कहा जा रहा है कि जम्मू-कश्मीर में बाढ़ की विभीषिका से शुरू में लोग और सरकार अन्जान रहे। लेकिन ऐसा कैसे हुआ? हम सभी जानते हैं कि हर साल देश कुछ महीने सूखे से हलकान रहता है और कुछ महीने विनाशकारी बाढ़ के पानी से परेशान रहता है। इस साल भी इस वार्षिक चक्र से कोई राहत नहीं मिली बल्कि कुछ नई और आश्चर्यजनक घटनाएं हुई। हर साल बाढ़ का विनाशकारी रूप भयावह होता जा रहा है। हर साल बारिश अधिकाधिक परिवर्तनशील और प्रचंड रूप अख्तियार कर रही है। हर साल बाढ़ या सूखे के सीजन के कारण आर्थिक नुकसान बढ़ रहा है और विकास कार्यो को नुकसान हो रहा है।
वैज्ञानिक अब निष्कर्ष रूप में कहने लगे हैं कि मौसम के प्राकृतिक बदलाव और जलवायु परिवर्तन के बीच भेद है। मौसम का अध्ययन करने वाले वैज्ञानिक बताते हैं कि उन्होंने सामान्य मानसून और असामान्य प्रचंड बारिश की घटनाओं के बीच भेद को पहचानना शुरू कर दिया है। उल्लेखनीय है कि मौसम को अस्थिर और अविश्वसनीय माना जाता है। इसके बावजूद वैज्ञानिक इस परिवर्तन को देख पा रहे हैं।
इस तथ्य ने मसले को और भी जटिल बना दिया है कि अनेक कारकों ने मौसम को प्रभावित किया है और कई अन्य कारकों ने इसकी उग्रता और प्रभाव पर असर डाला है। अन्य शब्दों में कहा जाये तो सूखा और बाढ़ जैसी प्रचंड दशाओं के कारण होने वाली तबाही का मसला जटिल है और इसमें स्त्रोतों का कुप्रबंधन और कमजोर योजना शामिल है। जम्मू-कश्मीर में आई बाढ़ वहां पर हुई अप्रत्याशित भारी बारिश के चलते हुई। गलत प्रबंधन के चलते हमने बाढ़ क्षेत्र की ड्रेनेज प्रणाली को खत्म कर दिया। हमने नदी के कोप को रोकने के लिए तटबंध बना दिए। लेकिन वह भी कारगर न साबित हुआ। सबसे खराब स्थिति तो यह हुई कि इंसानी लोभ ने बाढ़ क्षेत्र में बस्तियां बसा लीं। शहरी भारत को ड्रेनेज का भान ही नहीं रहा। बाढ़ के पानी को निकालने वाला सिस्टम या तो बंद है या फिर है ही नहीं। हमारे ताल-तलैयों और पोखरों पर रियल इस्टेट का कब्जा हो चुका है। ऐसे हालात में अगर अप्रत्याशित बारिश होती है तो शहर डूबने लगता है। यही जम्मू-कश्मीर में भी हुआ है। बाढ़ नियंत्रण के परंपरागत तरीके से हम हिमालय के पानी को झीलों और परस्पर जुड़े जल स्रोतों के माध्यम से नियंत्रित करते थे। श्रीनगर की डल और नगीन झीलें महज सौंदर्य स्थल नहीं हैं बल्कि शहर के सोख्ते की तरह हैं। बड़े इलाके का पानी इन परस्पर जुड़ी झीलों में आकर एकत्र होता था। प्रत्येक झील में जमाव से अधिक पानी के बहने या निकलने की व्यवस्था थी, लेकिन समय के साथ हम ड्रेनेज की कला भूल गए। अब हमें जमीन केवल मकानों के लिए दिखाई देती है पानी के लिए नहीं। श्रीनगर के निचले इलाकों में आवासीय भवन बना दिए गए। बाढ़ के पानी के निकलने वाले स्थान अतिक्रमण के भेंट चढ़ गए या फिर उपेक्षित पड़े रहे। ऐसे में जलवायु परिवर्तन के चलते हुई मौसम की अति सक्रिय दशाओं में वृद्धि के तहत जब भारी बारिश होती है तो पानी के निकलने का कोई स्थान नहीं बचता है। लिहाजा बाढ़ और विनाश अवश्यंभावी हो जाते हैं। इससे दोहरा संकट खड़ा हो जाता है। एक तरफ तो जलीय स्त्रोतों के कुप्रबंधन के कारण बाढ़ और सूखे की तीव्रता बढ़ती है। दूसरी तरफ जलवायु परिवर्तन के कारण प्रचंड मौसम की बढ़ती आवृत्ति ने देश में संकट को बढ़ाया है।
भारतीय जानते हैं कि मौसम उनका वास्तविक वित्त मंत्री है। स्पष्ट है कि इस अवसर के जरिये बारिश की हर बूंद का पैदावार और लंबे सूखे सीजन के लिए उपयोग किया जा सकता है। लेकिन इस तरह की बारिश अधिक उग्र घटना के रूप में सामने आती है। इसके लिए हमें तैयार रहने की जरूरत है। बारिश को चैनलीकृत और प्रबंधन राष्ट्र का मिशन होना चाहिए। यह भविष्य के लिए हमारा एकमात्र रास्ता है। इसका आशय है कि हर जल निकाय, चैनल और जलग्रहण की सुरक्षा की जानी चाहिए। आधुनिक भारत के ये मंदिर हैं। बारिश की पूजा करने के लिए इनको बनाया गया है।
जल स्रोतों, झीलों के किनारों और ड्रेनेज चैनल के अंधाधुंध कंक्रीटीकरण रोक करके हम अपने शहरों को भयावह बाढ़ से बचा सकते हैं।
घटना: बात जुलाई, 2005 की है। मुंबई को प्रकृति से छेड़छाड़ का बड़ा खामियाजा चुकाना पड़ा। 24 घंटे में 900 मिमी से अधिक बारिश हुई। 450 से अधिक लोग मारे गए। बुखार, डेंगू, डायरिया और कालरा का प्रकोप बढ़ा।
वजह: 1925 में शहर का 60 फीसद रकबा कृषि और जंगलों के लिए था। 1990 में यह क्षेत्रफल आधा हो गया। मानसून की बारिश के पानी को बहाकर अपने साथ ले जाने वाली पूरे शहर में फैली छह धाराएं और उनके बेसिनों पर सड़कें, भवन और झुग्गियां खड़ी हो गई। शहर में एक मीठी नदी हुआ करती थी, 2002-03 के एनवायरमेंटल स्टेटस रिपोर्ट में इसका जिक्र बाढ़ के पानी को निकालने वाले नाले के रूप में किया गया है। अशोधित सीवेज और कचरे ने इसका मार्ग अवरुद्ध किया हुआ है। लिहाजा शहर बार-बार लाचार हो रहा है।
1960 में इस शहर में 262 झीलें थीं लेकिन आज इनमें से केवल दस में पानी है। इस शहर में दोनों तरह की अपस्ट्रीम और डाउनस्ट्रीम झीलें थीं। अपस्ट्रीम झीलें डाउनस्ट्रीम झीलों को विभिन्न वालों द्वारा बाढ़ के पानी से समृद्ध करती थीं। अब अधिकांश नालों का अतिक्रमण हो चुका है। लिहाजा अपस्ट्रीम झीलों के लिए अतिरिक्त पानी की निकासी बंद होने के चलते शहर में बाढ़ के हालात पैदा हो रहे हैं।
यह शहर अपने जल निकायों को तेजी से खो रहा है। 1989 और 2001 के बीच जल निकायों का 3245 हेक्टेयर रकबा खत्म हो गया। यह क्षेत्रफल जल की प्रमुख जल संरचना हुसैन सागर से दस गुना अधिक है। शहर की प्रमुख नदी मुसी का बाढ़ क्षेत्र अतिक्रमण का शिकार हो चला है।
पहाड़ियों से आने वाला बारिश का पानी उनकी तलहटी में स्थित तालाबों में एकत्र होता है। तेजी से हो रहे अतिक्रमण ने ऐसे तालाबों और उन्हें भरने वाले रास्तों को नष्ट कर दिया। लिहाजा बाढ़ यहां की एक स्थायी समस्या हो चुकी है। यहां केवल अतिक्रमण समस्या नहीं है बल्कि नदियों और जल निकायों का कुप्रबंधन भी इसमें शामिल होकर इसे भयावह बना रहा है। कूड़े-कचरे से यहां के पानी के निकास द्वार और जल निकाय पट रहे हैं। 2000 के बाद शुरू हुए अनियोजित तेज शहरीकरण ने झीलों के आसपास की जमीन पर कॉलोनियां बसा दी हैं। कैचमेंट क्षेत्र से जंगल काटकर उन्हें दोयम दर्जे का बनाया जा रहा है लिहाजा कैचमेंट में बालू का तेज जमाव हो रहा है।
विशेषज्ञों के अनुसार शहरों के जल निकाय जमीनी मालिकाना वाली कई एजेंसियों के अधीन होती हैं। इनमें राजस्व विभाग, मत्स्य विभाग, शहरी विकास विभाग, सार्वजनिक निर्माण विभाग, म्युनिसिपालिटी और पंचायतें आदि शामिल होते हैं। ये विभाग इन जल निकायों को खा जाते हैं और अपने इस कारनामे को भू उपयोग में बदलाव लाकर अंजाम देते हैं। चूंकि ज्यादातर जल निकाय सूखे होते हैं लिहाजा उनका अतिक्रमण ज्यादा आसान होता है। उनके सूखने के पीछे का मर्म यह है कि जल निकाय और उनका कैचमेंट एरिया दो विभागों के अधीन आता है। लिहाजा हितों के परस्पर टकराव के चलते जल निकाय का रखरखाव मुश्किल होता है और वे सूख जाते हैं।
अनुच्छेद 48 ए कहता है, 'राज्य पर्यावरण को सुरक्षित रखते हुए उसमें सुधार की कोशिश करे और देश के समस्त जीव-जंतुओं और जंगलों को सुरक्षा प्रदान करे।
51 ए अनुच्छेद में कहा गया है, 'प्रत्येक नागरिक का यह मूल कर्तव्य है कि वह जंगलों, झीलों, नदियों और वन्य जीवों समेत प्राकृतिक पर्यावरण की रक्षा करें और उनमें सुधार करे। सभी सजीवों के प्रति उसमें करुणा, सहानुभूति का भाव होना चाहिए।
इस दिशा में गुवाहाटी और कोलकाता ने कदम उठाए हैं। गुवाहाटी में राच्य सरकार ने एक कानून बनाकर वेट लैंड्स और उसके इर्द-गिर्द की जमीन को सुरक्षित रखने का प्रयास कर रही है। इसी आशय के कानून कोलकाता, केरल और आंध्र प्रदेश सरकार ने भी बना रखे हैं।
प्रकृति का प्रतिकार
Sun, 14 Sep 2014
जम्मू-कश्मीर में आई भयावह बाढ़ ने एक बार फिर इंसान और प्रकृति के रिश्ते की कलई खोल दी है। हम इसकी पीड़ा भले ही कुदरत का कहर जैसे तमाम भाव प्रवण शीर्षकों से व्यक्त करें, लेकिन हकीकत इससे जुदा है। दरअसल सालों से प्रकृति पर इंसानी कहर का यह खामियाजा है। जम्मू-कश्मीर के संदर्भ में झेलम नदी जब उफनाई तो उसके पानी को निकलने का रास्ता नहीं मिला। झेलम नदी का करीब आधा बेसिन अवैध निर्माणों की भेंट चढ़ चुका है। लिहाजा भारी बरसात के पानी को निकलने की जगह नहीं मिली। यह किसी एक नदी या शहर की दास्तां नहीं है। देश की करीब हर नदियां अवैध अतिक्रमण के चलते सिकुड़ती जा रही हैं। उनका बहाव क्षेत्र कम होता जा रहा है। ऐसे में जब कभी भारी बारिश की स्थिति आती है तो उनके बहाव क्षेत्र में बसी कालोनियां पानी का शिकार बनती हैं। ऐसे में सवाल यह उठता है कि नदी के बहाव क्षेत्र में निर्माण कार्य शुरू कैसे हो पाता है। शासन-प्रशासन कहां रहता है? दरअसल यह निर्माण कार्य सबकी जानकारी में होता है और ऊपर से लेकर नीचे तक सबकी इसमें मिलीभगत होती है। चाहे, टाउन प्लानर हो, चाहे इंजीनियर हो, चाहे म्युनिसिपालिटी हो, सबके आंख के सामने यह गोरखधंधा चलता रहता है। वोट बैंक की राजनीति के चलते किसी न किसी राजनेता या राजनीतिक दल का इस अनैतिक और अवैध निर्माण कार्य को समर्थन प्राप्त होता है। जब बस्ती बस जाती है तो ये एजेंसियां खानापूरी करने के लिए हरकत में आती हैं। उसको तोड़ने के दिखावटी प्रयास शुरू होते हैं तो व्यापक हितधारक लोग अनशन और आंदोलन शुरू कर देते हैं। इसमें भी राजनीतिक दल अपनी राजनीतिक गोटियां सेंकते हैं। लिहाजा कार्रवाई अमला बैरंग वापस लौट जाता है।
श्रीनगर को पूर्व का वेनिस कहा जाता रहा है। इस तुलना के पीछे मूल कारण यह है कि झेलम नदी की छोटी-छोटी शाखाओं का एक पूरा नेटवर्क श्रीनगर शहर में फैला हुआ है। यह नेटवर्क विभिन्न झीलों और जल निकायों को आपस में जोड़ता है। समय के साथ इनमें कुछ चैनेल्स बंद हो गए और उनमें जलधारण करने की क्षमता कम हो गई। इनमें से एक है नुल्ला मार। अब यह खनयार से लेकर छत्ताबल तक दुकानों की एक कतार में तब्दील हो चुका है। मुख्य नदी को डल झील और छोटे-छोटे जल निकायों से जोड़ने वाला यह सबसे बड़े चैनल में से एक है। झेलम नदी में आए अतिरिक्त पानी के निकासी का यह मुख्य द्वार की तरह था। 1975 में शेख मुहम्मद अब्दुल्ला के सत्ता में आने के बाद इसको भरकर इसे सड़क में तब्दील कर दिया गया। तमाम शहर आज भी बाढ़ के चपेट में नहीं आते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि वहां का ड्रेनेज सिस्टम आज भी चालू है। हां, यह बात और है कि उन पुराने शहरों के अंग्रेजों ने बनवाया था। उन्हें किसी वोट बैंक की लालच नहीं थी लिहाजा उन्होंने अपने अनुसार शहर की हर आपातकाल व्यवस्थाओं का पुख्ता इंतजाम किया था।
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स्वर्ग में सैलाब
Sun, 14 Sep 2014
जम्मू कश्मीर में आई भयावह बाढ़ प्रकृति को ठेंगे पर रखने वाले हमारे अड़ियल रवैये का प्रतिकार है। अब कुदरत का इंसान से यह बदला दोतरफा हो चला है। एक तो प्रकृति के अति दोहन और उसको खत्म करने वाले रुख ने ग्लोबल वार्मिग की समस्या को जन्म दे दिया है। दूसरी तरफ हम प्रकृति के अपने परंपरागत संबंधों को भूल चले हैं। ग्लोबल वार्मिग की समस्या के चलते मौसम की अति सक्रिय दशाओं की आवृत्तिमें वृद्धि हुई है वहीं कुदरत को छेड़ने में कोई कसर नहीं किया जाता है। नदियों, झीलों, तालाबों को हम बिसारते जा रहे हैं। उनके बहाव क्षेत्र में जाकर हम अपना आशियाना बना रहे हैं। अनियोजित शहरीकरण और अतिक्रमण हमारा जन्मसिद्ध अधिकार बन चुका है। बाढ़ प्रबंधन के हम अपने परंपरागत ज्ञान को बिसार चुके हैं। पहले हम झीलों और संबद्ध जल निकायों द्वारा बाढ़ के पानी पर नियंत्रण रखते थे। अब न वह स्रोत रहे और न ही वह सोच। आपात स्थितियों के लिए हमारी तैयारी और पूर्व सूचना का तंत्र माशाअल्लाह है। लिहाजा बाढ़ और कुदरत का कहर स्वाभाविक हो चला है। ऐसे में धरती के स्वर्ग कहे जाने वाले जम्मू-कश्मीर में आई जल प्रलय के निहितार्थ की पड़ताल और उससे लिए जा सकने वाले सबक हम सबके लिए बड़ा मुद्दा है।
जनमत
क्या जम्मू-कश्मीर में आई भयावह बाढ़ कुदरत से इंसानी छेड़छाड़ का नतीजा है?
हां 90 फीसद
नहीं 10 फीसद
क्या प्रकृति से इंसान के टूटते सहज संबंधों के चलते प्राकृतिक आपदाओं की संख्या बढ़ी है?
हां 92 फीसद
नहीं 8 फीसद
आपकी आवाज
सड़के चौड़ी करने के लिए वनों को काटा जा रहा है। आज जम्मू और उत्ताराखंड में आई आपदाएं इसी का दुष्परिणाम हैं। - अंजनि कुमार श्रीवास्तव
यह आपदा विनाश का संक्षिप्त रूप है, प्रकृति आपदाओं से छेड़छाड़ इससे भी भयावह रूप ले सकती है। -अभय प्रताप
मानव द्वारा प्रकृति की घोर उपेक्षा ही विश्वभर में अचानक टूटी आपदाओं का कारण है। साथ ही इंसान के नित नए रोग और सामाजिक व मानसिक विकृतियां भी प्रकृति से उसके टूटते संबंधों का परिणाम है। -मीमधुराजा@जीमेल.कॉम
जब इंसान वृक्षों की जगह कंक्रीट के जंगल बनाएगा तो ऐसी विनाशकारी लीलाएं दिखती ही रहेंगी। - इकराम 707@जीमेल.काम
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समान कारण से उपजे हालात
Sun, 14 Sep 2014
बाढ़ के कारण: जम्मू और उत्तराखंड दोनों ही घटनाओं के कारण एक जैसे हैं। कैचमेंट के जंगलों का कटना, नदी के किनारों का अतिक्रमण, झीलों का अपक्षय, नदी के बहाव में गाद का जमना, इंसानी गतिविधियों के चलते नदी के स्वाभाविक प्रवाह में रोक, जमीन और जंगलों पर आबादी का दबाव।
चेतावनी: दोनों ही राज्यों में मौसम विभाग ने अपने पूर्वाकलन में अत्यधिक भारी बारिश की बात कही, लेकिन लोगों तक यह सूचना पहुंचाने की कोई प्रणाली नहीं।
पिछले दस सालों के दौरान भारत में अनेकों बार कुदरत ने अपना भयावह रूप दिखाया है। इसमें कोसी की बाढ़ से लेकर मुंबई की बाढ़ तक शामिल हैं। शहरी बाढ़ नई चिंता का विषय बन चुकी है। तमाम आलीशान शहर इसमें डूब जाते हैं। श्रीनगर की बाढ़ भी इसी का एक उदाहरण है। प्रकृति को ताक पर रखकर इंसानी छेड़छाड़ से आने वाली बाढ़ के समान गुणधर्म हैं। बस स्थान और नदी बदल जाती है। पिछले साल उत्तराखंड त्रासदी और हालिया जम्मू त्रासदी का पेश है तुलनात्मक अध्ययन:
जम्मू-कश्मीर बाढ़ -- उत्तराखंड त्रासदी (2013) 200+ मृतक -- 5700 मृतक अनुमानित
कबमानसूनी सीजन के आखिरी में (2-7 सितंबर) -- मानसून के शुरुआत में (14-17 जून)
भारी बारिशदस जिलों में पांच दिन तक लगातार 300-800 फीसद -- तीन दिन तक लगातार 440 फीसद अधिक बारिश हुई
उफनाई नदियांझेलम, चिनाब और इनकी सहायक नदियां -- अलकनंदा, भगीरथी और इनकी सहायक नदियां
बाढ़ का स्थानश्रीनगर प्रभावित, 1585 मीटर की ऊंचाई -- नदियों के तटीय इलाकों में, 3553 मी ऊंचे केदारनाथ में
तैयारी
2012 में आपदा नीति तैयार की गई लेकिन लागू नहीं हुई। -- आपदा प्राधिकरण का गठन लेकिन कोई योजना नहीं बनी
मुंबई बाढ़ 2005कब: 26 जुलाई
भारी बारिश: 24 घंटे के भीतर 994 मिमी
मारे गए लोग: मुंबई में 500 जबकि राज्य में पांच हजार लोग
लेह में फटा बादलकब: 6 अगस्त, 2010
भारी बारिश: 30 मिनट के भीतर 150-250 मिमी
मारे गए लोग: 255 लोग मारे गए
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सैलाब के सबक
जनसत्ता 12 सितंबर, 2014: जम्मू-कश्मीर में हालांकि बाढ़ का स्तर कुछ कम हुआ है, पर इसी के साथ त्रासदी की तस्वीर भी साफ होने लगी है। करीब तीन सौ लोगों की जान जा चुकी है। बाढ़ से घिरे हजारों लोगों को सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाया जा चुका है, पर लाखों लोग अब भी संकट में फंसे हुए हैं। बेशक सेना और आपदा कार्रवाई बल के जवानों ने मुस्तैदी दिखाई है, पर बचाव और राहत का काम निहायत अनियोजित तरीके से चल रहा है। लोगों को मालूम नहीं कि कहां शिकायत करें, कहां से जानकारी मांगें और राहत कार्य में सहयोग के लिए कहां संपर्क करें। यह स्थिति प्रशासन के भीतर भी है। राज्य का प्रशासनिक तंत्र लुंज-पुंज नजर आता है। स्वाभाविक ही इससे नाराजगी फैली है। मदद न पहुंचने से खफा लोगों ने मुख्यमंत्री आवास के अलावा कहीं-कहीं बचाव दल पर भी पथराव किए हैं। जम्मू-कश्मीर में यों भी राज्यतंत्र पर किसी हद तक अविश्वास का भाव दशकों से बना रहा है। लोगों में आक्रोश को देखते हुए यह आशंका जताई जा रही है कि बाढ़ का पानी उतरने के बाद कहीं कानून-व्यवस्था की समस्या न खड़ी हो। बहरहाल, संकट की मौजूदा घड़ी में पहला तकाजा यह है कि संचार सेवाएं जल्द से जल्द बहाल की जाएं। दूसरे, बचाव और राहत के अभियान में तालमेल और समन्वय कायम किया जाए।
इस सैलाब ने आपदा प्रबंधन में चली आ रही खामियों की तरफ ध्यान दिलाने के साथ ही पर्यावरण से जुड़े सबक भी दिए हैं। सवा साल पहले उत्तराखंड में आई अपूर्व बाढ़ से जैसी तबाही मची, वह काफी कम होती अगर नदियों के ऐन किनारों तक निर्माण-कार्यों की छूट न दी गई होती। अब एक और हिमालयी राज्य में आई अप्रत्याशित बाढ़ ने भी वैसा ही पाठ पढ़ाया है। नदियों और झीलों के किनारे और उनके आसपास हुए वैध-अवैध निर्माण, अतिक्रमण, तटीय क्षेत्रों को कचरे से पाटने और जंगलों की अंधाधुंध कटाई, पारिस्थितिकी के लिहाज से नाजुक क्षेत्रों में भी खुदाई और भूस्खलन के खतरे वाले इलाकों में भी सड़कें बनाने का सिलसिला लंबे समय से चलता रहा है। लिहाजा, नदियों और झीलों के तट सिकुड़ते गए और बाढ़ के पानी को जज्ब करने की उनकी क्षमता जाती रही। बाढ़ से बचाव के लिए तटबंध बनाए जाते हैं, पर वे हल्की बाढ़ से ही राहत दिला सकते हैं, अप्रत्याशित बाढ़ का मुकाबला नहीं कर सकते। ग्लोबल वार्मिंग के चलते मौसम में तीव्र उतार-चढ़ाव का क्रम बढ़ रहा है। इसे हम जम्मू-कश्मीर से पहले उत्तराखंड और उससे पहले मुंबई, सूरत और बीकानेर में देख चुके हैं। इसलिए झीलों, तालाबों को पाटने, नदियों के किनारे अतिक्रमण और वहां इमारतों के निर्माण का सिलसिला बंद करना होगा।
समस्या यह है कि जब भी ऐसी कोई पहल होती है, जमीन-जायदाद के कारोबारी उसके खिलाफ लामबंद हो जाते हैं। उन्हें राजनीतिकों का साथ मिल जाता है। कभी इसका कारण निहित स्वार्थ होता है, तो कभी तथाकथित विकास का व्यामोह। फलस्वरूप नदियों की बाबत तटीय नियमन अधिनियम की 1982 की अधिसूचना कभी लागू नहीं हो सकी। केंद्रीय जल आयोग की सिफारिशें भी ठंडे बस्ते में डाल दी गर्इं। समुद्र तटीय नियमन कानून को भी, सुनामी के कड़वे अनुभव के बावजूद, लचर बना दिया गया। मोदी सरकार ने वन संरक्षण अधिनियम, 1980 और पर्यावरण रक्षा कानून, 1986 की समीक्षा के लिए एक समिति गठित कर दी है, जो इन कानूनों को कमजोर करने की ही कवायद का संकेत है। यों यह बात हमारे नीति नियामक भी मानते हैं कि मौसम में उग्र बदलाव को ध्यान में रख कर नीतियां और योजनाएं बनाई जाएं। पर इस तकाजे को जब अमली जामा पहनाने का सवाल आता है तो वे उलट रुख अपनाते हैं। उत्तराखंड और अब जम्मू-कश्मीर की त्रासदी से सबक सीखने को वे कब तैयार होंगे!
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कश्मीर की राष्ट्रीय चिंता
Mon, 15 Sep 2014
जम्मू-कश्मीर में बाढ़ के संदर्भ में राजनेताओं द्वारा जिस तरह एक-दूसरे पर दोषारोपण देखने को मिल रहा है वह बहुत ही खराब किस्म की राजनीति है। एक प्राकृतिक आपदा पर इस तरह राजनीति नहीं होनी चाहिए। अभी भी जम्मू-कश्मीर में आबादी के बीच घुसे पानी से पूरी तरह निजात नहीं मिली है, लेकिन राजनीतिक दल सामान्य दोषारोपण से कहीं आगे बढ़ते हुए अधिक तीव्रता से एक-दूसरे के खिलाफ मुखर होते दिख रहे हैं। यदि आप समाचार चैनलों और दूसरे अन्य मीडिया माध्यमों पर नजर डालें तो आप पाएंगे कि यह सब किस दिशा में चल रहा है। राजनीतिक अलगाव अथवा विभेद की बातें प्रमुखता पा रही हैं। वैसे यह राहतकारी है कि एक बार फिर भारतीय सेना के बारे में यह राय सर्वसम्मति से बनती दिख रही है कि सेना ने पूरे मनोयोग से लोगों का साथ दिया है और उनकी मदद की है। इसने प्रभावित लोगों और परिवारों के लिए शुरुआत में ही राहत कायरें को आरंभ कर दिया और फंसे हुए लोगों को निकालने अथवा घर खाली करने में काफी मदद दी। लोगों ने उसके कामों की काफी सराहना की। इस संदर्भ में लोगों की यह शिकायत भी समझ में आने लायक है कि सेना के प्रयासों को समर्थन और सहयोग देने में जम्मू-कश्मीर सरकार नाकाम साबित हुई। वह अस्थायी राहत कैंपों को लगाने और राशन मुहैया कराने के मामले में भी असफल साबित हुई।
जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने तर्क दिया कि वह नागरिक प्रशासन के ढहने से कुछ भी कर पाने में असमर्थ रहे, क्योंकि बाढ़ के कारण श्रीनगर में भी जनजीवन प्रभावित हुआ। इस बात में कुछ दम हो सकता है, लेकिन यह दावा किया जाना कि राज्य मशीनरी अपने परिवार वालों के बचाव में व्यस्त होने के कारण व्यापक जनसमुदाय की मदद नहीं कर सकी, ठीक बात नहीं। नि:संदेह जम्मू-कश्मीर की नेशनल कांफ्रेंस और कांग्रेस सरकार अपनी व्यापक विफलता के लिए इसे ढाल नहीं बना सकती। कुल मिलाकर यह कहने में कुछ भी गलत नहीं कि बाढ़ के साथ ही यह आधुनिक राज्य भी ढह गया।
ब्रिटिश शासनकाल में, मानवीय और प्राकृतिक दोनों ही तरह की आपदाओं से निपटने और राहत कार्य में बहुत सारी खामियां होती थीं। उस समय पीड़ित लोगों को मदद मिले ही, ऐसा अनिवार्य नहीं था, क्योंकि सभी औपनिवेशिक प्रशासन प्राय: निष्ठुर और लोगों का खून चूसने वाले होते थे। सच्चाई यह भी है कि उनमें से तमाम लोगों ने गरीबों के प्रति दयालुता दर्शाते हुए क्रिश्चियन चैरिटी अथवा परोपकार के तहत मानवीय भावना के दृष्टांत भी पेश किए। हालांकि समस्या यही थी कि औपनिवेशिक राज्यों ने कभी भी खुद को विकास एजेंसी के रूप में न देखा, न पेश किया। इनका मुख्य काम कानून और व्यवस्था को बनाए रखना था। प्रारंभिक स्तर पर लोगों को थोड़ा बहुत न्याय दिलाना तथा राजस्व का संग्रह करना इनका लक्ष्य होता था। परिणामस्वरूप इनकी लंबी भुजाएं कभी भी भारत के आंतरिक हिस्सों तक नहीं पहुंच सकीं। बहुत कुछ हुआ तो बाढ़, अकाल और भूकंप की ऐसी ही स्थितियों में कुछ कैंप लग जाते थे और स्वास्थ्य विभाग की तरफ से कुछ अधिकारी महामारी की रोकथाम में जुट जाते थे और बाकी का काम चैरिटी संगठनों के सहारे छोड़ दिया जाता था।
यदि मीडिया रपटों पर गौर करें तो पाएंगे कि राज्य सरकार बहुत कुछ औपनिवेशिक राज्यों की तरह व्यवहार करती दिखी। यह जम्मू एवं कश्मीर की शासन प्रणाली पर एक सवालिया निशान है, जो बताती है कि 1948 के बाद राज्य सरकार ने अपनी व्यापक जिम्मेदारियों को पूरा नहीं किया है। घाटी में स्थिति यह है कि राज्य पुलिस कहीं भी नजर नहीं आ रही है और वह अपने परिवारों की देखभाल अथवा उन्हें बचाने और सुरक्षा देने में व्यस्त है। प्राकृतिक आपदा की स्थिति में भी वहां किसी का न होना भारत के लिए सर्वाधिक संकटपूर्ण बात है। भारत के इस सबसे महत्वपूर्ण सीमावर्ती राज्य में स्थानीय प्रशासन पूरी तरह विफल और पंगु नजर आ रहा है। हम केवल स्थिति की कल्पना कर सकते हैं कि उस समय क्या होगा जब कोई विरोधी शक्ति सीमा पार से राज्य में विध्वंस के लिए प्रवेश करती है। जम्मू-कश्मीर में राज्य मशीनरी का पूर्णतया ध्वस्त हो जाना एक बड़ी समस्या है, जो अब्दुल्ला परिवार की चुनावी किस्मत को भी बुरी तरह प्रभावित करेगी। यह राष्ट्रीय चिंता का विषय है, जिस पर तत्काल और त्वरित गति से ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है। वास्तव में यह हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा का विषय है।
इस उपमहाद्वीप का इतिहास बताता है कि प्राकृतिक आपदाओं से निपटने की अयोग्यता प्राय: बड़े पैमाने पर चुनावी उथल-पुथल का कारण बनती है। 1970 में एक भीषण चक्रवात में पूर्वी पाकिस्तान या कहें वर्तमान बांग्लादेश में को भयानक नुकसान हुआ और इस्लामाबाद स्थित प्रशासन स्थिति को ठीक तरह से संभाल नहीं सका, जिसके परिणामस्वरूप अवामी लीग ने 1971 के चुनावों में सभी सीटों पर जीत दर्ज की। इससे संवैधानिक संकट पैदा हो गया जिस कारण पाकिस्तान का विभाजन हुआ और बांग्लादेश अस्तित्व में आया। मेरा आशय यह नहीं है कि जम्मू-कश्मीर में भी हालात उसी तरह हैं। हालांकि यह भी देखा जाना चाहिए कि अलगाववादी संकट की इस घड़ी में अचानक गायब दिख रहे हैं, लेकिन वह राज्य सरकार की कमजोरी को भारत विरोधी माहौल बनाने के लिए इस्तेमाल कर सकते हैं। जो लोग कह रहे हैं कि घाटी में स्थानीय लोगों की भावनाओं का हर हाल में खयाल रखा जाए, वह वास्तव में यही कह रहे हैं कि धार्मिक-राजनीतिक संगठनों को भ्रष्ट और अक्षम स्थानीय प्रशासन का स्वाभाविक विकल्प बनने दिया जाए। पानी का स्तर जैसे ही घटना शुरू होगा लोग पुनर्निर्माण के काम में जुट जाएंगे। यह सुनिश्चित करना जरूरी है कि अलगाववादियों को भारत के बारे में मनगढं़त कहानियों के माध्यम से हथियारों का प्रसार करने से रोका जाए।
[लेखक स्वप्न दासगुप्ता, वरिष्ठ स्तंभकार हैं]
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प्राकृतिक आपदाएं
Sun, 14 Sep 2014
मौसम विज्ञानियों के अनुसार पिछले 50-60 साल से भारी और बहुत भारी बारिश की घटनाओं में वृद्धि देखी जा रही है। पुणे स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ ट्रॉपिकल मीटिओरोलॉजी के बीएन गोस्वामी का एक अध्ययन बताता है कि 1950 से 2000 के बीच भारी बारिश (प्रतिदिन 100 मिमी से अधिक) और बहुत भारी बारिश (प्रतिदिन 150 मिमी से अधिक) की घटनाएं बढ़ गई हैं जबकि मध्यम बारिश (प्रतिदिन 5-100 मिमी) की घटनाएं कम हो गई है। आइपीसीसी की हालिया रिपोर्ट के अनुसार भारत में बाढ़ और सूखे में वृद्धि हो सकती है। देश में बारिश तो ज्यादा होगी लेकिन बारिश के दिनों की संख्या कम हो जाएगी।
मौसम की अति सक्रिय दशाएं (औसतन सालाना)
1900-09 -- 2.5
1910-19 -- 3.4
1920-29 -- 5.2
1930-39 -- 5.9
1940-49 -- 8.5
1950-59 -- 23.0
1960-69 -- 45.6
1970-79 -- 71.3
1980-89 -- 140.8
1990-99 -- 224.1
2000-10 -- 350.4