गिद्धों को ही ले लें। वह मृत पशुओं का मांस खाकर पर्यावरण को स्वच्छ और सड़ांध मुक्त रखते हैं। महामारी नहीं फैलने देते। गिद्धों का उदाहरण हमारे लिए चेतावनी है कि पारिस्थितिकी के साथ खिलवाड़ न होने दें। इसके लिए अज्ञानता के जाले हटाकर मस्तिष्क की सफाई करना भी जरूरी है। तभी सम्पूर्ण स्वच्छता का सपना पूरा होगा।
वन्यजीवों के लगातार कम होने की चिंता दुनिया भर में जताई जाती रही है। किंतु चौंकाने वाला तथ्य यह है कि अब बमुश्किल इनकी 3000 प्रजातियां ही पृथ्वी पर बची हैं। डब्ल्यूडब्ल्यूएफ (वर्ल्ड वाइड फंड फॉर नेचर) की रिपोर्ट बताती है कि पिछले 40 सालों में इंसानों की आबादी दोगुनी हुई है, लेकिन वन्यजीवों की संख्या घटकर आधे से भी कम रह गई है। साल 1970 से 2010 के बीच स्तनधारियों, पक्षियों, सरीसृपों, उभयचरों और मछलियों की संख्या पूरी दुनिया में 52 प्रतिशत कम हुई है। समुद्री कछुए 80 प्रतिशत कम हो गए हैं, जबकि अफ्रीकी हाथियों के तो हमारे सामने ही विलुप्त हो जाने की आशंका है। ऐसा नहीं कि वन्यजीवों पर आई यह आपदा टाली नहीं जा सकती थी। इस विनाश की वजह अनियंत्रित तरीके से बढ़ रही जनसंख्या और हमारी कभी न खत्म होनेवाली प्राकृतिक संसाधनों की भूख है। वन्यजीवों के घर छीनने भर से हम संतुष्ट नहीं हुए, उनका शिकार भी किया। समुद्रों में विशाल ट्रॉलर लगाकर इतनी बेरहमी से मछलियां पकड़ीं कि न सिर्फ उनकी बल्कि उस इलाके के सभी समुद्री जीवों की संतति ही नष्ट हो गई। प्रकृति का दोहन हम इस गति से कर रहे हैं कि जैसे दो-चार और पृथ्वियां हमारे पास उपभोग के लिए मौजूद हों। इस तरह हम अपने ही भविष्य को जोखिम में डाल रहे हैं। बढ़ते मानव-वन्यजीव संघर्ष को लेकर बातें तो होती रहीं है, लेकिन अब बातों से आगे बढ़ने का समय आ गया है। अगर हम चाहते हैं कि हमारी अगली पीढ़ी के लिए वन्य जीव सिर्फ किताबों में पढ़ने की चीज न रह जाएं तो वनों में बढ़ते मानव दखल पर सख्ती से लगाम लगानी होगी।
विकास और जंगल के बीच बेहतर समन्वय को विकास रणनीति का केंद्रबिंदु बनाना होगा। प्रकृति के साथ किए जा चुके खिलवाड़ को जड़ से सुधारना हमारे वश में नहीं है, लेकिन अपनी गलती को दोहराते जाने से बचना, प्रकृति के साथ अपने रिश्ते को याद रखना हमारे वश में है। पशु एक दूसरे के प्रति क्रूर हो सकते हैं, लेकिन इतने नहीं कि किसी अन्य पशु की जाति ही नष्ट कर दें। हमें तो सोच-समझ का उपहार मिला हुआ है, फिर ठीक यही गलती हम कैसे करते जा रहे हैं?
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वन्यजीव हैं तो हम सभी हैं
Sun, 05 Oct 2014
जंगल, जानवर, जमीन और जल इन चार 'ज' के बिना जीवन की कल्पना भी संभव नहीं। इन सबमें से आजकल बड़ा खतरा बेजुबान वन्यजीवों पर है। बात चाहे जंगल के अनियंत्रित दोहन की हो, उसके कारण सूखते जल स्नोतों की हो या सीमित होते वन क्षेत्रों की, उसका सबसे अधिक दुष्प्रभाव उन जानवरों पर पड़ता है, जो अपनी पीड़ा बयां ही नहीं कर पाते। मगर, धरती का सबसे समझदार जीव यानी मनुष्य तो इस बात को समझ सकता है। एक पल के लिए वन्यजीव की चिंता न सही, अपनी खातिर तो कम से कम वन्यजीवों की पीड़ा जरूर समझनी होगी। क्योंकि वन्यप्राणियों के बिना संसार की कल्पना भी नहीं की जा सकती। धरती पर जो भी जीव मौजूद हैं, उनकी भूमिका पारिस्थितिक तंत्र में बेहद अहम है और पारिस्थितिकी चक्र में सभी प्राणी एक श्रृंखला के रूप में बंधे हैं। श्रृंखला की एक कड़ी में भी दिक्कत पैदा होगी तो उसका असर श्रृंखला की सभी कड़ियों पर समान रूप से पड़ेगा।
ठीक है देश को विकास चाहिए और विकास की हर गाथा कुछ न कुछ कीमत जरूर मांगती है। लेकिन, उस कीमत को टिकाऊ बनाना भी मनुष्य का ही काम है। देश में करीब 30 फीसद सड़कें वन क्षेत्रों में बन रही हैं। इनमें राष्ट्रीय पार्क हैं, वाइल्डलाइफ सेंचुरी हैं और विस्तृत रूप में अन्य आरक्षित वन भी शामिल हैं। गौर करने वाली बात यह कि अधिकतर विकास कार्य वन्यप्राणियों की सुविधा को देखते हुए नहीं किए जा रहे। यदि कहीं पर सुरंग बन रही तो निर्माण संस्था को यह पता होना चाहिए कि कितनी लंबी व ऊंची सुरंग बनाकर वन्यजीवों की स्वच्छंदता को खलल से बचाया जा सकता है। बेशक सिविल इंजीनियर को यह बात मालूम नहीं होगी।
मगर, इसके लिए वन्यजीवों पर काम कर रहे संस्थानों की मदद ली जा सकती है। उनकी रिसर्च, सहयोग व जुटाए गए आंकड़ों का इस्तेमाल कर विकास को विनाशरहित बनाया जा सकता है। सबसे पहले तो हमारी सरकार व विशेषज्ञों को यह समझना होगा कि चारों 'ज' का आपस में संबंध किस तरह जुड़ा है। आज बाघ, गुलदार, हाथी या अन्य किसी जानवर के ट्रेन या वाहनों की चपेट में आ जाने पर होहल्ला तो होता है, मगर हादसे के पीछे की असल वजह को जानने व उसके समाधान के प्रयास कम ही हो पाते हैं। यह भी कम चिंताजनक नहीं कि हमारी सरकारी संस्थाओं का आपस में समन्वय ना के बराबर है। कोई विभाग पानी पर काम कर रहा है, कोई जंगल पर, कोई प्रदूषण नियंत्रण पर। सभी का मकसद जीवन की सुरक्षा व उसे उन्नत बनाना है। गौर करने वाली बात यह कि जब तमाम प्राकृतिक संसाधनों का आपस में अटूट संबंध है और किसी एक संसाधन पर खतरा पैदा होने का असर दूसरे संसाधन पर भी पड़ता है, तो क्यों संबंधित विभाग आपस में समन्वय बनाकर काम नहीं कर सकते। सरकार को किसी वन क्षेत्रों के आसपास बन रही परियोजना में ऐसे संस्थानों की मदद लेनी चाहिए, जो वन्यजीवों के लिए काम करती हों। कुछ समय पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि देश को विकास चाहिए, लेकिन पर्यावरण की कीमत पर नहीं। उनकी इस बात के पीछे भी यही मकसद है कि विकास ऐसा हो, जो पर्यावरण को नुकसान न पहुंचाए। भारतीय वन्यजीव संस्थान की ही बात करें तो हमारे वैज्ञानिकों ने ऐसे तमाम शोध कार्यो को अंजाम दिया है, जिनकी संस्तुतियों को अमल में लाकर विकास और विनाश के बीच संतुलन बनाया जा सकता है। संस्थान राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण को इस तरह के कुछ आंकड़े देने पर विचार कर रहा है, ताकि सड़क परियोजनाओं में जानवरों के प्राकृतिक वास स्थलों, उनके कॉरीडोर आदि को खतरा न पहुंचे। दूसरी बड़ी बात यह कि सरकारी स्तर पर वन्यजीवों की सुरक्षा के लिए बड़ी-बड़ी योजनाएं बनी हैं और बन रही हैं। लेकिन, योजनाएं तभी सार्थक हो पाएंगी, जब आम आदमी का सहयोग भी सरकार को मिलेगा। हर व्यक्ति को यह समझना होगा कि वन्यजीव भले ही उनसे दूर रहते हैं, लेकिन मानव जीवन के लिए उनका जिंदा और सुरक्षित रहना बेहद जरूरी है। बेशक वन क्षेत्रों की सैर करें, पर उनके विचरण में बाधक न बनें। जहां तक संभव हो वन क्षेत्रों और वन्य जीवों के कॉरीडोर पर कब्जा न करें। लोग जानवरों को प्रकृति के संरक्षक के रूप में स्वीकार करेंगे तो उनकी सुरक्षा की गारंटी पक्की हो जाएगी।
-डॉ वीबी माथुर [निदेशक- भारतीय वन्यजीव संस्थान, देहरादून]
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सीमाएं लांघती मानवता
Sun, 05 Oct 2014
डब्ल्यूडब्ल्यूएफ-इंटरनेशनल के डायरेक्टर जनरल ने ताजा लिविंग प्लेनेट रिपोर्ट की प्रस्तावना में सही लिखा है कि कमजोर दिल वालों के लिए यह रिपोर्ट नहीं है। महज 35 वर्षो में कशेरुकी प्राणियों की वैश्विक आबादी घटकर आधी रह गई है और पूरी दुनिया में वन्यजीवों की संख्या लगातार कम होती जा रही है। जो लोग वन्यजीव या कशेरुकियों के प्रति चिंतित नहीं हैं, वह पूछ सकते हैं तो क्या? इससे क्या फर्क पड़ता है? लेकिन थोड़ी सी गहराई में जाने पर कोई भी समझ सकता है कि पृथ्वी में हो रहे परिवर्तनों के कारण यह नुकसान हुआ है। मानव भी अपनी प्रगति और तकनीकी उन्नति के बावजूद इसके प्रभाव की चुनौती का मुकाबला करने की स्थिति में नहीं है। हम अपने संसाधनों का इस कदर दोहन कर रहे हैं कि इससे सीमित प्राकृतिक संसाधनों पर जबर्दस्त दबाव उत्पन्न हो गया है। क्रोनी कैपटलिज्म, लालच और बढ़ती उपभोक्तावादी संस्कृति के चलते हम धीरे-धीरे खुद ही अपने विनाश की ओर बढ़ रहे हैं। वन्यजीव आबादी का घटना यह बताता है कि धरती पर जीवन धारण क्षमताएं भी खत्म हो रही हैं। क्या भारत को भी इसके लिए चिंतित होने की जरूरत है? हालांकि हमारा संसाधनों का प्रति व्यक्ति उपभोग कम है और देश की बड़ी आबादी गरीब है लेकिन विशाल आबादी के कारण हमारा इकोलॉजिकल फुट प्रिंट चीन और अमेरिका के बाद हमको तीसरा सबसे उपभोगी राष्ट्र बनाता है।
भारत का प्रकृति से बहुत ही सहज नाता रहा है। हमारे प्राचीन ग्रंथों में प्रकृति को शांति और आनंद का प्रतीक बताते हुए ध्यान और चिंतन का स्थल बताया गया है। आदिवासी समूहों में प्रकृतिवादी मान्यताओं के तहत प्रकृति और प्राकृतिक तत्वों की पूजा होती है। यद्यपि यह सही है कि मानव-वन्यजीव संघर्ष बढ़ा है लेकिन यह भी सही है कि 1947 में सरगुजा के महाराजा द्वारा देश के अंतिम चीता को मारने के बाद से कोई बड़ा जीव विलुप्त नहीं हुआ है।
जंगलों के निकट रहने वाली आबादी ने भी अपने पशुओं और फसलों को नष्ट करने वाले जंगली जीवों के प्रति सहिष्णुता का ही परिचय दिया है। लेकिन दूसरी तरफ हम बेहद तेजी से विकसित होने की कोशिशों में लगे हैं। देश का आर्थिक विकास जरूरी है लेकिन हमारा पोषण करने वाले वातावरण की कीमत पर इसको नहीं किया जाना चाहिए। हमारी नदियों में कूड़ा-कचरा भरा है और शहर भी बहुत आरामदेह और मनोनुकूल नहीं हैं। हमारे देश में तीन प्रतिशत से भी कम भू-भाग का उपयोग जैव विविधता संरक्षण के लिए होता है। क्या इस छोटे भू-भाग से अपने हाथों को दूर रखना बहुत जटिल है? तीव्र शहरीकरण, कृषि का विस्तार, बड़े बांध और राजनीति से प्रेरित होकर जंगली भूमि का अतिक्रमण, उद्योगों के लिए जंगलों का कटाव, सड़क और खनन मिलकर वनों और वन्यजीवों पर बहुत बुरा प्रभाव डाल रहे हैं। जंगलों और वन्यजीवों पर हानिकारक प्रभाव डालने वाले प्रत्येक गतिविधि की तुलना में ऐसे कम हानिकारक वैकल्पिक विकल्प उपलब्ध है जिसके माध्यम से थोड़े से अतिरिक्त प्रयास के जरिये पर्यावरण पर होने वाले नुकसान को कम किया जा सकता है। इसके साथ ही हमको यह अंतदर्ृष्टि भी विकसित करनी होगी कि अपनी प्राकृतिक संपदा की लूट से राष्ट्र की तरक्की नहीं हो सकती।
जलवायु परिवर्तन, झुलसाती गर्मियां, सूखे और बाढ़ की शक्ल में चेतावनी के निशान मिलने लगे हैं। प्रकृति के प्रकोप से बचाने के लिए हमारी कोई भी तकनीकी उन्नति पर्याप्त नहीं है। जटिल संरचना के जरिये सभी प्राकृतिक अस्तित्व अंतर्सबंधित और अंतर्निभर हैं। हम अभी तक मुश्किल से ही इस खूबसूरत धरती पर जीवन की तारतम्यता की जटिल संरचना को समझ पाए हैं लेकिन जो व्यवस्था अपने आप ही निरंतर गति से चल रही है उसमें हस्तक्षेप करने की कोशिश करते रहते हैं। प्रकृति भी इस तरह की कुछ हल्की-फुल्की छेड़छाड़ की अनुमति देती है और हमारी कुछ भूलों को माफ करते हुए प्रकृति अपने आप ही उसके उपचार प्रक्रिया में लग जाती है। लेकिन मानवता अपनी सीमाएं लांघ रही है। प्रकृति का इस कदर दोहन कर रही है कि प्रकृति के पास इसके उपचार का समय ही नहीं मिल रहा है।
दुनिया की परेशानी का कारण यह तथ्य नहीं है कि हम विकसित होना चाहते हैं। प्रत्येक राष्ट्र, व्यक्ति विकसित होकर समृद्ध, सुरक्षित और अर्थपूर्ण जीवन चाहता है। हमें अपने आप से सवाल पूछना चाहिए कि क्या हम उस देश में विकसित होना चाहते हैं जहां विकास का आकलन लोगों की समृद्धि, संसाधनों का समान वितरण, घने जंगलों और वन्यजीवों के साथ खुशी और समरसता से किया जाता है, अथवा हम विकास के कुछ अमूर्त आंकड़ों को छूकर विकसित कहलाना चाहते हैं। जिसमें इन जादुई आंकड़ों तक पहुंचने के लिए अपने संसाधनों को नष्ट किया गया है।
-ऋषि कुमार शर्मा [वन्यजीव विशेषज्ञ, डब्ल्यूडब्ल्यूएफ-इंडिया]
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किस्सा
Sun, 05 Oct 2014
धरती के संसाधनों पर सभी का हक बराबर है। केवल जीव ही नहीं पादप भी उसके बराबर के हिस्सेदार हैं। अगर हम उन्हें बराबर की हिस्सेदारी दे सकने में कामयाब रहते तो आज पर्यावरण असंतुलन की नौबत ना आती। पृथ्वी के सबसे समझदार जीव होने के नाते हमें यह जानना चाहिए कि जीवन की उत्पत्तिऔर क्रमिक उद्विकास में हर जीव यहां के संसाधनों का बराबर का हकदार रहा है। यह बात एककोशीय अमीबा से लेकर स्तनपायी और रीढ़वाले होमोसेपियंस तक पर लागू होती है।
हिस्सा
चूंकि जीवों और पादपों के साथ अभिव्यक्ति का संकट है या यूं कहें कि उनकी अभिव्यक्ति हम समझना नहीं चाहते, लिहाजा अपनी मनमानी उनके ऊपर लगातार थोपते चले आ रहे हैं। उनके अधिकारों का अतिक्रमण करते चले आ रहे हैं। इंसानों और जानवरों के टकराव की घटनाएं बढ़ रही हैं। अति शिकार और उनके आवासों पर कब्जा करके हम जीवों की कई प्रजाति समाप्त कर चुके हैं। कई समाप्त होने के कगार पर हैं। आजिज आकर उन्हें इंसानी बस्तियों का रुख करना पड़ रहा है। मानो वे अपना हक मांग रहे हों। लिहाजा टकराव अपरिहार्य हो जा रहा है।
शिक्षा
धरती पर इंसान और वन्यजीव का सहअस्तित्व प्रकृति की चाहत रही है। इन्हें धरती का गहना कहा जाता है। जीवों को खत्म करके हम एक तरह से प्रकृति की इच्छा के विपरीत काम कर रहे हैं। अगर उनका अस्तित्व नहीं रहेगा तो हम भी नहीं रह पाएंगे। विकास की अंधाधुंध धुन से परे प्रकृति और उसके अंगों-उपांगों को सहेजना भी हमारा ही दायित्व है। वन्य जीवों को बचाने और उनका अस्तित्व बरकरार रखने के प्रति लोगों को जागरूक करने के लिए हर साल देश में 2-8 अक्टूबर तक वन्य जीव सप्ताह मनाया जा रहा है। ऐसे में जंगल और जंगली जीवों को बचाना, उनकी विविधता बरकरार रखना, प्रकृति प्रदत्ता उन्हें उनका हक सुनिश्चित कराना आज हम सबके लिए बड़ा मुद्दा है।
जनमत
क्या वन्य जीवों पर संकट के लिए इंसानी अतिक्रमण जिम्मेदार है?
हां 94 फीसद
नहीं 6 फीसद
क्या विकास की कीमत पर वन्य जीवन की चिंता करनी चाहिए?
हां 85 फीसद
नहीं 15 फीसद
आपकी आवाज
विकास की चकाचौंध से हम पर्यावरण पर उसके पड़ने वाले प्रभाव को भूलते जा रहे हैं। जिसका प्रभाव वन्य जीव और मानव जाति पर भी पड़ रहा है। - रजत श्रीवास्तव
वन्य जीवन प्रकृति की अनिवार्य योजना का अभिन्न अंग है। मानव जीवन की सुरक्षा हेतु वन्यजीवन चिंता अपरिहार्य है। - मनीषा श्रीवास्तव
वन्यजीवन की चिंता किए बगैर विकास कहां संभव है, हमारा परिवेश प्रकृतिवाद है, जिसके विकास में ही हमारा विकास है। -लवकुश पांडे
जब हम विकास की बात करते हैं तो तब यह भूल जाते हैं कि मानवीय जीवन के विकास का मूल आधार ही प्रकृति के साथ उसके द्वारा दिया गया वन्य जीवों और वनस्पतियों का उपयोग करते हुए आगे बढ़ना है। -शुभमगुप्ता100@जीमेल.कॉम
हम जिस तरह प्रकृति का दोहन कर रहे हैं तो ऐसा होना लाजमी है। -अश्विनी सिंह
वन्य जीवों पर संकट के लिए इंसान ही प्रमुख रूप से जिम्मेदार है। अपनी महत्वाकांक्षा और आवश्यकताओं के लिए मानव जंगलों को मिटाता जा रहा है। जिसके परिणामस्वरूप वन्य जीवों पर संकट छाने लगा है। -शरद नौगेन1@जीमेल.कॉम