Friday 26 September 2014

इबोला वायरस




इबोला का खतरा

06-08-14

इबोला वायरस के संक्रमण से अब तक आठ सौ से ज्यादा लोग मर चुके हैं। इसका खतरा और डर अब विश्वव्यापी हो चुका है। अफ्रीका के तीन देश- सियरा लियोन, गिनी और लाइबेरिया में इसका व्यापक प्रकोप है, लेकिन इसके कुछ मरीज पश्चिमी देशों में भी हैं। पश्चिमी देशों में अब तक वे ही लोग इसके मरीज हैं, जो इबोला प्रभावित देशों में चल रही विभिन्न स्वास्थ्य सेवाओं में काम कर रहे थे। लेकिन एक बड़ी चुनौती यह है कि इन मरीजों से स्थानीय लोगों में यह संक्रमण न फैल जाए। यह खतरा अब इन तीन देशों तक ही सीमित नहीं है, पूरी दुनिया के लिए है। भारत समेत कई देशों ने हवाई अड्डों पर प्रभावित देशों से आने वाले यात्रियों के लिए इबोला की जांच अनिवार्य कर दी है। कई एयरलाइंस ने प्रभावित देशों में अपनी उड़ानें स्थगित कर दी हैं। इबोला का इतना डर इसलिए है कि इससे होने वाली बीमारी का इलाज अभी तक तकरीबन असंभव है और इससे प्रभावित व्यक्ति के मरने की आशंका 50 से 90 प्रतिशत है। इसके अलावा अफ्रीकी देशों में इलाज की सुविधाएं जितनी और जैसी हैं, उसमें मरीज के बचने की संभावना बहुत कम हो जाती है। गनीमत यह है कि इबोला वायरस बहुत तेजी से और आसानी से फैलने वाला वायरस नहीं है, इसलिए इस पर नियंत्रण करना अपेक्षाकृत आसान है। इबोला वायरस पानी या हवा के जरिये नहीं फैलता और इसके फैलने का एकमात्र जरिया किसी संक्रमित जीव या व्यक्ति से सीधा संपर्क है। इबोला वायरस चमगादड़ों और सूअरों के जरिये फैल सकता है और जब कोई इंसान इसका शिकार हो जाता है, तो फिर उससे सीधे संपर्क में आने वाला दूसरे इंसान को यह जकड़ सकता है। ऐसे में, इसे रोकने का सबसे प्रभावी तरीका यह है कि मरीज को दूसरे लोगों के संपर्क से बचाया जाए और स्वास्थ्यकर्मी भी इस बात का खयाल रखें कि उनकी त्वचा सीधे मरीज के संपर्क में न आए। लेकिन अफ्रीका में मरीजों के संपर्क में आने से दूसरों को बचाना बहुत मुश्किल हो रहा है। चूंकि मरीज के परिजन यह जानते हैं कि मरीज का बचना तकरीबन नामुमकिन है, इसलिए वे भावनात्मक वजहों से उसे अस्पतालों में अलग-थलग रखने और उससे मिलने पर पाबंदी का विरोध करते हैं। ऐसी कई घटनाएं हुई हैं, जिनमें मरीजों के परिजनों ने अस्पतालों पर धावा बोल दिया और मरीजों को घर ले गए। कई जगह तो स्थिति इतनी गंभीर हो गई कि सियरा लियोन में सरकार को सेना बुलानी पड़ी, ताकि मरीजों को अलग रखा जा सके और परिजनों को अस्पतालों पर धावा बोलने से रोका जा सके। यह एक विचित्र स्थिति है कि एक वायरस जो बहुत तेजी से नहीं फैलता, वह लोगों की भावुकता और आधुनिक परिवहन के तेज साधनों की वजह से अंतरराष्ट्रीय खतरा बन गया है। इनमें से पहला कारण तो अत्यंत आदिम है और दूसरा कारण अत्यंत आधुनिक। प्रथम विश्व युद्ध के अंतिम दौर में फैला स्पैनिश फ्लू ज्ञात इतिहास में सबसे ज्यादा लोगों को मारने वाली बीमारी है। यह बीमारी लगभग पूरी दुनिया में फैल गई थी और कई करोड़ लोग इससे मर गए थे। यह बीमारी विश्व युद्ध में सैनिकों की आवाजाही की वजह से दुनिया भर में फैली थी और इससे अंतरराष्ट्रीय संपर्क बढ़ने के साथ महामारियों के भी व्यापक रूप से फैलने के खतरे की ओर ध्यान गया था। आज के दौर में अंतरराष्ट्रीय आवागमन व संपर्क और ज्यादा बढ़ गया है, लेकिन सौभाग्य से बीमारियों के बारे में जानकारी और इलाज के साधनों में भी बढ़ोतरी हुई है, इसलिए उम्मीद यही है कि इबोला  के फैलते संक्रमण पर जल्दी काबू पा लिया जाएगा।
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इबोला का कहर

जनसत्ता 11 अगस्त, 2014 : पिछले कुछ सालों से दुनिया के किसी न किसी हिस्से में किसी खतरनाक बीमारी का संक्रमण फैल जाता है और उसके सामने विकसित देशों का चिकित्सा तंत्र भी लाचार नजर आता है। स्वाइन फ्लू के खौफ से कई देशों के लोग दो-चार हो चुके हैं। अब तक उस बीमारी का कोई सटीक और सहज उपलब्ध इलाज सामने नहीं आ सका है। अब पश्चिमी अफ्रीका के कुछ देशों खासकर गिनी के दूरदराज वाले इलाके जेरेकोर से शुरू हुए इबोला वायरस के संक्रमण ने दुनिया भर में लोगों के माथे पर चिंता की लकीरें खींच दी हैं। यह चिकित्सा सेवा के सामने एक बड़ी चुनौती है। इसकी गंभीरता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि इबोला के वायरस से उपजे खतरे के मद्देनजर बीते शुक्रवार को विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इसे महामारी बताते हुए वैश्विक स्वास्थ्य-आपातकाल की घोषणा कर दी। गौरतलब है कि इस बीमारी की चपेट में आए सत्रह सौ से ज्यादा लोगों में से अब तक लगभग एक हजार की मौत हो चुकी है। इसका सबसे ज्यादा प्रकोप पश्चिमी अफ्रीका में सामने आया है, जिससे गिनी, सिएरा लियोन, लाइबेरिया और कुछ हद तक नाइजीरिया में रहने वाले लोगों के सामने गंभीर खतरा है। लेकिन इस बीमारी की प्रकृति को देखते हुए दुनिया में इसके कहीं भी फैलने और कहर बरपाने के अंदेशे से इनकार नहीं किया जा सकता। हालांकि भारत में अभी इस बीमारी का कोई मामला सामने नहीं आया है, लेकिन इसके मद्देनजर एहतियाती कदम उठाए गए हैं। किसी दूसरे देश से शुरू होकर स्वाइन फ्लू जैसी बीमारी ने अपने यहां भी कैसा आतंक मचा दिया था, लोग भूले नहीं हैं। बंदर, चमगादड़ और सूअर के खून या शरीर के तरल पदार्थ से फैलने वाले इबोला वायरस की जद में अगर कोई इंसान आ जाता है तो यह दूसरे लोगों में फैलने की भी वजह बन जाता है। अभी तक चूंकि इस बीमारी का कोई इलाज नहीं ढूंढ़ा जा सका है, इसलिए बुखार आने से शुरू होकर यह बीमारी सिर और मांसपेशियों में दर्द के अलावा यकृत और गुर्दे तक को बुरी तरह अपनी चपेट में ले लेती है और फिर भीतरी और बाहरी रक्तस्राव के बाद मरीज के बचने की गुंजाइश बेहद कम हो जाती है। हालत यह है कि इससे संक्रमित व्यक्ति की मौत के बाद अगर उसके शरीर को ठीक तरह से नष्ट नहीं किया गया तब भी उस वायरस के फैलने की आशंका बनी रहती है। इस तरह के खतरनाक रोगों की रोकथाम या इनसे लड़ने के मोर्चे पर कमजोरी के चलते ही इनके जीवाणु या विषाणु अपने अनुकूल आबोहवा पाकर पहले जानवरों और फिर लोगों में संक्रमित होते हैं और बेलगाम हो जाते हैं। इबोला के विषाणु सबसे पहले 1976 में सूडान और कांगो में पाए गए थे और उसके बाद उप-सहारा के उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में भी फैले थे। तब से पिछले साल तक अमूमन हर साल कम से कम एक हजार लोग इसकी जद में आते रहे हैं। लेकिन हैरानी है कि दुनिया के विकसित देशों में चिकित्सा के क्षेत्र में लगभग हर समय चलते रहने वाले प्रयोगों में इस बीमारी का कोई कारगर इलाज खोजने के तकाजे को पिछले चार दशक के दौरान कभी गंभीरता से नहीं लिया गया।
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इबोला का कहर

जनसत्ता 14 अक्तूबर, 2014: करीब तीन महीने पहले इबोला के विषाणुओं के जानलेवा संक्रमण और गंभीर खतरे को देखते हुए विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इसे महामारी बताते हुए वैश्विक स्वास्थ्य-आपातकाल की घोषणा की थी। लेकिन रोकथाम की तमाम कोशिशों के बावजूद इस साल अब तक इबोला की चपेट में आकर दुनिया के अलग-अलग देशों में जान गंवाने वाले लोगों की तादाद चार हजार से ऊपर पहुंच चुकी है। भारत के लिए फिलहाल यह राहत की बात है कि यहां अभी तक इबोला का कोई मामला सामने नहीं आया है। पर सावधानी बरतने की जरूरत हमारे लिए भी है। हमारे देश में चिकित्सा तंत्र की दो हालत है उसमें मामूली-सी चूक या लापरवाही भी महंगी पड़ सकती है। इसलिए दूसरे देशों से भारत में प्रवेश के तमाम रास्तों पर गहन जांच की व्यवस्था कर कम से कम बचाव के इंतजाम जरूर किए जाने चाहिए। दुनिया के सबसे विकसित देशों का चिकित्सा तंत्र भी इस रोग के सामने लाचार नजर आ रहा है और अब भी यह बीमारी लाइलाज है। इबोला के विषाणु सबसे पहले 1976 में सूडान और कांगो में पाए गए थे और उसके बाद उप-सहारा के उष्णकटिबंधीय इलाकों में भी फैल गए थे। तब से कोई भी साल ऐसा नहीं गुजरा जब इसका असर देखने में न आया हो। तब से लगभग हर साल कम से कम एक हजार लोग इसकी जद में आते रहे हैं। जब भी इबोला का कहर चर्चा में आ जाता है, सारे विकसित देश अपने यहां इससे निपटने के तमाम इंतजाम करते हैं, हवाई अड्डों समेत सभी प्रवेश-स्थलों पर लोगों की गहन स्वास्थ्य-जांच की जाती है। लेकिन एक खास समय तक कहर बरपाने के बाद इस बीमारी का जोर कम हो जाता है और इसके बाद फिर सब कुछ पहले की तरह आश्वस्ति-भाव से चलने लगता है। शायद यही बेफिक्री इबोला के बेलगाम हो जाने की एक बड़ी वजह है।
गौरतलब है कि बंदर, चमगादड़ और सूअर के खून या शरीर के तरल पदार्थ से फैलने वाले इबोला वायरस की चपेट में अगर कोई इंसान आ जाता है तो उसके बाद इस पर काबू पाना बहुत मुश्किल हो जाता है। अगर प्रभावित व्यक्ति को पूरी तरह से अलग-थलग न रखा जाए और उसकी देखरेख में लगे लोग उच्चस्तर के सुरक्षा इंतजामों से लैस न हों तो यह तुरंत आसपास के दूसरे लोगों में फैल सकता है। इसका खतरा ज्यादा घातक इसलिए है कि अभी तक इस बीमारी का कोई इलाज या टीका नहीं खोजा जा सका है। इसकी जद में आए व्यक्ति को पहले बुखार आता है, फिर यह सिर और मांसपेशियों के दर्द के अलावा यकृत और गुर्दे तक को बुरी तरह अपनी चपेट में ले लेता है। इसमें पहले भीतरी, फिर बाहरी रक्तस्राव के बाद मरीज के बचने की गुंजाइश लगभग खत्म हो जाती है। यही नहीं, इस रोग से प्रभावित व्यक्ति की अगर मौत हो जाती है और उसके शरीर को सुरक्षित तरीके से पूरी तरह नष्ट नहीं किया गया तो आसपास इसके वायरस की जद में दूसरे लोग भी आ सकते हैं। इस बार अफ्रीकी देश गिनी के दूरदराज वाले इलाके जेरेकोर से शुरू हुआ इबोला वायरस का संक्रमण सिएरा लियोन, लाइबेरिया और कुछ हद तक नाइजीरिया जैसे देशों तक सिमटा हुआ है। लेकिन अगर सौ फीसद सावधानी नहीं बरती गई तो कहीं भी एक बड़ा संकट खड़ा हो सकता है।
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इबोला के मुकाबले क्यूबाई

नवभारत टाइम्स| Oct 20, 2014

लाइलाज इबोला वायरस से जूझती दुनिया के लिए यह सूचना निराश करने वाली है कि इसका टीका बीतते 2016 से पहले, यानी अगले दो साल तक तैयार नहीं हो पाएगा। यह सूचना टीके पर काम कर रही ब्रिटिश प्रयोगशाला की तरफ से आई है, और इसका अर्थ यही है कि बीमारी के मौजूदा हमले से निपटने में इस तरफ से कोई मदद नहीं मिलने वाली। 1976 में पहली बार संज्ञान में आने के बाद से ही इबोला दुनिया के लिए चुनौती बना हुआ है, लेकिन समर्थ देशों ने इसको कभी गंभीरता से नहीं लिया। वे यह मानकर चलते रहे कि वायरस से फैलने वाली बाकी बीमारियों की तरह इबोला भी मंद पड़ते-पड़ते अपने आप खत्म हो जाएगा। लेकिन यहां इस बात पर जोर देना जरूरी है कि प्लेग जैसी महामारियां दुनिया में हर सौ-दो सौ साल पर उभरती थीं और मर-मर कर दोबारा जिंदा हो जाती थीं। उनकी जड़ पिछली सदी में ही टूटी और इसे तोड़ने में मुख्य भूमिका विज्ञान की रही। इबोला के साथ ऐसा नहीं हुआ तो इसकी इंसानी वजह यह थी कि पश्चिमी अफ्रीका के पिछड़े गरीब देशों के साथ विकसित देशों का कोई बड़ा हित नहीं जुड़ा था। एक खासियत इस बीमारी की यह भी है कि प्रकृति और मनुष्य जितनी तेजी से इसका प्रतिरोध तैयार करते हैं, उससे ज्यादा तेजी से यह अपने बचाव का मैकेनिजम डिवेलप कर लेती है। अभी हालत यह है कि 9000 से ज्यादा लोग इसकी चपेट में आ चुके हैं, जिनमें 4555 लोग पिछले हफ्ते तक मौत के ग्रास बन चुके थे। जिन अफ्रीकी देशों में लोग इससे पीड़ित हैं, बाकी सारे देश उनके साथ हवाई संपर्क तक से कतराने लगे हैं। जो बाहरी लोग इन इलाकों में फंसे हैं, वे जल्द से जल्द वहां से निकल भागना चाहते हैं, जबकि बाहरी दुनिया में उन्हें संदिग्ध माना जा रहा है। सभी को डर है कि कहीं इन लोगों के जरिए इबोला वायरस हमारे यहां भी न आ जाए। ऐसे माहौल में पूरी दुनिया को रास्ता दिखाने का काम किया है एक करोड़ की आबादी वाले छोटे से मुल्क क्यूबा ने, जहां से 165 स्वास्थ्यकर्मियों की टीम इबोला प्रभावित इलाकों में पहुंच चुकी है और जल्द ही 300 क्यूबाई इसमें और जुड़ने वाले हैं। वसुधैव कुटुंबकम जिसको कहना है, कहता रहे। मानवता की सच्ची उम्मीद तो विश्व बंधुत्व की मिसाल पेश करने वाले ये साहसी क्यूबाई ही हैं।


जल संरक्षण




अब जरूरी है तालाब विकास प्राधिकरण

03-08-14

अब देश के 32 फीसदी हिस्से को पानी की किल्लत के लिए गरमी के मौसम का इंतजार नहीं करना पड़ता है- बारहों महीने, तीसों दिन वहां जेठ ही रहता है। जिन इलाकों की जनता जुलाई-अगस्त में अतिवृष्टि के लिए हाय-हाय करती दिखती है, सितंबर आते-आते उनके नल सूख जाते हैं। बारिश से सड़क व नदियां उफनती हैं और पानी देखते ही देखते गायब! इस पानी को सहेजने के लिए पारंपरिक स्रोत ताल-तलैयों को सड़क, बाजार, कॉलोनी  जैसे कंक्रीट के जंगल खा गए। आज पानी के लिए हाय-हाय कर रहे इलाके कभी स्थानीय स्रोतों की मदद से ही खेत और गले, दोनों के लिए इफरात में पानी जुटाते थे। एक दौर आया कि अंधाधुंध नलकूप लगाए जाने लगे, जब तक संभलते, तब तक भूगर्भ का कोटा साफ हो चुका था। अब बीती बात बन चुके जल-स्रोतों की ओर जाने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है- तालाब, कुएं, बावड़ी। लेकिन पीढ़ियों का अंतर सामने खड़ा है, पारंपरिक तालाबों की देखभाल करने वाले लोग किसी और काम में लग गए और अब तालाब सहेजने की तकनीक नदारद हो चुकी है। कहीं तालाबों को जान-बूझकर गैर-जरूरी मानकर समेटा जा रहा है, तो कहीं उसके संसाधनों पर किसी एक ताकतवर का कब्जा है। कालाहांडी हो या फिर बुंदेलखंड या फिर तेलंगाना; देश के जल-संकट वाले सभी इलाकों में एक सदी पहले तक कई-कई सौ बेहतरीन तालाब होते थे। यहां के तालाब लोगों की प्यास ही नहीं बुझाते थे, बल्कि यहां की अर्थव्यवस्था का मूल आधार भी होते थे। मछली, कमल गट्टा , सिंघाड़ा , चिकनी मिट्टी, यहां के हजारों-हजार घरों के लिए खाना उगाहते रहे हैं। तालाबों का पानी यहां के कुओं का जल स्तर बनाए रखने में सहायक होते थे। एक आंकड़े के अनुसार, मुल्क में आजादी के समय लगभग 24 लाख तालाब थे। देश भर में फैले तालाबों, बावड़ियों और पोखरों की 2000-2001 में गिनती की गई थी। देश में इस तरह के जलाशयों की संख्या साढे पांच लाख के करीब है, इसमें से करीब 4 लाख, 70 हजार जलाशय किसी न किसी रूप में इस्तेमाल हो रहे हैं, जबकि करीब 15 प्रतिशत बेकार पड़े हैं। यानी आजादी के बाद के 53 वर्षों में समाज कोई 20 लाख तालाब चट कर गया। तालाबों पर कब्जा इसलिए आसान है कि पूरे देश के तालाब अलग-अलग महकमों के पास हैं- राजस्व विभाग, वन विभाग, पंचायत, मछली पालन, सिंचाई, स्थानीय निकाय, पर्यटन..शायद और भी  हों। अभी तालाबों के कुछ मामले राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण के पास हैं। आज जिस तरह जल संकट गहराता जा रहा है, जरूरी है कि केंद्र में एक सशक्त तालाब प्राधिकरण गठित हो, जो तालाबों का मालिकाना हक राज्य के जरिये अपने पास रखे, यानी उनका राष्ट्रीयकरण हो, फिर तालाबों के संरक्षण, मरम्मत की व्यापक योजना बनाई जाए।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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खतरे की घंटी

जनसत्ता 8 अक्तूबर, 2014: भूजल का स्तर देश के तमाम हिस्सों में जिस तरह नीचे खिसकता जा रहा है, वह एक बड़े जल संकट का रूप ले सकता है। विडंबना यह है कि न सरकारें इस मामले में संजीदा दिखती हैं न समाज। पंजाब के कई इलाके डार्क जोन की श्रेणी में आ चुके हैं, यानी वहां अब जमीन के नीचे से पानी निकालना संभव नहीं रह गया है।
राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र की हालत भी कम चिंताजनक नहीं है। यहां विकास की चकाचौंध के बीच एक बड़े खतरे की घंटी भी बज रही है।केंद्रीय भूजल बोर्ड और राज्यों के भूजल विभागों के सहयोग से हुआ अध्ययन बताता है कि दिल्ली में हर साल सिंचाई के लिए चौदह करोड़ घन मीटर और घरेलू तथा औद्योगिक उपयोग के लिए पचीस करोड़ घन मीटर भूजल का दोहन होता है। इस तरह भविष्य के लिए यहां सिर्फ दस लाख घन मीटर पानी बचता है। गुड़गांव सहित हरियाणा के तमाम जिलों में आने वाले दिनों के लिए इस्तेमाल योग्य भूजल का स्तर ऋणात्मक स्थिति में पहुंच चुका है। नोएडा और गाजियाबाद में भी स्थिति इससे थोड़ी ही बेहतर है। पर वहां भी भूजल का स्तर ऋणात्मक है। अध्ययन में यह भी उजागर हुआ है कि भवन निर्माता कंपनियां भूजल के अंधाधुंध दोहन में सबसे आगे हैं। इन पर नजर रखने का कोई कारगर तंत्र नहीं है।
दिल्ली और इसके आसपास के शहरों में लोग इसलिए भूजल पर आश्रित हैं कि जल बोर्ड जरूरत भर पानी की आपूर्ति नहीं कर पा रहे हैं। दिल्ली की ज्यादातर हाउसिंग सोसाइटियां भूजल पर निर्भर हैं। फिर भूजल का स्तर जैसे-जैसे नीचे जा रहा है, पानी में हानिकारक तत्त्वों का मिश्रण बढ़ता जा रहा है। ऐसे में उस पानी को इस्तेमाल लायक बनाने के लिए लोग बड़े पैमाने पर शोधन संयंत्र लगाने लगे हैं। इसमें बहुत सारा पानी बर्बाद चला जाता है। इसी तरह बोतलबंद पानी का कारोबार करने वाली इकाइयां गैर-कानूनी तरीके से भूजल का दोहन कर रही हैं। पिछले दिनों राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण ने उन पर नकेल कसने की मुहिम शुरू की, मगर प्रशासन की संजीदगी के अभाव में इसके सकारात्मक नतीजे शायद ही आ पाएं। समझना मुश्किल है कि जब दिल्ली और आसपास के इलाकों में नलकूप लगाने पर कानूनन प्रतिबंध है तो जल बोर्ड, पर्यावरण विभाग, नगर निगम आदि की नजरों से बचकर लोग कैसे नलकूप लगा लेते हैं? भवन निर्माताओं को चाहे जितनी मात्रा में पानी खींचने और बहाने की इजाजत किस आधार पर दे दी जाती है? वर्षा जल संचय को लेकर बने दिशा-निर्देश के बावजूद सरकारी परिसरों, दफ्तरों, रिहाइशी कॉलोनियों वगैरह में इसके उपाय अभी तक नहीं हो पाए हैं?
जब पानी, बिजली आदि की बर्बादी को लेकर कोई अध्ययन आता है तो सरकारें तात्कालिक प्रभाव में कोई नया कानून या नियम-कायदा बना कर और कड़े दंड-जुर्माने के प्रावधान कर अपनी जिम्मेदारी पूरी मान लेती हैं। वे यह देखना जरूरी नहीं समझतीं कि उन पर कहां तक अमल हो रहा है। पानी सबकी बुनियादी जरूरत है, इंसान के साथ ही पशु-पक्षियों और पेड़-पौधों की भी। विकास को लेकर अलग-अलग अवधारणाएं हो सकती हैं, पर पानी का सवाल हमारे वजूद से ताल्लुक रखता है। तेल या गैस का विकल्प हो सकता है, पर पानी का नहीं। इसलिए पानी को सहेजने और उसके विवेकपूर्ण इस्तेमाल की आदतें, नीतियां और नियम-कायदे अपनाना कोई वैचारिक आग्रह नहीं, बल्कि हमारे अस्तित्व से जुड़ा तकाजा है।


पर्यावरण संरक्षण




वनों के लिए

Saturday,Jul 26,2014

जब बरसात आती है तो वन महोत्सव भी होता है..जब वन महोत्सव होता है तो पौधे रोपे जाते हैं। विभाग और समाज का स्पर्श पाने वाले कुछ सौभाग्यशाली पौधे कालांतर में पेड़ बनने की ओर अग्रसर होते हैं। जो पेड़ बन जाते हैं वे छाया देते हैं, जमीन पर पकड़ मजबूत करते हैं, हवा देते हैं और हरित आवरण को बढ़ाने में सहायक होते हैं। कुछ अभागे पौधे पेड़ बनना तो दूर की बात, पौधे भी नहीं रह पाते हैं। वन महोत्सव से जुड़ी यह पटकथा हर वर्ष लिखी जाती आई है। कथानक वही रहता है, पात्र भी वही रहते हैं और परिवेश गुजरा हुआ तो लगता है लेकिन अब भी बीत रहा प्रतीत होता है। जितने वन महोत्सव प्रदेश में मनाए गए हैं, जितने औषधीय पौधों की बात हर मंच और हर स्कूल से गूंजी है, वे वास्तव में पेड़ न भी सही, बड़े पौधों के रूप में भी परिवर्तित हो गए होते तो आज हरित आवरण अपनी बानगी आप होता। इस मंजर के बीच मुख्यमंत्री ने सोलन के क्वारग में अगर यह कहा है कि सरकार हर पौधे का हिसाब लेगी तो यह छोटी बात नहीं है। ऐसा लगता है कि मुख्यमंत्री और सरकार भी इस बात से अवगत हैं कि पौधरोपण के बाद क्या होता है। मुख्यमंत्री की इस घोषणा का स्वागत किया जाना चाहिए और केवल विभागीय अधिकारी ही नहीं, कर्मचारियों और सामाजिक संगठनों, गैर सरकारी संस्थाओं को भी इससे सबक लेना चाहिए कि पौधा रोपने का मकसद केवल एक रस्म की अदायगी भर नहीं है। ये सरोकार सीधे पर्यावरण संरक्षण से जुड़ कर सुरक्षित वातावरण का निर्माण करने से संबद्ध हैं। जिस प्रकार वैश्रि्वक ताप बढ़ने की बात सामने आ रही है, जिस प्रकार नदियां अपनी राह भूल रही हैं, जिस प्रकार जंगल के साथ अमंगल हो रहा है, जिस प्रकार मौसम चक्र कई बार दुष्चक्र में फंसा प्रतीत होता है, उससे लगता है कि एक-एक पौधा कितना जरूरी है। वास्तव में ऐसे संदर्भो में उन अनाम बुजुर्गो को भी याद किया जाना चाहिए जिन्होंने हिमाचल प्रदेश के राजमार्गो के किनारे पौधे रोपे और वे पेड़ बन कर खड़े हैं। कांगड़ा जिले में तो देसी आम के पौधे न केवल छाया देते हैं बल्कि रुत आने पर पंथी को फलाहार का अवसर भी देते हैं। जिन्होंने ये पौधे रोपे थे वे शायद ही इनका लाभ ले पाए होंगे लेकिन यह अगली पीढ़ी को देन थी। यही यह पीढ़ी भी सोचे।
[स्थानीय संपादकीय: हिमाचल प्रदेश]

विकास और पर्यावरण




विकास और पर्यावरण

:Wednesday,Jul 30,2014 05:12:08 AM

इस बात को लेकर एक तरह से वैश्विक स्वीकृति अथवा सहमति है कि भारत को एक बार फिर से उच्च आर्थिक विकास की पटरी पर लौटना चाहिए। हालांकि पिछले दशक के दौरान भारत का सकल घरेलू उत्पाद अथवा जीडीपी अप्रत्याशित रूप से तकरीबन 7.7 फीसद वार्षिक औसत की दर से बढ़ा, जो कि दुनिया के किसी भी लोकतांत्रिक देश में सर्वाधिक विकास दर है, लेकिन यह भी सच है कि पिछले दो वर्ष समूची दुनिया के लिए निराशाजनक रहे। उच्च आर्थिक विकास दर के लिए जरूरी है कि निवेश की दर भी उच्च हो। ऐसा इसलिए, क्योंकि यह सरकार के लिए विशाल राजस्व को जुटाने का काम करती हैं, जिसे सामाजिक कल्याण और बुनियादी ढांचे की विकास योजनाओं में उपयोग अथवा खर्च किया जा सकता है।
यह कहने की आवश्यकता नहीं कि अकेले तेज आर्थिक विकास ही पर्याप्त नहीं है। विकास की यह गति स्वाभाविक तौर पर होनी चाहिए, जिससे उत्पादक रोजगार अवसरों का सृजन होता है और इनमें बढ़ोतरी होती है। विकास का समावेशी होना भी आवश्यक है। यह जितना अधिक समावेशी होगा, प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तौर पर समाज के उतने ही अधिक वगरें अथवा हिस्सों को अधिकाधिक लाभ होगा। तेज और समावेशी विकास के अतिरिक्त आर्थिक विकास का एक और पहलू भी है और यह पक्ष पर्यावरण का है। इस पहलू पर भी समान रूप से ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है। आज विकास करो और बाद में इसकी कीमत चुकाओ वाला मॉडल भारत के लिए सही नहीं है, हालांकि इसे दूसरे अन्य तमाम देशों द्वारा अपनाया गया है, जिनमें चीन और ब्राजील जैसे देश भी शामिल हैं। इसके लिए हमें कम से कम चार बातों पर बल देना होगा। पहली बात यह कि अपनी 124 करोड़ की वर्तमान आबादी के साथ इस शताब्दी के मध्य तक कोई भी अन्य देश 40-50 करोड़ आबादी और नहीं जोड़ने जा रहा, लेकिन भारत में ऐसा होना तय है। अपनी 150 करोड़ की आबादी के साथ चीन में इसी समयावधि में महज 2.5 करोड़ की आबादी बढ़ेगी। आज की अधीरता अथवा जल्दबाजी और लालच के लिए हम आने वाली पीढि़यों के भविष्य से समझौता नहीं कर सकते। दूसरी बात यह है कि दुनिया में दूसरा कोई भी देश नहीं है जहां जलवायु परिवर्तन की अधिक विषमताएं हों। मौजूदा समय और भविष्य में भी भारत में ऐसा ही रहेगा। ऐसा मानसून पर हमारी निर्भरता के कारण है। एक बड़ी आबादी तटवर्ती इलाकों में निवास करती है, जिनके लिए प्रतिकूलता का मतलब समुद्री जलस्तर में वृद्धि है। यह जलापूर्ति की सुरक्षा के लिए हिमालयी ग्लेशियर पर निर्भर हैं और इन इलाकों में ही कोयला और लौह अयस्क जैसे प्राकृतिक संसाधनों का सर्वाधिक खनन होता है। इसका मतलब है कि जितना अधिक खनन होगा उतना अधिक वनों का कटाव होगा और उसी अनुपात में ग्लोबल वार्मिंग में इजाफा होगा।
इस क्त्रम में जिस तीसरी बात पर गौर किया जाना जरूरी है वह पर्यावरण में परिवर्तन के कारण स्वास्थ्य संबंधी चिंताओं से जुड़ी है। अप्रत्याशित औद्योगिक और वाहन प्रदूषण, रासायनिक कचरे का बढ़ता ढेर और नदियों में नगरपालिकाओं के गंदे पानी आदि के कारण स्वास्थ्य संबंधी संकट को प्रत्यक्ष तौर पर देखा जा सकता है। लोग अन्य तमाम तरीकों से संकटों का सामना कर रहे हैं, ऐसे में पर्यावरण में क्षरण बीमारियों का बड़ा कारण बनकर उभरा है। चौथे, जिसे भारत में पर्यावरणवाद कहा जाता है वह अधिकांशत: मध्यवर्गीय जीवनशैली से संबंधित पर्यावरणवाद नहीं है, बल्कि यह वास्तव में आजीविका पर्यावरणवाद है, जो दिन-प्रतिदिन की जमीन उत्पादकता के मुद्दों, जल उपलब्धता, लकड़ी के अतिरिक्त अन्य वन उत्पादों, जल निकायों का संरक्षण, चरागाहों के संरक्षण तथा पवित्र स्थानों के रखरखाव आदि से जुड़ा है। यही कारण है यहां पर्यावरणीय चिंता महज विदेशी षड्यंत्र नहीं है। हम अपना नुकसान खुद ही कर रहे हैं। यह महज हमारी ऊर्जा आपूर्ति में नवीकरणीय स्नोतों को बढ़ाने तक का मसला नहीं है। उद्योग, कृषि, ऊर्जा, परिवहन, निर्माण और अर्थव्यवस्था के दूसरे अन्य क्षेत्रों में निवेश और तकनीक का चयन कहीं अधिक महत्वपूर्ण है।
अप्रैल 2014 में योजना आयोग के विशेषज्ञों ने समावेशी विकास में अल्प कार्बन रणनीति पर अपनी अंतिम रिपोर्ट जमा की। यह रिपोर्ट बेहद अहम है, लेकिन इसकी उपेक्षा हो रही है। रिपोर्ट में क्षेत्रवार विस्तृत विश्लेषण किया गया है कि अल्प कार्बन वाला समावेशी विकास न केवल आवश्यक है, बल्कि यह संभव भी है, हालांकि इसके लिए अतिरिक्त निवेश की आवश्यकता होगी। अपने पूर्ववर्तियों की तरह ही मोदी सरकार ने भी आर्थिक विकास की प्रक्त्रिया के तहत पर्यावरणीय चिंताओं को भी हल किए जाने पर बल दिया। यह प्रशंसनीय है, लेकिन हमें ऐसे समय में जब विकास और पर्यावरण पर ध्यान देने की आवश्यकता है तब कुछ कठिन निर्णय भी लेने होंगे और इसके लिए हमें अपनी कुछ पसंद को ना करना होगा अथवा उन्हें छोड़ना होगा। ऐसा तब होता है जब आप समन्वय अथवा एकीकरण पर अमल करते हैं। इसके लिए हम अपने विरोधाभासों, जटिलताओं और संघर्ष को दरकिनार नहीं कर सकते। इन्हें भी स्वीकार करना होगा और संवेदनशीलता से इन्हें व्यवस्थित करना होगा, जो कि लोकतांत्रिक प्रक्त्रिया का हिस्सा है। वास्तव में यहां मुख्य मुद्दा पर्यावरण बनाम विकास का नहीं है, बल्कि उन नियमों, प्रावधानों और कानूनों को मानने का है, जो आवश्यक हैं। जब लोक सुनवाई का मतलब बिना जनता के सुनवाई और बिना सुनवाई के जनता होता है तो यह कम से कम पर्यावरण बनाम विकास का मुद्दा नहीं होता।
जब कोई रिफाइनरी अपनी क्षमता को 10 लाख टन प्रतिवर्ष से बढ़ाकर 60 लाख टन बढ़ाने के लिए कानून द्वारा निर्धारित पर्यावरणीय अनुमति अथवा क्लीयरेंस लिए बिना ही निर्माण करती है तो यह पर्यावरण बनाम विकास का प्रश्न नहीं है, लेकिन यह अवश्य है कि संसद द्वारा बनाए कानूनों का सम्मान किया जाएगा अथवा नहीं? जब किसी शराब फैक्ट्री, पेपर मिल अथवा चीनी फैक्ट्री को भारत की सर्वाधिक पवित्र गंगा नदी में जहरीला तत्व छोड़ने के लिए बंदी नोटिस जारी किया जाता है तो यह पर्यावरण बनाम विकास का मुद्दा नहीं है, लेकिन प्रश्न यही होता है कि कानून द्वारा निर्धारित मापदंड का अनुपालन हुआ या नहीं। सभी बातों में हमें कानून को ऊपर रखना होगा। हर लिहाज से नियमों का पालन करते समय हमें बाजार उन्मुख होना होगा। हरसंभव तरीके से हमें निवेश को बढ़ाना होगा, विशेषकर श्रम प्रधान विनिर्माण क्षेत्र में। हम नियमों और कानूनों का मजाक नहीं बना सकते। भारतीय सभ्यता ने जैवविविधता के प्रति सदैव उच्च आदरभाव दिखाया है। इसलिए हरित विकास के क्षेत्र में वैश्रि्वक अगुआ बनना हमारे लिए कठिन नहीं। यह रणनीतिक नेतृत्व का क्षेत्र है, जिसमें भारत दुनिया को नई राह दिखा सकता है। 'विकास किसी भी कीमत पर' वाले सिद्धांत के समर्थकों और पर्यावरण बचाने की लड़ाई लड़ने वालों को भारत को इस मुकाम तक ले जाने के लिए मिलकर काम करना होगा।
[लेखक जयराम रमेश, पूर्व केंद्रीय मंत्री हैं]

धूम्रपान जनित बीमारी




तंबाकू मुक्त दुनिया की ओर बढ़ने के लिए

सुभाष गाताडे, सामाजिक कार्यकर्ता

दुनिया के दो बड़े लोकतंत्र, मगर एक ही मसले को लेकर उनकी अदालतें इतना विपरीत कैसे सोच सकती हैं? पहला मामला अमेरिका का है। धूम्रपान जनित बीमारियों के चलते गुजरे अपने पति की समस्या लेकर अदालत पहुंची अमेरिकी महिला सिंथिया रॉबिन्सन को पिछले दिनों 23 बिलियन डॉलर का मुआवजा मिला। उनका तर्क था कि तंबाकू का कारोबार करने वाली कंपनी ने इसके खतरों का ठीक से प्रचार नहीं किया था, जिसके चलते उसके पति माइकल जॉन्सन की 1996 में मृत्यु हुई। इससे बिल्कुल विपरीत अनुभव मुंबई के 64 वर्षीय दीपक कुमार का है। वह कस्टम विभाग के रिटायर्ड आयुक्त हैं। धूम्रपान के चलते कैंसर का शिकार हुए दीपक कुमार अपनी आवाज खो चुके हैं और इन दिनों गरदन में डाली गई ट्यूब से सांस लेने और नाक से डाली गई ट्यूब के जरिये खाना खाने के लिए मजबूर हैं। उन्होंने साल 2008 में उपभोक्ता अदालत में इस बात को लेकर अर्जी पेश की कि सिगरेट कंपनियों ने उन्हें पहले से आगाह नहीं किया, जिसके चलते उन्हें कैंसर हुआ। लेकिन कंपनी ने मामले को तकनीकी चीजों में उलझा दिया, जैसे उन्होंने सिगरेट खरीदने की रसीद नहीं जमा की वगैरह और उनका मामला खारिज हो गया। दीपक कुमार का किस्सा अपवाद नहीं है। भारत में 27.5 करोड़ लोग तंबाकू का इस्तेमाल किसी न किसी रूप में करते हैं और इससे जनित बीमारियों के चलते दस लाख लोग सालाना मरते हैं। अगर हम भारत के 27 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में गुटखा पाबंदी का उदाहरण लें, तो इसे सरकार की प्रगतिशील नीयत का एक कदम माना जा सकता है। मगर बड़ी समस्या यह है कि बात इससे आगे नहीं बढ़ रही। इस साल भी बजट में सिगरेट पर कर बढ़ाकर उसे महंगा किया गया है, लेकिन शायद इतना काफी नहीं है। अब एक सोच यह सामने आ रही है कि अगर सरकार तंबाकू उत्पादों पर लगने वाले टैक्स को तीन सौ फीसदी बढ़ा दे, तो इससे बहुत अच्छे नतीजे हासिल किए जा सकते हैं। न्यू इंग्लैंड जर्नल ऑफ मेडिसिन में छपे भारतीय मूल के प्रोफेसर प्रभात झा और सर रिचर्ड पेटो के शोधपत्र से यही बात सामने आई है। अध्ययन के मुताबिक, अगर वैश्विक स्तर पर तंबाकू उत्पादों पर लगने वाले टैक्स तिगुने कर दिए जाएं, तो 20 करोड़ लोगों को कैंसर से बचाया जा सकता है। इससे कुछ  देशों में सिगरेट की कीमतें दोगुनी हो जाएंगी और सबसे सस्ती और सबसे महंगी सिगरेट के बीच कीमत का अंतर कम हो जाएगा। शोधकर्ताओं के मुताबिक, इस नीति का सबसे अधिक असर निम्न और मध्यम आय वाले मुल्कों में दिखाई देगा, जहां सस्ती सिगरेटों की काफी खपत है। इस नीति के उनके मुताबिक तीन फायदे हैं- एक, धूम्रपान करने वालों की संख्या में भारी कमी; दो, धूम्रपान से होने वाली मौतों में कमी और तीन, सरकारी आय में वृद्धि, पर क्या सरकार ऐसा कर सकेगी?
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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जलवायु परिवर्तन




हम अकालों की तरफ बढ़ रहे हैं  

  Apr 22, 2014

जलवायु परिवर्तन पर नजर रखने वाले संयुक्त राष्ट्र के अंतर सरकारी पैनल (आईपीसीसी) की पिछले दिनों जारी नई रिपोर्ट ने दुनिया भर में खतरे की घंटी बजा दी है। 'जलवायु परिवर्तन 2014: प्रभाव, अनुकूलन और जोखिम' शीर्षक इस रिपोर्ट के अनुसार यों तो जलवायु परिवर्तन का प्रभाव पहले ही सभी महाद्वीपों और महासागरों में फैल चुका है, लेकिन इसके कारण एशिया को बाढ़, गर्मी, सूखा तथा पेयजल से संबंधित गंभीर समस्याएं झेलनी पड़ सकती हैं। कृषि की प्रधानता वाले भारत जैसे देश के लिए यह काफी खतरनाक हो सकता है। जलवायु परिवर्तन की वजह से दक्षिण एशिया में गेहूं की पैदावार पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। वैश्विक खाद्य उत्पादन धीरे-धीरे घट रहा है। एशिया में तटीय और शहरी इलाकों में बाढ़ के चलते बुनियादी ढांचे, आजीविका और बस्तियों को काफी नुकसान हो सकता है। ऐसे में मुंबई, कोलकाता, ढाका जैसे शहरों पर खतरे की आशंका बढ़ सकती है। लोग ज्यादा, खाना कम क्लाइमेट चेंज दुनिया में खाद्यान्नों की पैदावार और आर्थिक समृद्धि को जिस तरह प्रभावित कर रहा है, उससे आने वाले समय में जरूरी चीजें इतनी महंगी हो जाएंगी कि विभिन्न देशों के बीच युद्ध जैसे हालात पैदा हो सकते हैं। यह खतरा उन देशों में ज्यादा होगा जहां कृषि आधारित अर्थव्यवस्था है। पर्यावरण का सवाल जब तक 'तापमान में बढ़ोतरी से मानवता के भविष्य पर खतरा' जैसे अमूर्त रूपों तक सीमित रहा, तब तक विकासशील देशों का इसकी ओर ध्यान नहीं गया। परंतु अब जलवायु चक्र का सीधा असर खाद्यान्न उत्पादन पर पड़ रहा है। किसान तय नहीं कर पा रहे कि कब बुवाई करें और कब फसल काटें। तापमान में बढ़ोतरी जारी रही तो आने वाले 15 सालों में खाद्य उत्पादन 40 प्रतिशत तक घट जाएगा। इससे पूरे विश्व में खाद्यान्नों की भारी कमी हो जाएगी। ऐसी स्थिति वर्ल्ड वार से कम खतरनाक नहीं होगी। एक नई अमेरिकी स्टडी में दावा किया गया है कि तापमान में एक डिग्री तक का इजाफा साल 2030 तक अफ्रीकी सिविल वार के रिस्क को 55 प्रतिशत तक बढ़ा सकता है। दुनिया जिस तरह विकास की दौड़ में अंधी हो रही है, उसे देखकर तो यही लगता है कि आज नहीं तो कल ग्लोबल वार्मिंग मानव सभ्यता के लिए भारी संकट पैदा करने वाली है। प्राकृतिक आपदाएं हमें बार-बार चेतावनी दे रही हैं। लोगों को इस कथित विकास की बेहोशी से जगाने के लिए ही अमेरिकी सीनेटर जेराल्ड नेल्सन द्वारा 22 अप्रैल 1970 से धरती को बचाने की मुहिम पृथ्वी दिवस के रूप में शुरू की गई थी। लेकिन, अभी यह दिवस सिर्फ रस्मी आयोजनों तक सिमट कर रह गया है।
दुनिया भर में पर्यावरण संरक्षण को लेकर काफी बातें, सम्मेलन, सेमिनार आदि हो रहे हैं। लेकिन, इनके निष्कर्षों पर अमल की सूरत बनती दिखाई नहीं देती। केंद्रीय पर्यावरणमंत्री ने 3 साल पहले सभी वाहनों में फ्यूल एफिशंसी स्टैंडर्ड, मॉडल ग्रीन बिल्डिंग कोड और इंडस्ट्रीज के लिए एनर्जी एफिशंसी सर्टिफिकेट आवश्यक करने के लिए ऊर्जा संरक्षण कानून में संशोधन, देश के सभी कोयला आधारित ताप बिजलीघरों में 50 प्रतिशत प्रदूषण रहित कोयले का प्रयोग, वन क्षेत्र संरक्षण के लिए कठोर कदम आदि बातों का जिक्र किया था। परंतु वास्तविकता के धरातल पर इनमें से एक भी पहलू पर ठीक ढंग से काम नहीं हुआ है। हम अपने लक्ष्य से अभी बहुत दूर है। हालांकि यह मुद्दा 2009 में घोषित नैशनल एक्शन प्लान के 8 मिशनों में से एक है। पर्यावरण संबंधी मुद्दों पर सरकार ने अभी तक कोई गंभीर प्रयास नहीं किया। असल में पर्यावरण सरंक्षण का मुद्दा पार्टियों के राजनीतिक अजेंडे में ही नहीं है। देश में लोकसभा के चुनाव चल रहे हैं, लेकिन अधिकांश राजनीतिक दलों ने अपने घोषणापत्र में ऐसे किसी भी मुद्दे को जगह देना जरूरी नहीं समझा। जलवायु परिवर्तन पलायन की बड़ी वजह भी बनने जा रहा है। इंटरनेशनल ऑर्गनाइजेशन फॉर माइग्रेशन ने अनुमान लगाया है कि सन 2050 तक तकरीबन 20 करोड़ लोगों का पलायन जलवायु परिवर्तन की वजह से होगा जबकि उस समय तक दुनिया की आबादी बढ़ कर 9 अरब तक पहुंच जाने का अनुमान है। कितना महंगा विकास पर्यावरण असंतुलन के लिए जनसंख्या वृद्धि उतनी जिम्मेदार नहीं है जितनी उपभोगवादी संस्कृति। यही संस्कृति हर कीमत पर विकास वाली मनोवृत्ति बनाती है। क्या सिर्फ औद्योगिक उत्पादन में बढ़ोतरी कर देने को विकास माना जा सकता है? खासकर तब जब एक बड़ी आबादी को अपनी जिंदगी बीमारी और पलायन में गुजारनी पड़े? आखिर ऐसे विकास का क्या मतलब जो विनाश को आमंत्रित करता हो? ऐसे विकास को क्या कहें जिसकी वजह से संपूर्ण मानवता का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाए? वास्तव में पर्यावरण संरक्षण ऐसा ही है जैसे विपरीत परिस्थितियों में भी अपने जीवन की रक्षा करने का संकल्प। सरकार और समाज के स्तर पर लोगों को पर्यावरण के मुद्दे पर गंभीर होना होगा, नहीं तो सबको प्रकृति का कहर झेलने के लिए तैयार रहना होगा। इसलिए आज और अभी हम संकल्प लें कि पृथ्वी को संरक्षण देने के लिए जो कुछ भी हम कर सकेंगे, वह करेंगे और अपने परिवेश में इस बारे में जागरूकता भी फैलाएंगे।
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पर्यावरण की चिंता

Sat, 13 Sep 2014 

अक्टूबर-नवंबर उत्तर भारत खासकर पंजाब, हरियाणा व दिल्ली के पर्यावरण के लिए दम घोंटने वाला होता है। इसका प्रमुख कारण निस्संदेह खेतों में जलाई जाने वाली पराली की आग ही होती है। इस पर नियंत्रण के लिए गत दिवस राष्ट्रीय ग्रीन ट्रिब्यूनल की ओर से केंद्र को दिया गया आदेश गौरतलब है।
ट्रिब्यूनल ने केंद्र सरकार को एक सप्ताह के भीतर राष्ट्रीय पराली नीति बनाने का आदेश दिया है। ऐसे किसी आदेश की अपेक्षा लंबे समय से की जा रही थी, क्योंकि खेतों में पराली जलाने से रोकने के लिए अभी तक कोई स्पष्ट नीति केंद्र व राज्य सरकारों के पास नहीं है। जिलाधिकारी जरूर हर बार अपने स्तर पर पराली जलाने के खिलाफ धारा 144 का उपयोग करते हुए निषेधाज्ञा जारी करते हैं जिसके तहत पराली जलाने वाले किसानों के विरुद्ध कार्रवाई की जाती है, लेकिन इसमें किसी तरह के कठोर दंड का प्रावधान नहीं है। यही कारण है कि किसान निडर होकर पराली जलाते रहते हैं। हर साल यही क्रम दोहराया जाता है।
खेतों में अवशेष जलाने से लाखों टन जहरीली गैस हवा में घुल जाती है जो कई प्रकार की जानलेवा बीमारियों का कारण बनती है। इतना ही नहीं, कई बार तो पराली के धुएं के कारण सड़क हादसे भी हो चुके हैं जिनमें कई लोगों को जान से हाथ धोना पड़ा है। एक आकलन के अनुसार पंजाब में हर साल औसतन करीब 12 मिलियन टन धान की पराली अक्टूबर-नवंबर के दौरान जलाई जाती है। यह निस्संदेह चिंताजनक स्थिति है। ऐसा नहीं है कि इसका असर मात्र पंजाब तक ही सीमित रहता है। 2012 में तो दिल्ली और उसके आसपास 26 अक्टूबर से 8 नवंबर के बीच धुंध छाए रहने के लिए भी पंजाब और हरियाणा के खेतों में बड़े पैमाने पर खुले में पराली जलाए जाने को ही जिम्मेदार माना गया था। सरकार कृषि अवशेष को खेतों में जलाने से रोकने के लिए कभी पायरोफार्मर के जरिए पराली से तेल व गैस निकालने की योजना बनाती है तो कभी इससे एथनॉल बनाने की कवायद करती है, परंतु परिणाम हर बार वही ढाक के तीन पात वाले ही होते हैं।
ऐसा कदाचित पराली के लिए किसी ठोस नीति के न होने के कारण ही होता है। अब जबकि राष्ट्रीय ग्रीन ट्रिब्यूनल ने इस संबंध में सख्ती की है तो उम्मीद की जानी चाहिए कि इसके सुखद परिणाम सामने आएंगे।
(स्थानीय संपादकीय: पंजाब)
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कमजोर होती जिंदगी की परत

Tue, 16 Sep 2014 

आज के इस वैज्ञानिक युग में हम दिन दोगुनी रात चौगुनी उन्नति कर रहे हैं, परंतु हमें यह भी स्वीकार करना पड़ेगा कि इस प्रगति के साथ-साथ हम अपनी कब्र भी खोदते जा रहे हैं। दुनिया के सभी देशों के सामने जलवायु परिवर्तन, पृथ्वी के बढ़ते तापमान, कहीं पर सूखा तो कहीं पर बाढ़ की समस्या, पिघलते ग्लेशियर, ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन से जुड़े संकट अत्यधिक गहरे हो रहे हैं। इसके फलस्वरूप वातावरण में कार्बन डाई आक्साइड की वृद्धि हो रही है। इन सब के कारण एक विकराल समस्या उत्पन्न हो गई है। जलवायु परिवर्तन का प्रमुख कारण तापमान में हो रही वृद्धि है। पृथ्वी का तापमान लगातार बढ़ रहा है, इस तापमान की वृद्धि को 'ग्लोबल वार्मिंग' का नाम दिया गया है। वास्तव में देखा जाए तो वैश्रि्वक तापमान से उत्पन्न जलवायु परिवर्तन एक सार्वभौमिक विकराल समस्या है। सामान्य शब्दों में कहें तो ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन से पृथ्वी का तापमान निरंतर बढ़ रहा है, यह बढ़ता हुआ तापमान ही जलवायु परिवर्तन के लिए जिम्मेदार है। सूर्य से आने वाली किरणों का लगभग 40 प्रतिशत भाग पृथ्वी तक पहुंचने से पहले ही आकाश में वापस लौट जाता हैं। 15 प्रतिशत वातावरण में अवशोषित हो जाता है। पृथ्वी तक लगभग 45 प्रतिशत ही पहुंचता है। यह किरणें गर्मी के रूप में पृथ्वी से परावर्तित होती हैं। वायुमंडल में पाई जाने वाली कुछ प्रमुख गैसें लघु तरंगी सौर विकिरणों को पृथ्वी के धरातल तक आने देती हैं, परंतु पृथ्वी से निकलने वाली दीर्घ विकिरणों को अवशोषित कर लेती हैं, जिसके कारण वायुमंडल में पृथ्वी का औसत तापमान 35 डिग्री सेल्सियस के इर्द-गिर्द बना रहता है। इस संपूर्ण प्रक्रिया के द्वारा गैसें ऊपरी वायुमंडल में एक ऐसी परत बना लेती हैं, जिसका असर वातावरण में सर्दी व गर्मी से बचाने के लिए बनाई गई ग्रीन हाउस की परत के समान ही होता है। इस संपूर्ण प्रक्रिया को ही हरित गृह प्रभाव कहा जाता है। हरित गृह प्रभाव के लिए कार्बन डाई आक्साइड, सल्फर डाई आक्साइड, जल वाष्प, क्लोरो-फ्लोरो कार्बन, मीथेन, नाइट्रस आक्साइड व ओजोन गैसें उत्तरदायी हैं। इनमें कार्बन डाई आक्साइड प्रमुख गैस है। कार्बन चक्त्र के माध्यम से इसे नियंत्रित किया जा सकता है, परंतु कुछ वषरें से इसकी मात्रा में निरंतर वृद्धि हो रही है, साथ ही वायुमंडल में मीथेन, क्लोरो-फ्लोरो कार्बन की भी निरंतर वृद्धि हो रही है। ग्रीन हाउस गैसों की वृद्धि से वायुमंडल में विकिरणों के अवशोषण करने की क्षमता में लगातार वृद्धि हो रही है। यदि वायुमंडल में ग्रीन हाउस गैसों की लगातार इसी प्रकार वृद्धि होती रही तो पृथ्वी का तापमान बढ़ जाएगा। तापमान में इस वृद्धि को ही ग्लोबल वार्मिंग कहा जाता है। ग्लोबल वार्मिंग के लिए जिम्मेदार कारकों में सबसे प्रमुख हैं ताप बिजलीघर व औद्योगिक इकाइयों से निकलने वाली गर्म हवा और इनके बाद निकलने वाला गर्म पानी। यह गर्म पानी नदियों में मिला दिया जाता है, जिससे नदी के जल का तापमान लगभग 10 डिग्री तक बढ़ जाता है, फलस्वरूप इसमें रहने वाले जलीय जीवों का जीवन संकट में आ जाता है और गर्म हवा वातावरण में विलीन होकर वातावरण को और गर्म कर देती है। पेट्रोलियम पदाथरें की वृद्धि से वातावरण में जहरीली गैसों के स्तर में लगातार वृद्धि हो रही है, जिससे अनेक रोगों की उत्पत्ति हो रही है। उद्योगों, फैक्ट्रियों तथा वाहनों से निकलने वाला धुआं वातावरण को अत्यधिक गर्म कर देता है तथा इन सबसे निकलने वाली कार्बन डाई आक्साइड का प्रतिशत प्रत्येक वर्ष लगभग 40 अरब टन होता है। ओजोन की परत धरती के लिए अत्यंत लाभदायक है। यह सूर्य से आने वाली पराबैंगनी विकिरणों को पृथ्वी पर आने से रोकती है, परंतु कुछ वषरें में यह पता चला है कि ओजोन परत के एक भाग को इस रसायन के कारण काफी क्षति हुई है। इस क्षति के कारण पृथ्वी के तापमान में वृद्धि हुई है। ओजोन गैस ऑक्सीजन के तीन परमाणुओं से मिलकर बनी है। ओजोन गैस की परत सूर्य से पृथ्वी पर आने वाली पराबैंगनी किरणों की कुछ मात्रा अवशोषित करती है जिससे पृथ्वी का तापमान नियंत्रित रहता है, परंतु अब इसमें छिद्र हो गया है, जिससे सूर्य से आने वाली किरणें सीधे पृथ्वी पर आती हैं और पृथ्वी के तापमान में वृद्धि कर देती हैं। अगर जलवायु परिवर्तन इसी गति से होता रहा तब हिमखंड और बर्फीली चोटियों के पिघलने से कहीं बाढ़ तो कहीं सूखे की स्थिति निर्मित हो जाएगी। अत्यधिक गर्मी व बसंत ऋतु के जल्द आ जाने के कारण जंगलों में आग लगने का खतरा उत्पन्न हो सकता है। इससे भूमिगत जल के स्तर में कमी आई है। नदियों, तालाबों और समुद्री जल के तापमान में वृद्धि से जलीय जीवन के ऊपर खतरा मंडराने लगा है। हाल ही में अमेरिका की एक पत्रिका में छपी रिपोर्ट के अनुसार पृथ्वी के तापमान में वृद्धि हो रही है, जिससे मानव शरीर में डीहाइड्रेशन की आशंका बढ़ रही है। डीहाइड्रेशन के कारण गुर्दे में पथरी की समस्या में वृद्धि हो रही है। आज हमारी पृथ्वी जिस दौर से गुजर रही है उसे इस हाल में लाने वाले हम मानव ही हैं। अब हमारा कर्तव्य बनता है कि हम किसी के लिए न सही स्वयं अपने व अपनी आने वाली पीढि़यों के लिए सोचें, परंतु कष्ट तो इस बात का है कि आज विश्व पटल पर इस संकट से उबरने के लिए युद्धस्तर पर कोई प्रयास होते नहीं दिखाई दे रहे हैं। विकसित व विकासशील देश अपने यहां विकास की होड़ में कार्बन डाई आक्साइड के उत्सर्जन में कमी नहीं लाना चाहते अत: वे सब मौन हैं। चारो ओर कटते वनों के कारण वृक्षों की संख्या में अत्यधिक गिरावट आई है। इससे भी कार्बन डाईआक्साइड की मात्रा में वृद्धि हुई है। हमें इस संकट से बचने के लिए वनों का संरक्षण करना होगा, बिजली के उपकरणों का अनावश्यक प्रयोग करने से बचना होगा, कूड़े को जलाने के बजाय रीसाइक्लिंग करना होगा। इसके अलावा भी अन्य उपाय हैं, जिनके प्रति लोगों को जागरूक होना होगा।
[लेखक स्वामी चिदानंद सरस्वती, परमार्थ निकेतन के परमाध्यक्ष एवं गंगा एक्शन परिवार के प्रणेता हैं]
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आपदा के भूगोल और जलवायु परिवर्तन के बरक्स भारत का विकास

आरबी सिंह उपाध्यक्ष, इंटरनेशनल ज्योग्राफिकल यूनियन अध्यक्ष, भूगोल विभाग, दिल्ली विवि

विश्व दिनोदिन प्राकृतिक आपदाओं की दृष्टि से असुरक्षित होता जा रहा है। बीते 20 वर्षो में कोई तीस लाख लोग प्राकृतिक आपदाओं के शिकार हो चुके हैं। प्राकृतिक आपदाओं की 90 प्रतिशत और विश्व भर में होने वाली तमाम आपदाओं की 95 प्रतिशत मौतें विकासशील देशों में होती हैं। इनमें भारत का स्थान दूसरा है। जलवायु परिवर्तन कोरी कल्पना नहीं, करीब-करीब समूची पृथ्वी ने इसे बाहरी परत पर महसूस किया है। विश्व भर में औसतन तमाम भूमि और सागरीय सतह के तापमान के रुझान का गणन किया गया तो पाया गया कि 1880 से 2012 के दौरान यह 0.85 (0.65 से 1.06) डिग्री सेंटिग्रेड गरमा गया है। 1850-1900 की अवधि तथा 2003-2012 की अवधि में कुल वृद्धि का औसत आईपीसीसी (इंटरगवर्नमेंटल पैनल फॉर क्लाइमेंट चेंज) द्वारा उपलब्ध कराए गए एकल सबसे लंबे आंकड़े के आधार पर 0.78 (0.72 से 0.85) डिग्री सेंटिग्रेड रहा। अनुभवजनित सव्रेक्षणों से 95 प्रतिशत पुष्टि होती है कि 20वीं सदी के मध्य से पृथ्वी की गरमाहट का प्रमुख कारण बढ़ती मानवीय गतिविधियां रहीं। आईपीसीसी रिपोर्ट-2013 इस बात की पुष्टि करती है कि जलवायु की गरमाहट असंदिग्ध है। कुछ दशकों से लेकर सहस्त्राब्दियों के दौरान अप्रत्याशित बदलाव भी देखे गए। इसके चलते वायुमंडल और सागर गरमा गया। बर्फ पिघली। समुद्र का स्तर ऊंचा उठ गया। और ग्रीनहाउस गैसों की सघनता बढ़ी। बीते तीन दशकों के प्रत्येक दशक में पृथ्वी की सतह लगातार गर्माती गई है। यह सिलसिला 1850 से शुरू हुआ था। आईपीसीसी रिपोर्ट इस बात की भी पुष्टि करती है कि अनेक ऐसे भूक्षेत्र हैं, जहां विनाशकारी परिघटनाएं बढ़ी हैं, तो कुछ अन्य क्षेत्रों में इनमें कमी भी आई है। बेहद संवेदनशील है अपना हिमालय हिमालय सर्वाधिक कम आयु की भुरभुरी पारिस्थतिकी वाला पर्वत है। जलवायु परिवर्तन के मद्देनजर यह बेहद संवेदनशील माना जाता है। खड़ी ढलान, जटिल भौगोलिक बनावट और सक्रिय टूट-फूट, सतत भूकंपीय घटनाओं और कमजोर परतदार बनावट के चलते यहां ऊंचाई पर ऊर्जावान पर्यावरण बना रहता है। जलवायु में रह-रह कर परिवर्तन इस क्षेत्र में आये दिन देखने को मिलता है। भौगोलिक स्थिति और मॉनसूनी जलवायु के कारण ऐसा होता है। इस पर्वत क्षेत्र पर भूकंप, भूस्खलन, बाढ़ जैसी विभिन्न आपदाएं आसन्न रहती हैं। आपदा का सामना करने के मद्देनजर ध्यान देना होगा कि हाल के समय में इस प्रकार की समस्याएं खासी बढ़ी हैं। बढ़ते पर्यटन, शहरीकरण और जलवायु परिवर्तन के कारण से ऐसा हो रहा है। लेह (2012), उत्तराखंड (2013) तथा जम्मू-कश्मीर (2014) में हालिया बाढ़ के प्रकोप से जाहिर हो गया है कि हिमालय पर खतरों का अंदेशा मंडरा रहा है। तीनों परिघटनाओं की प्रकृति और तरीके भिन्न थे, तो इसलिए कि भौगोलिक कारक अलग-अलग रहे। अलबत्ता, तीनों परिघटनाओं में जान-माल का भारी नुकसान हुआ। लेह और केदारनाथ, दोनों ही मामलों में बादल फटने से बाढ़ आई लेकिन इनका स्थानिक प्रभाव अलग-अलग रहा। हाल के समय में बादल फटने की घटनाओं और रुझान में लगातार बढ़ोतरी होती रही है। 1908 में बादल फटने की एक घटना प्रकाश में आई थी। उसके 62 वर्षो बाद जुलाई, 1970 में उत्तराखंड में बादल फटने की एक अन्य घटना घटी। 1990 के दशक के बाद से बादल फटने की 17 घटनाएं हो चुकी हैं, जिनसे जान-माल की खासी क्षति हुई है। इनमें से 11 घटनाएं पर्वतीय राज्यों-उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और जम्मू-कश्मीर-में घटीं। वास्तव में, ये घटनाएं बारंबार होने लगी हैं : 17 में से 11 घटनाएं केवल 2010-13 के मध्य ही घटीं। कोई भी कहेगा कि इन घटनाओं के बढ़ने का कारण जलवायु परिवर्तन है। भौगोलिक रूप से समतल भूमि और ऊंचे पर्वतीय क्षेत्र में इनका प्रभाव अलग-अलग रहता है। चूंकि लेह समतल भूमि है, तो वहां स्थानीय क्षेत्र ही प्रभावित हुए लेकिन केदारनाथ के मामले में भौगोलिक स्थिति भिन्न होने के कारण प्रभाव अलग रहा। पर्वतीय क्षेत्र के निचले क्षेत्र तक इसकी जद में आ गए। मूसलाधार बारिश ने बरपाया कहर जम्मू-कश्मीर में हाल में आई बाढ़ बादल फटने के कारण से नहीं थी। यह तीन दिनों तक लगातार मूसलाधार बारिश (450 मिमी. से ज्यादा) होने से आई। गौरतलब है कि जम्मू-कश्मीर में सालाना औसतन 100 मिमी. बारिश होती है। बारिश के पानी की भारी मात्रा झेलम के जलग्रहण क्षेत्र की क्षमता से कहीं ज्यादा थी। उस पर बारिश के दौरान भूमि क्षरण भी हुआ। सो, ड्ऱेनेज सिस्टम ठप हो गया। मानवीय गतिविधियों के कारण भूमि की सतह पहले ही कमजोर पड़ चुकी थी। इसलिए भूमि क्षरण तेजी से हुआ। पुराने रिकॉडरे पर दृष्टिपात करें तो पाएंगे कि जम्मू क्षेत्र में भारी बारिश 1903, 1908, 1926, 1942 और 1988 में हुई, जबकि कश्मीर घाटी में बेहद सघन बारिश 1903, 1911, 1917, 1928 और 1992 में हुई थी। अनुभवों से हम सोचने पर विवश होते हैं कि हमें हर हाल में आपदाओं से पार पाना होगा। हिमालय पर ग्लेशियर पिघलने से जलवायु परिवर्तन का प्रभाव खासी शिद्दत से महसूस होता है। बीते दशकों में ऊंचाई वाले क्षेत्रों में लगातार गरमाहट में इजाफा हुआ है। फलत: बर्फ तेजी से पिघलने लगी। देखा गया है कि ऊंची पर्वत श्रृंखलाओं में हिमनद फटने की परिघटनाओं की बारंबारता 20वीं सदी के दूसरे अर्ध के बाद से बढ़ने पर है। सो, जरूरी हो गया है कि इस बाबत उपाय के रूप में ऊंचे स्थानों पर ग्लेशियरों के पिघलने की प्राकृतिक प्रक्रिया और उसकी मात्रा पर निगरानी रखी जाए। हिमालयी क्षेत्र में हिमनद फटने से बाढ़ के प्रति जागरूकता के मामले में स्थानीय लोगों के हवाले और घटनाओं संबंधी दस्तावेज खासे उपयोगी रहते हैं। वृहत्तर हिमालय में कोई 8 हजार हिमानी झीलें हैं। इनमें से कोई दो सौ बर्फानी झीलें यकीनन खतरनाक हैं। हिमालयी क्षेत्र में ये झीलें ज्यादातर बीते पांच दशकों के दौरान वजूद में आई हैं। इसी दौरान, इस क्षेत्र में हिमनद फटने की घटनाएं भी ज्यादा प्रकाश में आई। औसतन प्रत्येक 3 से 10 वर्ष के कालखंड के दौरान हिमालयी क्षेत्र में हिमनद फटने की एक घटना घटी। जान-माल का भारी नुकसान हुआ। मकान, पुल, खेत-खलिहान और जंगलात के बीच की सड़कें नष्ट हो गई। लोगों की आजीविका के हालात तंग हो गए। मौसम के सटीक पूर्वानुमान जरूरी वो कहते हैं न कि इलाज से एहतियात बेहतर है। इस दृष्टि से देखें तो पाएंगे कि आपदाओं को लेकर भविष्यवाणी सटीक न होने से समय रहते उपाय नहीं हो पाते। इस वजह से जान-माल की खासी क्षति उठानी पड़ती है। हिमालयी क्षेत्र में क्लाइमेट स्टेशन सीमित संख्या में हैं। हिमालयी क्षेत्र के ओर-छोर की थाह ले पाने में मुश्किल के चलते मौसम संबंधी सटीक अनुमान जताना संभव नहीं हो पाता। हालांकि हिमालयी क्षेत्र को फ्लश बाढ़ के मद्देनजर अनेक रिपोटरे में नाजुक क्षेत्र के रूप में चिह्नित किया गया है, तो भी जलग्रहण क्षेत्र तथा भारत और खास तौर पर हिमायली क्षेत्र में कारगर शहरी आयोजना का खासा अभाव है।ंिहमालयी क्षेत्र के शहरी इलाकों में बढ़तीं पर्यटन गतिविधियों से हालात चिंताजनक हुए हैं। जरूरी हो गया है कि बढ़ती शहरी आबादी के मद्देनजर भूमि के उपयोग/सतही बदलाव की निगरानी में ज्योस्पेशियल तकनीक का उपयोग किया जाए। इससे प्राकृतिक आपदाओं का सामना करने में आसानी होगी। मौसम की जानकारी के साथ ही बाढ़ संबंधी पूर्व सूचना के तौर-तरीकों में सुधार किया जा सकता है। हाल के समय में ‘नेशनल मॉनसून मिशन’ नाम की पहल के तहत थोड़े समय में बारिश की कुछ हद तक सटीक पूर्व सूचना देना संभव हो सका है। आपाद जोखिम को कम से कम रखे जाने की गरज से कुछ कार्य किए जाने आवश्यक हैं। पहला, तमाम आपदाओं के तरतीबवार सव्रे, रिकॉर्ड तथा उनसे हुई क्षति और आर्थिक तथा सामाजिक प्रभावों संबंधी लेखा-जोखा रखा चाहिए। दूसरा, समय-समय पर आपदा जोखिमों, उनकी बारंबारता का आकलन किया जाना चाहिए। तीसरा, तमाम क्षेत्रों के आपदा संबंधी विशेषज्ञों, प्रबंधकों और योजनाकारों के नेटवर्क को मजबूत किया जाना चाहिए। चौथा, मौसम विज्ञानियों, आर्थिक व सामाजिक विशेषज्ञों तथा आपदा जोखिम प्रबंधन में जुटे प्रबंधकों के बीच परस्पर वैचारिक आदान-प्रदान को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। कहना होगा कि आपदा प्रबंधन में स्थानिक तौर पर सूचना प्रौद्योगिकी का ज्यादा इस्तेमाल किया जाना जरूरी है। यह भी जरूरी है कि घर-घर में आपदा प्रबंधन को लेकर पर्याप्त जानकारी पहुंचे। हमारे हर दिन के कार्य-व्यवहार का यह हिस्सा हो।
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सही तस्वीर की जरूरत

Tue, 07 Oct 2014

कुछ साल पहले नोबेल पुरस्कार से सम्मानित इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आइपीसीसी) ने एक चेतावनी जारी कर सबको चौंका दिया था कि हिमालय के ग्लेशियर 2035 तक खत्म हो जाएंगे। मई 2009 में जब मैं पर्यावरण एवं वन मंत्री था, तब यह बात मेरे संज्ञान में लाई गई थी। मैं चौंक गया। क्या सच में ऐसा हो सकता है? इसके बाद मैंने देश भर में पर्यावरण के क्षेत्र में कार्यरत अलग-अलग संस्थानों के वैज्ञानिकों से बातचीत की। इनका निष्कर्ष बिल्कुल अलग था और इससे आइपीसीसी की अजीबोगरीब घोषणा पर सवाल खड़े हो गए।
हिमालयी ग्लेशियरों का अध्ययन करने वाले वैज्ञानिकों ने मुझे बताया कि हिमालय के ग्लेशियर आर्कटिक ग्लेशियरों से इस मायने में अलग हैं कि उनका निम्नतम बिंदु समुद्र की सतह से तीन हजार मीटर से अधिक है। इसलिए ग्लोबल वार्मिंग का उन पर बहुत कम असर पड़ेगा। भारतीय क्षेत्र में करीब दस हजार ग्लेशियरों में अधिकांश पिघल रहे हैं। गंगोत्री जैसे कुछ ग्लेशियर तो तेजी से घट रहे हैं। जबकि सियाचिन ग्लेशियर समेत कुछ ग्लेशियर घटने के बजाय बढ़ रहे हैं। बढ़ते कचरे के कारण भारत के ग्लेशियरों का स्वास्थ्य बेहद नाजुक है। तब मैंने प्रख्यात भू-वैज्ञानिक वीके रैना से तमाम निष्कषरें पर आधारिक एक रिपोर्ट तैयार करने का अनुरोध किया। वीके रैना पांचवें दशक से हिमालयी ग्लेशियरों का अध्ययन कर रहे हैं। उनकी रिपोर्ट को सितंबर 2009 में पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने प्रकाशित किया और इसने पूरी दुनिया में तहलका मचा दिया। इसकी विश्वसनीयता पर हमले किए गए। मुझे जलवायु परिवर्तन को नकारने वाला बताया गया और आइपीसीसी के अध्यक्ष आरके पचौरी ने रैना की रिपोर्ट को तंत्र-मंत्र विज्ञान करार दिया। इस कहानी का अंत 31 मार्च, 2014 को जापान के योकोहोमा में हुआ जहां आइपीसीसी ने एक रिपोर्ट जारी करके स्वीकार किया कि 2035 तक हिमालयी ग्लेशियर समाप्त होने संबंधी उनकी रिपोर्ट गलत थी और यह बेहद गंभीर गलती थी। यह पहली बार नहीं हुआ था कि विश्व के विज्ञान जगत ने जलवायु परिवर्तन पर भारत को कठघरे में खड़ा किया था। नौवें दशक में अमेरिका सरकार की एक रिपोर्ट में दावा किया गया था कि भारत में धान के खेतों से प्रति वर्ष 3.8 करोड़ टन मीथेन गैस निकलती है। इस आंकड़े को प्रख्यात वैज्ञानिक डॉ. एपी मित्रा ने चुनौती दी और साबित किया कि धान के खेतों से होने वाला उत्सर्जन महज 40 से 60 लाख टन प्रतिवर्ष है। यह अध्ययन बेहद महत्वपूर्ण है, क्योंकि मीथेन गैस कार्बन डाईऑक्साइड से भी अधिक खतरनाक है।
इन दो उदाहरणों से पता चलता है कि जलवायु परिवर्तन विज्ञान का छुपा हुआ राजनीतिक एजेंडा हो सकता है। इसलिए जलवायु परिवर्तन के क्षेत्र में भारत को विश्व स्तरीय वैज्ञानिक और प्रौद्योगिकी तंत्र विकसित करना होगा। यही सोच 2010 में इंडियन नेटवर्क ऑन क्लाइमेट चेंज एसेसमेंट के गठन की पृष्ठभूमि बनी। करीब 125 संस्थानों से 250 वैज्ञानिक इस शोध नेटवर्क का हिस्सा बने। आइएनसीसीए ने दो रिपोर्ट प्रकाशित कीं, जो इस क्षेत्र में मील का पत्थर साबित हुईं। इसमें हिमालयी, पूर्वोत्तर, तटीय और पश्चिमी घाट क्षेत्रों में कृषि, जल, प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र, जैवविविधता और स्वास्थ्य का आकलन किया गया। यह विश्लेषण साल 2030 को ध्यान में रखते हुए किया गया था। दूसरी रिपोर्ट 2007 में भारत के ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन पर आधारित थी। यह रिपोर्ट आने के बाद भारत पहला विकासशील देश बन गया जिसने जीएचजी पर अपनी स्थिति साफ की।
आइएनसीसीए ने काले कार्बन पर भी विस्तृत अध्ययन की जिम्मेदारी ली। इस तरह भारत ने जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर सक्रियता दिखाई। यह मुद्दा अंतरराष्ट्रीय चर्चा का विषय बना हुआ था और इस संबंध में भारत पर सवाल उठाए जाते थे। 2010 में देहरादून में नेशनल सेंटर फॉर हिमालयन ग्लेशियोलॉजी के गठन का फैसला लिया गया। डॉ. मनमोहन सिंह ने क्षेत्र के अन्य देशों के साथ समन्वय की जरूरत पर जोर दिया। अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन इसरो भी कार्बन डाईऑक्साइड और एयरोसोल के वितरण पर आंकड़े उपलब्ध कराने के लिए एक नैनो सेटेलाइट और ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन पर निगरानी रखने के लिए एक विशेष सेटेलाइट छोड़ने को राजी था। इसके अलावा देश के अलग-अलग क्षेत्रों में मौसम संबंधी जानकारी के लिए स्टेशनों का सघन जाल बिछाने के लिए भी तैयारी की गई थी। आइएनसीसीए ने इस संबंध में शोधपत्र प्रकाशित करने की पहल भी की। उदाहरण के लिए एक ऐसे ही शोधपत्र में विख्यात अंतरिक्ष वैज्ञानिक डॉ. यूआर राव ने कहा कि ग्लोबल वार्मिग के पूर्वानुमान के लिए वैश्विक अंतरिक्षीय किरणों की तीव्रता पर ध्यान देने की जरूरत है। यह एक ऐसा क्षेत्र है जिसकी वैश्विक वैज्ञानिक समुदाय अनदेखी करता रहा है। अंतरराष्ट्रीय वार्ताओं में अपना पक्ष मजबूती और तार्किक ढंग से रखने के लिए हमें जलवायु परिवर्तन के आकलन का खुद का तंत्र विकसित करना होगा। यह सामरिक महत्व का क्षेत्र है। उचित जानकारी के अभाव में हम अंतरराष्ट्रीय मोर्चे पर कमजोर पड़ जाते हैं। अभी भी भारत की खेती और उद्योग काफी हद तक मानसून पर निर्भर हैं। भारत में सात हजार किलोमीटर समुद्री सीमा है। वैज्ञानिक अध्ययनों से यह साबित हो गया है कि समुद्र का जलस्तर बढ़ रहा है और आगे भी बढ़ता जाएगा। इसके अलावा उत्तरी और पूर्वी क्षेत्रों में जल सुरक्षा में हिमालयी ग्लेशियरों की अहम भूमिका है। साथ ही तीव्र विकास के लिए हम कोयला और लौह अयस्क जैसे जिन प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर हैं वे घने जंगलों में पाए जाते हैं। इनके खनन के लिए बड़े पैमाने पर वनों को उजाड़ा जाएगा और इसका नतीजा यह होगा कि कार्बन को अवशोषित करने की देश की क्षमता काफी कम हो जाएगी।
इन सब चिंताओं का समाधान जलवायु परिवर्तन के क्षेत्र में काम करने वाले वैश्विक समुदाय के साथ जुड़ने से ही हो सकता है। इसमें हमें बड़ा लाभ यह होगा कि विदेशों में कार्यरत भारतीय वैज्ञानिकों की सेवाएं हमें आसानी से मिल सकती हैं। किंतु इस प्रकार की साझेदारी हमारी घरेलू ताकत के आधार पर ही हो सकती है। हम जिन चुनौतियों का सामना करते हैं उनमें से बहुत सी भारत के लिए विशिष्ट हैं। उदाहरण के लिए हमारे कोयले में बहुत अधिक राख निकलती है। इसके लिए हमें खुद ही नए समाधान निकालने होंगे। विश्व 16 जैव-भूगोलीय क्षेत्रों में विभक्त है, जिनमें से दस का प्रतिनिधित्व भारत में है। इसलिए यह और भी जरूरी हो जाता है कि भारत पारिस्थितिकीय के अध्ययन के लिए खुद का तंत्र विकसित करे।
[लेखक जयराम रमेश, पूर्व पर्यावरण एवं वन मंत्री हैं]




बाढ़ की विभीषिका




हमारे सामने दोहरी चुनौती

Sun, 14 Sep 2014

कहा जा रहा है कि जम्मू-कश्मीर में बाढ़ की विभीषिका से शुरू में लोग और सरकार अन्जान रहे। लेकिन ऐसा कैसे हुआ? हम सभी जानते हैं कि हर साल देश कुछ महीने सूखे से हलकान रहता है और कुछ महीने विनाशकारी बाढ़ के पानी से परेशान रहता है। इस साल भी इस वार्षिक चक्र से कोई राहत नहीं मिली बल्कि कुछ नई और आश्चर्यजनक घटनाएं हुई। हर साल बाढ़ का विनाशकारी रूप भयावह होता जा रहा है। हर साल बारिश अधिकाधिक परिवर्तनशील और प्रचंड रूप अख्तियार कर रही है। हर साल बाढ़ या सूखे के सीजन के कारण आर्थिक नुकसान बढ़ रहा है और विकास कार्यो को नुकसान हो रहा है।
वैज्ञानिक अब निष्कर्ष रूप में कहने लगे हैं कि मौसम के प्राकृतिक बदलाव और जलवायु परिवर्तन के बीच भेद है। मौसम का अध्ययन करने वाले वैज्ञानिक बताते हैं कि उन्होंने सामान्य मानसून और असामान्य प्रचंड बारिश की घटनाओं के बीच भेद को पहचानना शुरू कर दिया है। उल्लेखनीय है कि मौसम को अस्थिर और अविश्वसनीय माना जाता है। इसके बावजूद वैज्ञानिक इस परिवर्तन को देख पा रहे हैं।
इस तथ्य ने मसले को और भी जटिल बना दिया है कि अनेक कारकों ने मौसम को प्रभावित किया है और कई अन्य कारकों ने इसकी उग्रता और प्रभाव पर असर डाला है। अन्य शब्दों में कहा जाये तो सूखा और बाढ़ जैसी प्रचंड दशाओं के कारण होने वाली तबाही का मसला जटिल है और इसमें स्त्रोतों का कुप्रबंधन और कमजोर योजना शामिल है। जम्मू-कश्मीर में आई बाढ़ वहां पर हुई अप्रत्याशित भारी बारिश के चलते हुई। गलत प्रबंधन के चलते हमने बाढ़ क्षेत्र की ड्रेनेज प्रणाली को खत्म कर दिया। हमने नदी के कोप को रोकने के लिए तटबंध बना दिए। लेकिन वह भी कारगर न साबित हुआ। सबसे खराब स्थिति तो यह हुई कि इंसानी लोभ ने बाढ़ क्षेत्र में बस्तियां बसा लीं। शहरी भारत को ड्रेनेज का भान ही नहीं रहा। बाढ़ के पानी को निकालने वाला सिस्टम या तो बंद है या फिर है ही नहीं। हमारे ताल-तलैयों और पोखरों पर रियल इस्टेट का कब्जा हो चुका है। ऐसे हालात में अगर अप्रत्याशित बारिश होती है तो शहर डूबने लगता है। यही जम्मू-कश्मीर में भी हुआ है। बाढ़ नियंत्रण के परंपरागत तरीके से हम हिमालय के पानी को झीलों और परस्पर जुड़े जल स्रोतों के माध्यम से नियंत्रित करते थे। श्रीनगर की डल और नगीन झीलें महज सौंदर्य स्थल नहीं हैं बल्कि शहर के सोख्ते की तरह हैं। बड़े इलाके का पानी इन परस्पर जुड़ी झीलों में आकर एकत्र होता था। प्रत्येक झील में जमाव से अधिक पानी के बहने या निकलने की व्यवस्था थी, लेकिन समय के साथ हम ड्रेनेज की कला भूल गए। अब हमें जमीन केवल मकानों के लिए दिखाई देती है पानी के लिए नहीं। श्रीनगर के निचले इलाकों में आवासीय भवन बना दिए गए। बाढ़ के पानी के निकलने वाले स्थान अतिक्रमण के भेंट चढ़ गए या फिर उपेक्षित पड़े रहे। ऐसे में जलवायु परिवर्तन के चलते हुई मौसम की अति सक्रिय दशाओं में वृद्धि के तहत जब भारी बारिश होती है तो पानी के निकलने का कोई स्थान नहीं बचता है। लिहाजा बाढ़ और विनाश अवश्यंभावी हो जाते हैं। इससे दोहरा संकट खड़ा हो जाता है। एक तरफ तो जलीय स्त्रोतों के कुप्रबंधन के कारण बाढ़ और सूखे की तीव्रता बढ़ती है। दूसरी तरफ जलवायु परिवर्तन के कारण प्रचंड मौसम की बढ़ती आवृत्ति ने देश में संकट को बढ़ाया है।
भारतीय जानते हैं कि मौसम उनका वास्तविक वित्त मंत्री है। स्पष्ट है कि इस अवसर के जरिये बारिश की हर बूंद का पैदावार और लंबे सूखे सीजन के लिए उपयोग किया जा सकता है। लेकिन इस तरह की बारिश अधिक उग्र घटना के रूप में सामने आती है। इसके लिए हमें तैयार रहने की जरूरत है। बारिश को चैनलीकृत और प्रबंधन राष्ट्र का मिशन होना चाहिए। यह भविष्य के लिए हमारा एकमात्र रास्ता है। इसका आशय है कि हर जल निकाय, चैनल और जलग्रहण की सुरक्षा की जानी चाहिए। आधुनिक भारत के ये मंदिर हैं। बारिश की पूजा करने के लिए इनको बनाया गया है।
-सुनीता नारायण [निदेशक, सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट]
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शहरी बाढ़ से सबक

Sun, 14 Sep 2014

जल स्रोतों, झीलों के किनारों और ड्रेनेज चैनल के अंधाधुंध कंक्रीटीकरण रोक करके हम अपने शहरों को भयावह बाढ़ से बचा सकते हैं।
मुंबई
घटना: बात जुलाई, 2005 की है। मुंबई को प्रकृति से छेड़छाड़ का बड़ा खामियाजा चुकाना पड़ा। 24 घंटे में 900 मिमी से अधिक बारिश हुई। 450 से अधिक लोग मारे गए। बुखार, डेंगू, डायरिया और कालरा का प्रकोप बढ़ा।
वजह: 1925 में शहर का 60 फीसद रकबा कृषि और जंगलों के लिए था। 1990 में यह क्षेत्रफल आधा हो गया। मानसून की बारिश के पानी को बहाकर अपने साथ ले जाने वाली पूरे शहर में फैली छह धाराएं और उनके बेसिनों पर सड़कें, भवन और झुग्गियां खड़ी हो गई। शहर में एक मीठी नदी हुआ करती थी, 2002-03 के एनवायरमेंटल स्टेटस रिपोर्ट में इसका जिक्र बाढ़ के पानी को निकालने वाले नाले के रूप में किया गया है। अशोधित सीवेज और कचरे ने इसका मार्ग अवरुद्ध किया हुआ है। लिहाजा शहर बार-बार लाचार हो रहा है।
बेंगलूर
1960 में इस शहर में 262 झीलें थीं लेकिन आज इनमें से केवल दस में पानी है। इस शहर में दोनों तरह की अपस्ट्रीम और डाउनस्ट्रीम झीलें थीं। अपस्ट्रीम झीलें डाउनस्ट्रीम झीलों को विभिन्न वालों द्वारा बाढ़ के पानी से समृद्ध करती थीं। अब अधिकांश नालों का अतिक्रमण हो चुका है। लिहाजा अपस्ट्रीम झीलों के लिए अतिरिक्त पानी की निकासी बंद होने के चलते शहर में बाढ़ के हालात पैदा हो रहे हैं।
हैदराबाद
यह शहर अपने जल निकायों को तेजी से खो रहा है। 1989 और 2001 के बीच जल निकायों का 3245 हेक्टेयर रकबा खत्म हो गया। यह क्षेत्रफल जल की प्रमुख जल संरचना हुसैन सागर से दस गुना अधिक है। शहर की प्रमुख नदी मुसी का बाढ़ क्षेत्र अतिक्रमण का शिकार हो चला है।
गुवाहाटी
पहाड़ियों से आने वाला बारिश का पानी उनकी तलहटी में स्थित तालाबों में एकत्र होता है। तेजी से हो रहे अतिक्रमण ने ऐसे तालाबों और उन्हें भरने वाले रास्तों को नष्ट कर दिया। लिहाजा बाढ़ यहां की एक स्थायी समस्या हो चुकी है। यहां केवल अतिक्रमण समस्या नहीं है बल्कि नदियों और जल निकायों का कुप्रबंधन भी इसमें शामिल होकर इसे भयावह बना रहा है। कूड़े-कचरे से यहां के पानी के निकास द्वार और जल निकाय पट रहे हैं। 2000 के बाद शुरू हुए अनियोजित तेज शहरीकरण ने झीलों के आसपास की जमीन पर कॉलोनियां बसा दी हैं। कैचमेंट क्षेत्र से जंगल काटकर उन्हें दोयम दर्जे का बनाया जा रहा है लिहाजा कैचमेंट में बालू का तेज जमाव हो रहा है।
कमजोर कड़ी
विशेषज्ञों के अनुसार शहरों के जल निकाय जमीनी मालिकाना वाली कई एजेंसियों के अधीन होती हैं। इनमें राजस्व विभाग, मत्स्य विभाग, शहरी विकास विभाग, सार्वजनिक निर्माण विभाग, म्युनिसिपालिटी और पंचायतें आदि शामिल होते हैं। ये विभाग इन जल निकायों को खा जाते हैं और अपने इस कारनामे को भू उपयोग में बदलाव लाकर अंजाम देते हैं। चूंकि ज्यादातर जल निकाय सूखे होते हैं लिहाजा उनका अतिक्रमण ज्यादा आसान होता है। उनके सूखने के पीछे का मर्म यह है कि जल निकाय और उनका कैचमेंट एरिया दो विभागों के अधीन आता है। लिहाजा हितों के परस्पर टकराव के चलते जल निकाय का रखरखाव मुश्किल होता है और वे सूख जाते हैं।
क्या कहता है कानून
अनुच्छेद 48 ए कहता है, 'राज्य पर्यावरण को सुरक्षित रखते हुए उसमें सुधार की कोशिश करे और देश के समस्त जीव-जंतुओं और जंगलों को सुरक्षा प्रदान करे।
51 ए अनुच्छेद में कहा गया है, 'प्रत्येक नागरिक का यह मूल कर्तव्य है कि वह जंगलों, झीलों, नदियों और वन्य जीवों समेत प्राकृतिक पर्यावरण की रक्षा करें और उनमें सुधार करे। सभी सजीवों के प्रति उसमें करुणा, सहानुभूति का भाव होना चाहिए।
संरक्षण
इस दिशा में गुवाहाटी और कोलकाता ने कदम उठाए हैं। गुवाहाटी में राच्य सरकार ने एक कानून बनाकर वेट लैंड्स और उसके इर्द-गिर्द की जमीन को सुरक्षित रखने का प्रयास कर रही है। इसी आशय के कानून कोलकाता, केरल और आंध्र प्रदेश सरकार ने भी बना रखे हैं।
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प्रकृति का प्रतिकार

Sun, 14 Sep 2014 

जम्मू-कश्मीर में आई भयावह बाढ़ ने एक बार फिर इंसान और प्रकृति के रिश्ते की कलई खोल दी है। हम इसकी पीड़ा भले ही कुदरत का कहर जैसे तमाम भाव प्रवण शीर्षकों से व्यक्त करें, लेकिन हकीकत इससे जुदा है। दरअसल सालों से प्रकृति पर इंसानी कहर का यह खामियाजा है। जम्मू-कश्मीर के संदर्भ में झेलम नदी जब उफनाई तो उसके पानी को निकलने का रास्ता नहीं मिला। झेलम नदी का करीब आधा बेसिन अवैध निर्माणों की भेंट चढ़ चुका है। लिहाजा भारी बरसात के पानी को निकलने की जगह नहीं मिली। यह किसी एक नदी या शहर की दास्तां नहीं है। देश की करीब हर नदियां अवैध अतिक्रमण के चलते सिकुड़ती जा रही हैं। उनका बहाव क्षेत्र कम होता जा रहा है। ऐसे में जब कभी भारी बारिश की स्थिति आती है तो उनके बहाव क्षेत्र में बसी कालोनियां पानी का शिकार बनती हैं। ऐसे में सवाल यह उठता है कि नदी के बहाव क्षेत्र में निर्माण कार्य शुरू कैसे हो पाता है। शासन-प्रशासन कहां रहता है? दरअसल यह निर्माण कार्य सबकी जानकारी में होता है और ऊपर से लेकर नीचे तक सबकी इसमें मिलीभगत होती है। चाहे, टाउन प्लानर हो, चाहे इंजीनियर हो, चाहे म्युनिसिपालिटी हो, सबके आंख के सामने यह गोरखधंधा चलता रहता है। वोट बैंक की राजनीति के चलते किसी न किसी राजनेता या राजनीतिक दल का इस अनैतिक और अवैध निर्माण कार्य को समर्थन प्राप्त होता है। जब बस्ती बस जाती है तो ये एजेंसियां खानापूरी करने के लिए हरकत में आती हैं। उसको तोड़ने के दिखावटी प्रयास शुरू होते हैं तो व्यापक हितधारक लोग अनशन और आंदोलन शुरू कर देते हैं। इसमें भी राजनीतिक दल अपनी राजनीतिक गोटियां सेंकते हैं। लिहाजा कार्रवाई अमला बैरंग वापस लौट जाता है।
श्रीनगर को पूर्व का वेनिस कहा जाता रहा है। इस तुलना के पीछे मूल कारण यह है कि झेलम नदी की छोटी-छोटी शाखाओं का एक पूरा नेटवर्क श्रीनगर शहर में फैला हुआ है। यह नेटवर्क विभिन्न झीलों और जल निकायों को आपस में जोड़ता है। समय के साथ इनमें कुछ चैनेल्स बंद हो गए और उनमें जलधारण करने की क्षमता कम हो गई। इनमें से एक है नुल्ला मार। अब यह खनयार से लेकर छत्ताबल तक दुकानों की एक कतार में तब्दील हो चुका है। मुख्य नदी को डल झील और छोटे-छोटे जल निकायों से जोड़ने वाला यह सबसे बड़े चैनल में से एक है। झेलम नदी में आए अतिरिक्त पानी के निकासी का यह मुख्य द्वार की तरह था। 1975 में शेख मुहम्मद अब्दुल्ला के सत्ता में आने के बाद इसको भरकर इसे सड़क में तब्दील कर दिया गया। तमाम शहर आज भी बाढ़ के चपेट में नहीं आते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि वहां का ड्रेनेज सिस्टम आज भी चालू है। हां, यह बात और है कि उन पुराने शहरों के अंग्रेजों ने बनवाया था। उन्हें किसी वोट बैंक की लालच नहीं थी लिहाजा उन्होंने अपने अनुसार शहर की हर आपातकाल व्यवस्थाओं का पुख्ता इंतजाम किया था।
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स्वर्ग में सैलाब

Sun, 14 Sep 2014

जम्मू कश्मीर में आई भयावह बाढ़ प्रकृति को ठेंगे पर रखने वाले हमारे अड़ियल रवैये का प्रतिकार है। अब कुदरत का इंसान से यह बदला दोतरफा हो चला है। एक तो प्रकृति के अति दोहन और उसको खत्म करने वाले रुख ने ग्लोबल वार्मिग की समस्या को जन्म दे दिया है। दूसरी तरफ हम प्रकृति के अपने परंपरागत संबंधों को भूल चले हैं। ग्लोबल वार्मिग की समस्या के चलते मौसम की अति सक्रिय दशाओं की आवृत्तिमें वृद्धि हुई है वहीं कुदरत को छेड़ने में कोई कसर नहीं किया जाता है। नदियों, झीलों, तालाबों को हम बिसारते जा रहे हैं। उनके बहाव क्षेत्र में जाकर हम अपना आशियाना बना रहे हैं। अनियोजित शहरीकरण और अतिक्रमण हमारा जन्मसिद्ध अधिकार बन चुका है। बाढ़ प्रबंधन के हम अपने परंपरागत ज्ञान को बिसार चुके हैं। पहले हम झीलों और संबद्ध जल निकायों द्वारा बाढ़ के पानी पर नियंत्रण रखते थे। अब न वह स्रोत रहे और न ही वह सोच। आपात स्थितियों के लिए हमारी तैयारी और पूर्व सूचना का तंत्र माशाअल्लाह है। लिहाजा बाढ़ और कुदरत का कहर स्वाभाविक हो चला है। ऐसे में धरती के स्वर्ग कहे जाने वाले जम्मू-कश्मीर में आई जल प्रलय के निहितार्थ की पड़ताल और उससे लिए जा सकने वाले सबक हम सबके लिए बड़ा मुद्दा है।
जनमत
क्या जम्मू-कश्मीर में आई भयावह बाढ़ कुदरत से इंसानी छेड़छाड़ का नतीजा है?
हां 90 फीसद
नहीं 10 फीसद
क्या प्रकृति से इंसान के टूटते सहज संबंधों के चलते प्राकृतिक आपदाओं की संख्या बढ़ी है?
हां 92 फीसद
नहीं 8 फीसद
आपकी आवाज
सड़के चौड़ी करने के लिए वनों को काटा जा रहा है। आज जम्मू और उत्ताराखंड में आई आपदाएं इसी का दुष्परिणाम हैं। - अंजनि कुमार श्रीवास्तव
यह आपदा विनाश का संक्षिप्त रूप है, प्रकृति आपदाओं से छेड़छाड़ इससे भी भयावह रूप ले सकती है। -अभय प्रताप
मानव द्वारा प्रकृति की घोर उपेक्षा ही विश्वभर में अचानक टूटी आपदाओं का कारण है। साथ ही इंसान के नित नए रोग और सामाजिक व मानसिक विकृतियां भी प्रकृति से उसके टूटते संबंधों का परिणाम है। -मीमधुराजा@जीमेल.कॉम
जब इंसान वृक्षों की जगह कंक्रीट के जंगल बनाएगा तो ऐसी विनाशकारी लीलाएं दिखती ही रहेंगी। - इकराम 707@जीमेल.काम
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समान कारण से उपजे हालात

Sun, 14 Sep 2014

बाढ़ के कारण: जम्मू और उत्तराखंड दोनों ही घटनाओं के कारण एक जैसे हैं। कैचमेंट के जंगलों का कटना, नदी के किनारों का अतिक्रमण, झीलों का अपक्षय, नदी के बहाव में गाद का जमना, इंसानी गतिविधियों के चलते नदी के स्वाभाविक प्रवाह में रोक, जमीन और जंगलों पर आबादी का दबाव।
चेतावनी: दोनों ही राज्यों में मौसम विभाग ने अपने पूर्वाकलन में अत्यधिक भारी बारिश की बात कही, लेकिन लोगों तक यह सूचना पहुंचाने की कोई प्रणाली नहीं।
पिछले दस सालों के दौरान भारत में अनेकों बार कुदरत ने अपना भयावह रूप दिखाया है। इसमें कोसी की बाढ़ से लेकर मुंबई की बाढ़ तक शामिल हैं। शहरी बाढ़ नई चिंता का विषय बन चुकी है। तमाम आलीशान शहर इसमें डूब जाते हैं। श्रीनगर की बाढ़ भी इसी का एक उदाहरण है। प्रकृति को ताक पर रखकर इंसानी छेड़छाड़ से आने वाली बाढ़ के समान गुणधर्म हैं। बस स्थान और नदी बदल जाती है। पिछले साल उत्तराखंड त्रासदी और हालिया जम्मू त्रासदी का पेश है तुलनात्मक अध्ययन:
जम्मू-कश्मीर बाढ़ -- उत्तराखंड त्रासदी (2013) 200+ मृतक -- 5700 मृतक अनुमानित
कबमानसूनी सीजन के आखिरी में (2-7 सितंबर) -- मानसून के शुरुआत में (14-17 जून)
भारी बारिशदस जिलों में पांच दिन तक लगातार 300-800 फीसद -- तीन दिन तक लगातार 440 फीसद अधिक बारिश हुई
उफनाई नदियांझेलम, चिनाब और इनकी सहायक नदियां -- अलकनंदा, भगीरथी और इनकी सहायक नदियां
बाढ़ का स्थानश्रीनगर प्रभावित, 1585 मीटर की ऊंचाई -- नदियों के तटीय इलाकों में, 3553 मी ऊंचे केदारनाथ में
तैयारी
2012 में आपदा नीति तैयार की गई लेकिन लागू नहीं हुई। -- आपदा प्राधिकरण का गठन लेकिन कोई योजना नहीं बनी
मुंबई बाढ़ 2005कब: 26 जुलाई
भारी बारिश: 24 घंटे के भीतर 994 मिमी
मारे गए लोग: मुंबई में 500 जबकि राज्य में पांच हजार लोग
लेह में फटा बादलकब: 6 अगस्त, 2010
भारी बारिश: 30 मिनट के भीतर 150-250 मिमी
मारे गए लोग: 255 लोग मारे गए
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सैलाब के सबक

जनसत्ता 12 सितंबर, 2014: जम्मू-कश्मीर में हालांकि बाढ़ का स्तर कुछ कम हुआ है, पर इसी के साथ त्रासदी की तस्वीर भी साफ होने लगी है। करीब तीन सौ लोगों की जान जा चुकी है। बाढ़ से घिरे हजारों लोगों को सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाया जा चुका है, पर लाखों लोग अब भी संकट में फंसे हुए हैं। बेशक सेना और आपदा कार्रवाई बल के जवानों ने मुस्तैदी दिखाई है, पर बचाव और राहत का काम निहायत अनियोजित तरीके से चल रहा है। लोगों को मालूम नहीं कि कहां शिकायत करें, कहां से जानकारी मांगें और राहत कार्य में सहयोग के लिए कहां संपर्क करें। यह स्थिति प्रशासन के भीतर भी है। राज्य का प्रशासनिक तंत्र लुंज-पुंज नजर आता है। स्वाभाविक ही इससे नाराजगी फैली है। मदद न पहुंचने से खफा लोगों ने मुख्यमंत्री आवास के अलावा कहीं-कहीं बचाव दल पर भी पथराव किए हैं। जम्मू-कश्मीर में यों भी राज्यतंत्र पर किसी हद तक अविश्वास का भाव दशकों से बना रहा है। लोगों में आक्रोश को देखते हुए यह आशंका जताई जा रही है कि बाढ़ का पानी उतरने के बाद कहीं कानून-व्यवस्था की समस्या न खड़ी हो। बहरहाल, संकट की मौजूदा घड़ी में पहला तकाजा यह है कि संचार सेवाएं जल्द से जल्द बहाल की जाएं। दूसरे, बचाव और राहत के अभियान में तालमेल और समन्वय कायम किया जाए। 
इस सैलाब ने आपदा प्रबंधन में चली आ रही खामियों की तरफ ध्यान दिलाने के साथ ही पर्यावरण से जुड़े सबक भी दिए हैं। सवा साल पहले उत्तराखंड में आई अपूर्व बाढ़ से जैसी तबाही मची, वह काफी कम होती अगर नदियों के ऐन किनारों तक निर्माण-कार्यों की छूट न दी गई होती। अब एक और हिमालयी राज्य में आई अप्रत्याशित बाढ़ ने भी वैसा ही पाठ पढ़ाया है। नदियों और झीलों के किनारे और उनके आसपास हुए वैध-अवैध निर्माण, अतिक्रमण, तटीय क्षेत्रों को कचरे से पाटने और जंगलों की अंधाधुंध कटाई, पारिस्थितिकी के लिहाज से नाजुक क्षेत्रों में भी खुदाई और भूस्खलन के खतरे वाले इलाकों में भी सड़कें बनाने का सिलसिला लंबे समय से चलता रहा है। लिहाजा, नदियों और झीलों के तट सिकुड़ते गए और बाढ़ के पानी को जज्ब करने की उनकी क्षमता जाती रही। बाढ़ से बचाव के लिए तटबंध बनाए जाते हैं, पर वे हल्की बाढ़ से ही राहत दिला सकते हैं, अप्रत्याशित बाढ़ का मुकाबला नहीं कर सकते। ग्लोबल वार्मिंग के चलते मौसम में तीव्र उतार-चढ़ाव का क्रम बढ़ रहा है। इसे हम जम्मू-कश्मीर से पहले उत्तराखंड और उससे पहले मुंबई, सूरत और बीकानेर में देख चुके हैं। इसलिए झीलों, तालाबों को पाटने, नदियों के किनारे अतिक्रमण और वहां इमारतों के निर्माण का सिलसिला बंद करना होगा। 
समस्या यह है कि जब भी ऐसी कोई पहल होती है, जमीन-जायदाद के कारोबारी उसके खिलाफ लामबंद हो जाते हैं। उन्हें राजनीतिकों का साथ मिल जाता है। कभी इसका कारण निहित स्वार्थ होता है, तो कभी तथाकथित विकास का व्यामोह। फलस्वरूप नदियों की बाबत तटीय नियमन अधिनियम की 1982 की अधिसूचना कभी लागू नहीं हो सकी। केंद्रीय जल आयोग की सिफारिशें भी ठंडे बस्ते में डाल दी गर्इं। समुद्र तटीय नियमन कानून को भी, सुनामी के कड़वे अनुभव के बावजूद, लचर बना दिया गया। मोदी सरकार ने वन संरक्षण अधिनियम, 1980 और पर्यावरण रक्षा कानून, 1986 की समीक्षा के लिए एक समिति गठित कर दी है, जो इन कानूनों को कमजोर करने की ही कवायद का संकेत है। यों यह बात हमारे नीति नियामक भी मानते हैं कि मौसम में उग्र बदलाव को ध्यान में रख कर नीतियां और योजनाएं बनाई जाएं। पर इस तकाजे को जब अमली जामा पहनाने का सवाल आता है तो वे उलट रुख अपनाते हैं। उत्तराखंड और अब जम्मू-कश्मीर की त्रासदी से सबक सीखने को वे कब तैयार होंगे!
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कश्मीर की राष्ट्रीय चिंता

Mon, 15 Sep 2014 

जम्मू-कश्मीर में बाढ़ के संदर्भ में राजनेताओं द्वारा जिस तरह एक-दूसरे पर दोषारोपण देखने को मिल रहा है वह बहुत ही खराब किस्म की राजनीति है। एक प्राकृतिक आपदा पर इस तरह राजनीति नहीं होनी चाहिए। अभी भी जम्मू-कश्मीर में आबादी के बीच घुसे पानी से पूरी तरह निजात नहीं मिली है, लेकिन राजनीतिक दल सामान्य दोषारोपण से कहीं आगे बढ़ते हुए अधिक तीव्रता से एक-दूसरे के खिलाफ मुखर होते दिख रहे हैं। यदि आप समाचार चैनलों और दूसरे अन्य मीडिया माध्यमों पर नजर डालें तो आप पाएंगे कि यह सब किस दिशा में चल रहा है। राजनीतिक अलगाव अथवा विभेद की बातें प्रमुखता पा रही हैं। वैसे यह राहतकारी है कि एक बार फिर भारतीय सेना के बारे में यह राय सर्वसम्मति से बनती दिख रही है कि सेना ने पूरे मनोयोग से लोगों का साथ दिया है और उनकी मदद की है। इसने प्रभावित लोगों और परिवारों के लिए शुरुआत में ही राहत कायरें को आरंभ कर दिया और फंसे हुए लोगों को निकालने अथवा घर खाली करने में काफी मदद दी। लोगों ने उसके कामों की काफी सराहना की। इस संदर्भ में लोगों की यह शिकायत भी समझ में आने लायक है कि सेना के प्रयासों को समर्थन और सहयोग देने में जम्मू-कश्मीर सरकार नाकाम साबित हुई। वह अस्थायी राहत कैंपों को लगाने और राशन मुहैया कराने के मामले में भी असफल साबित हुई।
जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने तर्क दिया कि वह नागरिक प्रशासन के ढहने से कुछ भी कर पाने में असमर्थ रहे, क्योंकि बाढ़ के कारण श्रीनगर में भी जनजीवन प्रभावित हुआ। इस बात में कुछ दम हो सकता है, लेकिन यह दावा किया जाना कि राज्य मशीनरी अपने परिवार वालों के बचाव में व्यस्त होने के कारण व्यापक जनसमुदाय की मदद नहीं कर सकी, ठीक बात नहीं। नि:संदेह जम्मू-कश्मीर की नेशनल कांफ्रेंस और कांग्रेस सरकार अपनी व्यापक विफलता के लिए इसे ढाल नहीं बना सकती। कुल मिलाकर यह कहने में कुछ भी गलत नहीं कि बाढ़ के साथ ही यह आधुनिक राज्य भी ढह गया।
ब्रिटिश शासनकाल में, मानवीय और प्राकृतिक दोनों ही तरह की आपदाओं से निपटने और राहत कार्य में बहुत सारी खामियां होती थीं। उस समय पीड़ित लोगों को मदद मिले ही, ऐसा अनिवार्य नहीं था, क्योंकि सभी औपनिवेशिक प्रशासन प्राय: निष्ठुर और लोगों का खून चूसने वाले होते थे। सच्चाई यह भी है कि उनमें से तमाम लोगों ने गरीबों के प्रति दयालुता दर्शाते हुए क्रिश्चियन चैरिटी अथवा परोपकार के तहत मानवीय भावना के दृष्टांत भी पेश किए। हालांकि समस्या यही थी कि औपनिवेशिक राज्यों ने कभी भी खुद को विकास एजेंसी के रूप में न देखा, न पेश किया। इनका मुख्य काम कानून और व्यवस्था को बनाए रखना था। प्रारंभिक स्तर पर लोगों को थोड़ा बहुत न्याय दिलाना तथा राजस्व का संग्रह करना इनका लक्ष्य होता था। परिणामस्वरूप इनकी लंबी भुजाएं कभी भी भारत के आंतरिक हिस्सों तक नहीं पहुंच सकीं। बहुत कुछ हुआ तो बाढ़, अकाल और भूकंप की ऐसी ही स्थितियों में कुछ कैंप लग जाते थे और स्वास्थ्य विभाग की तरफ से कुछ अधिकारी महामारी की रोकथाम में जुट जाते थे और बाकी का काम चैरिटी संगठनों के सहारे छोड़ दिया जाता था।
यदि मीडिया रपटों पर गौर करें तो पाएंगे कि राज्य सरकार बहुत कुछ औपनिवेशिक राज्यों की तरह व्यवहार करती दिखी। यह जम्मू एवं कश्मीर की शासन प्रणाली पर एक सवालिया निशान है, जो बताती है कि 1948 के बाद राज्य सरकार ने अपनी व्यापक जिम्मेदारियों को पूरा नहीं किया है। घाटी में स्थिति यह है कि राज्य पुलिस कहीं भी नजर नहीं आ रही है और वह अपने परिवारों की देखभाल अथवा उन्हें बचाने और सुरक्षा देने में व्यस्त है। प्राकृतिक आपदा की स्थिति में भी वहां किसी का न होना भारत के लिए सर्वाधिक संकटपूर्ण बात है। भारत के इस सबसे महत्वपूर्ण सीमावर्ती राज्य में स्थानीय प्रशासन पूरी तरह विफल और पंगु नजर आ रहा है। हम केवल स्थिति की कल्पना कर सकते हैं कि उस समय क्या होगा जब कोई विरोधी शक्ति सीमा पार से राज्य में विध्वंस के लिए प्रवेश करती है। जम्मू-कश्मीर में राज्य मशीनरी का पूर्णतया ध्वस्त हो जाना एक बड़ी समस्या है, जो अब्दुल्ला परिवार की चुनावी किस्मत को भी बुरी तरह प्रभावित करेगी। यह राष्ट्रीय चिंता का विषय है, जिस पर तत्काल और त्वरित गति से ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है। वास्तव में यह हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा का विषय है।
इस उपमहाद्वीप का इतिहास बताता है कि प्राकृतिक आपदाओं से निपटने की अयोग्यता प्राय: बड़े पैमाने पर चुनावी उथल-पुथल का कारण बनती है। 1970 में एक भीषण चक्रवात में पूर्वी पाकिस्तान या कहें वर्तमान बांग्लादेश में को भयानक नुकसान हुआ और इस्लामाबाद स्थित प्रशासन स्थिति को ठीक तरह से संभाल नहीं सका, जिसके परिणामस्वरूप अवामी लीग ने 1971 के चुनावों में सभी सीटों पर जीत दर्ज की। इससे संवैधानिक संकट पैदा हो गया जिस कारण पाकिस्तान का विभाजन हुआ और बांग्लादेश अस्तित्व में आया। मेरा आशय यह नहीं है कि जम्मू-कश्मीर में भी हालात उसी तरह हैं। हालांकि यह भी देखा जाना चाहिए कि अलगाववादी संकट की इस घड़ी में अचानक गायब दिख रहे हैं, लेकिन वह राज्य सरकार की कमजोरी को भारत विरोधी माहौल बनाने के लिए इस्तेमाल कर सकते हैं। जो लोग कह रहे हैं कि घाटी में स्थानीय लोगों की भावनाओं का हर हाल में खयाल रखा जाए, वह वास्तव में यही कह रहे हैं कि धार्मिक-राजनीतिक संगठनों को भ्रष्ट और अक्षम स्थानीय प्रशासन का स्वाभाविक विकल्प बनने दिया जाए। पानी का स्तर जैसे ही घटना शुरू होगा लोग पुनर्निर्माण के काम में जुट जाएंगे। यह सुनिश्चित करना जरूरी है कि अलगाववादियों को भारत के बारे में मनगढं़त कहानियों के माध्यम से हथियारों का प्रसार करने से रोका जाए।
[लेखक स्वप्न दासगुप्ता, वरिष्ठ स्तंभकार हैं]
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प्राकृतिक आपदाएं

Sun, 14 Sep 2014

मौसम विज्ञानियों के अनुसार पिछले 50-60 साल से भारी और बहुत भारी बारिश की घटनाओं में वृद्धि देखी जा रही है। पुणे स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ ट्रॉपिकल मीटिओरोलॉजी के बीएन गोस्वामी का एक अध्ययन बताता है कि 1950 से 2000 के बीच भारी बारिश (प्रतिदिन 100 मिमी से अधिक) और बहुत भारी बारिश (प्रतिदिन 150 मिमी से अधिक) की घटनाएं बढ़ गई हैं जबकि मध्यम बारिश (प्रतिदिन 5-100 मिमी) की घटनाएं कम हो गई है। आइपीसीसी की हालिया रिपोर्ट के अनुसार भारत में बाढ़ और सूखे में वृद्धि हो सकती है। देश में बारिश तो ज्यादा होगी लेकिन बारिश के दिनों की संख्या कम हो जाएगी।
मौसम की अति सक्रिय दशाएं (औसतन सालाना)
1900-09 -- 2.5
1910-19 -- 3.4
1920-29 -- 5.2
1930-39 -- 5.9
1940-49 -- 8.5
1950-59 -- 23.0
1960-69 -- 45.6
1970-79 -- 71.3
1980-89 -- 140.8
1990-99 -- 224.1
2000-10 -- 350.4




गंगा एक्शन प्लान-




दूर करना होगा अनमनापन

Sunday,Jul 06,2014

हर गुजरते क्षण के साथ मोक्षदायिनी गंगा पर बढ़ रहे प्रदूषण के हानिकारक प्रभाव को नजरअंदाज करना मुश्किल होता जा रहा है। नेशनल कैंसर रजिस्ट्री प्रोग्राम के अध्ययन से उजागर हुआ है कि देश के अन्य हिस्सों की तुलना में उत्तर प्रदेश, बिहार और बंगाल के गंगा किनारे रहने वाले बाशिंदों में कैंसर होने का खतरा ज्यादा होता है। नदी का जल पीने और नहाने लायक ही नहीं बल्कि कृषि के लिए भी फिट नहीं है। लंबे समय से सरकार और जनता इस दिशा में काम करती प्रतीत हो रही है लेकिन विश्वसनीय नतीजे क्यों नहीं निकल रहे हैं? गंगा एक्शन प्लान-एक और उसके विस्तारित रूप गंगा एक्शन प्लान-दो के 15 वर्षो की अवधि में 900 करोड़ रुपये खर्च करने के बावजूद जीएपी अपने लक्ष्यों को पाने में कामयाब नहीं हो पाया। इसके अनुभवों से सबक लेते हुए अधिक प्रभावी एक अन्य निकाय नेशनल रीवर कंजर्वेशन अथॉरिटी (एनआरसीए) का गठन किया गया लेकिन अपने निर्णयों को क्रियान्वित नहीं कर पाने के कारण यह प्रयास भी नाकाफी रहा। अतीत की विफलताओं से उबरने और गंगा सफाई अभियान को फिर से शुरू करने के लिए 2009 में नेशनल गंगा रीवर बेसिन अथॉरिटी (एनजीआरबीए) की स्थापना की गई। इसकी क्रियान्वयन एजेंसी नेशनल मिशन फॉर क्लीन गंगा (एनएमसीजी) पर 2020 तक गंगा में अशोधित म्युनिसिपल सीवेज अथवा औद्योगिक कचरे के प्रवाह को रोकने की कठिन जिम्मेदारी है। लेकिन एनएमसीजी ने बढि़या काम करते हुए अकादमिकों के बीच की दूरी को पाटते हुए अपने कदमों के क्रियान्वयन के लिए आइडब्ल्यूएमआइ, डब्ल्यूडब्ल्यूएफ, आइआइटी और आइएससीआइ जैसी राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों के विशेषज्ञों को एक साथ जोड़ने की पहल की है। धरातल पर स्थितियों में सुधार होते न देख डॉ जीडी अग्रवाल और स्वामी निगमानंद सरस्वती जैसे सामाजिक कार्यकर्ताओं और पर्यावरणविदों ने अधिक गंभीर कदम उठाए जाने की मांग की। अतीत की विफलताओं में से एक कारण मुद्दे की सीमित पहचान रहा। मुख्य फोकस संरचनात्मक व्यवधान मसलन सीवेज शोधन प्लांट को विकसित करने पर रहा ताकि विभिन्न तरीकों से सीवेज का शोधन किया जा सके। मुख्य मुद्दे मसलन ऐसे सीजन में जब पानी कम होता है तब सिंचाई और पर्यावरण के लिए जल के पुन:आवंटन और कृषि कार्यो से निकलने वाले प्रवाह के कारण परोक्ष रूप से सबसे ज्यादा होने वाले प्रदूषण की समस्या को भी रेखांकित नहीं किया गया। नदी के विभिन्न स्तरों पर होने वाले प्रवाह से उत्पन्न होने वाली विभिन्न समस्याओं को भी नहीं समझा गया। सरकार के केंद्रीकृत दृष्टिकोण से भी मदद नहीं मिली। शुरुआत में 100 प्रतिशत फंड केंद्र द्वारा दिया गया। पिछले दशक के शुरुआती वर्षो में भविष्य के कार्यो के लिए केंद्र और राच्य सरकारों के बीच 70:30 शेयर के आधार पर समेकित दृष्टिकोण को अपनाने का निश्चय किया गया। यह घातक रहा क्योंकि कुछ राच्य जरूरी फंड मुहैया नहीं करा सके। जीएपी के अंतर्गत बनाई गई संरचनाओं की ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त धनराशि नहीं थी। इससे भी बढ़कर यह कि ये संरचनाएं काम नहीं कर सकीं और निष्क्रिय रहीं। जीएपी संपत्तियां स्थानीय सरकारों के लिए बोझ बन गईं। नागरिक निकायों की तकनीकी और प्रबंधकीय क्षमता दयनीय ही रही। शहरों और कचरे के बढ़ने के कारण चुनौतियां बढ़ती गई। वर्तमान में इलाहाबाद में 50 से भी अधिक नाले सीवेज को गंगा और यमुना में पहुंचा रहे हैं जबकि 1986 में जीएपी के शुरू होने से पहले इनकी संख्या महज 13 थी। सफाई अभियान में विभिन्न तबकों को शामिल करने के बजाय उनको दूर किया गया। औद्योगिक एवं निजी सेक्टर की तरफ दृष्टिकोण सहयोगी के बजाय नियमन का ही रहा। धार्मिक निकायों, सिविल सोसायटियों और आम नागरिकों को अधिक जागरूक करने का प्रयास नहीं किया गया। अतीत में राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी ने भी अहम भूमिका निभाई। कमेटियों के साल में एक बार भी मीटिंग नहीं करने के कारण मुद्दा और भी हाशिये पर जाता रहा। इस समस्या के निराकरण के लिए सरकार द्वारा शुरू की गई पहली आधिकारिक पहल के तीन दशक बीत चुके हैं। लेकिन तब से आज तक कुछ खास सुधार नहीं आया है। स्वच्छ गंगा के लिए दृष्टि, जल, धन, टेक्नोलॉजी, नवोन्मेषी प्रबंधन और निश्चित रूप से मजबूत सहभागी और राजनीतिक इच्छाशक्ति की जरूरत है। संयोग से आशा की एक नई किरण उपजी है। हमको अन्य देशों के अनुभवों से सबक लेना चाहिए जहां सिंगापुर जैसे शहर को साफ करने एवं डेन्यूब, टेम्स एवं राइन जैसी प्रदूषित नदियों को साफ करने में सफलता पाई गई है।
-भरत शर्मा [मुख्य शोधकर्ता और समन्वयक, इंटरनेशनल वाटर मैनेजमेंट इंस्टीट्यूट, नई दिल्ली]
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युद्ध से कम नहीं है गंगा की सफाई

नवभारत टाइम्स | Jul 22, 2014

बृजेश शुक्ल

पिछले साल की बात है। उन्नाव के डौडियाखेड़ा में सोने की खोज के लिए खुदाई हो रही थी। ऋषिकेश और हरिद्वार के गंगा तट पर बैठने का सुख तलाशता हुआ मैं बगल में ही चंद्रिका देवी मंदिर की सीढ़ियों पर जा बैठा। सामने गंगा बह रही थी लेकिन वहां बैठ नहीं सका। गंगा की जगह एक गंदे नाले का एहसास हुआ। काले पानी से आती हुई बदबू के कारण मैंने वहां से हटना ही बेहतर समझा। अलकनंदा, मंदाकिनी, भागीरथी, सरस्वती, भिलंगना, जाह्नवी आदि नदियां देव प्रयाग में आकर गंगा मां बन जाती हैं। कल-कल निनाद करती पतित पावनी जब ऋषिकेश और फिर हरिद्वार पहुंचती है, तब तक वह अति निर्मल और अति स्वच्छ रहती है। हरिद्वार के आगे निकल कर गंगा ज्यों ही उत्तर प्रदेश के गढ़मुक्तेश्वर में प्रवेश करती है, उसके मैली होने की शुरुआत हो जाती है। इस मैली गंगा को निर्मल बनाने के लिए नरेंद्र मोदी सरकार ने 'नमामि गंगा' योजना की घोषणा की है। गंगा संरक्षण मिशन के लिए 2037 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया है। इसके अलावा गंगा में इलाहाबाद से हल्दिया तक 1620 किलोमीटर लंबे राष्ट्रीय जलमार्ग का निर्माण होगा। साथ ही 100 करोड़ रुपये से गंगा यमुना के घाट बनाए जाएंगे। मोदी सरकार के इस संकल्प से लोग उत्साहित भी हैं और अभिभूत भी। बावजूद इसके, अगर-मगर के तमाम प्रश्न भी इससे जुड़े हैं। पहले मैली, अब विषैली राजकपूर ने जब 'राम तेरी गंगा मैली' फिल्म बनाई थी तब शायद गंगा सिर्फ मैली थी। लेकिन अब यह विषैली हो चुकी है। लेकिन इसे साफ करने का मिशन शुरू करने से पहले यह समझना जरूरी है कि गंगा जल को विषैला बनाने में किन लोगों का हाथ है। गंगा को क्या सिर्फ शहरों से निकला सीवर का पानी ही गंदा कर रहा है, या बड़े-बड़े उद्योगपतियों की फैक्ट्रियों से निकले विषैले कचरे की भी इसमें कुछ भूमिका है? जब गंगा कानपुर में प्रवेश करती है, तो लगभग 3 सौ चमड़ा फैक्ट्रियों का प्रदूषित और कचरायुक्त पानी इसमें डाल दिया जाता है। गंगा में विषैला जल डालने वाली ये फैक्ट्रियां कई नेताओं और प्रदूषण नियंत्रण से जुड़े अधिकारियों की काली कमाई का जरिया हैं। राजीव गांधी ने गंगा को साफ करने के लिए गंगा ऐक्शन प्लान बनाया था। इस योजना में तीन राज्यों उत्तर प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल की सरकारों को शामिल किया गया। लेकिन गंगा साफ नहीं हुई। बाद में प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में गंगा रिवर बेसिन अथॉरिटी का गठन हुआ। इस अथॉरिटी के एक सदस्य बीडी त्रिपाठी का कहना है कि गंगा को साफ करने के लिए मजबूत राजनीतिक इरादे की जरूरत है। बीडी त्रिपाठी वह व्यक्ति हैं, जो पिछले 40 साल से गंगा को प्रदूषण मुक्त करने की लड़ाई लड़ रहे हैं। बाद में गंगा की सफाई के लिए अपना पूरा जीवन लगा देने वाले वीरभद्र मिश्र ने संकट मोचन फाउंडेशन का गठन किया। गंगा सफाई अभियान में हजारों साधु-संत शामिल हुए। बीजेपी की नेता और केंद्रीय मंत्री उमा भारती ने पिछले दिनों गंगा की सफाई के लिए गंगोत्री से गंगा सागर तक की यात्रा की थी। लेकिन, गंगा को प्रदूषित करने वाले इन सबसे कहीं ज्यादा ताकतवर हैं। गंगा को साफ करना है तो उन धनकुबेरों से लड़ना होगा जो अपनी फैक्ट्रियों का कचरा गंगा में गिरा रहे हैं। उन धर्मभीरुओं से भी जूझना होगा जो फूल मालाएं और अन्य कचरा गंगा में फेंक रहे हैं। यूपी के मौजूदा सीएम अखिलेश यादव या पिछली सरकारों के मुखिया क्या यह बताएंगे कि गंगा में लगातार कचरा डाल रही कानपुर की फैक्ट्रियों पर उन्होंने क्या कार्रवाई की? एक रिसर्च में यह पाया गया है कि जाजमऊ के चमड़ा कारखानों के गंदे पानी में क्रोमियम की मात्रा लगभग 124 मिलीग्राम प्रति लीटर है, जो निर्धारित मात्रा से 60 गुना अधिक है। गंगा किसी धर्म के दायरे में नहीं बंधती। वह पतित पावनी है। वह अपने जल से सभी को तृप्त करती चलती है। अबुल फजल ने अपनी पुस्तक आईन-ए-अकबरी में लिखा है कि अकबर गंगा जल को अमृत समझते थे। इसीलिए भोजन में और पीने में गंगा जल का उपयोग करते थे। अरब यात्री इब्नबतूता ने अपने यात्रा वृतांत में लिखा है कि मोहम्मद तुगलक के लिए गंगा जल दौलताबाद तक जाया करता था। डॉ राही मासूम रजा गंगा तट पर बसे गाजीपुर के एक छोटे गांव से निकल कर मुंबई चले गए, लेकिन गंगा पुत्र कहलाने में सदैव गौरव का अनुभव करते रहे। हम सब बनें भगीरथ कहते हैं, अपने पुरखों को तारने के लिए भगीरथ तपस्या कर गंगा को धरती पर लाए थे। अब समय आ गया है कि गंगा को बचाने के लिए सभी लोग भगीरथ बन कर लगें। सरकारें अकेले दम पर यह काम नहीं कर पाएंगी। 'नमामि गंगा' योजना तभी सफल हो सकती है, जब उसके भक्तजन भगीरथ जैसा मजबूत संकल्प लेंगे। यदि गंगा साफ न हुई तो जल्द ही यह इतिहास का विषय बन जाएगी। गंगा के स्वच्छ पानी में डुबकी लगा कर उत्साह से हर-हर गंगे कहते हुए लोगों को हम फिर कभी नहीं सुन पाएंगे। लोग दूर से ही गंगा के नाम पर प्रदूषित जल को प्रणाम करते हुए विदा ले लेंगे। काश ऐसा न हो। 
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