Monday 27 October 2014

वन




घटते वन, बढ़ते खतरे

Sat, 04 Oct 2014 

वनों के अंधाधुंध क्षरण और प्राकृतवास में बढ़ते मानव दखल से परेशान वन्यजीवों ने अपना रुख गांवों, कस्बों और शहरों की ओर कर दिया है। इन दिनों बुलंदशहर के निकट बाघ दिखने से हड़कंप मचा है। लाउडस्पीकरों से सतर्क रहने की चेतावनी दी जा रही है। यह पहला मामला नहीं है जब वन्यजीवों ने प्राकृतवास छोड़कर गांवों और शहरी क्षेत्रों का रुख किया हो। इसके पहले राजधानी लखनऊ सहित तमाम इलाकों में इस प्रकार की घटनाएं होती रही हैं। तेजी से घटते जंगलों के कारण चार साल में लगभग तीन दर्जन लोग वन्यजीवों के शिकार बने हैं। ऐसे में विचारणीय है कि आखिर इसके लिए जिम्मेदार कौन है? एक रिपोर्ट के अनुसार कुछ वषरें में प्रदेश में सैकड़ों वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र कम हो चुका है। जंगलों में जल संरक्षण के लिए सरकार लाखों रुपये हर साल खर्च करती है। बावजूद इसके जंगलों में पानी का संकट बना रहता है। जंगली जानवर पानी की तलाश में भी कई बार जंगल छोड़ कर भागते हैं। जंगली जानवरों और मानव में टकराव का एक और बड़ा कारण है। प्रदेश में गन्ने की खेती बहुतायत में होती है। बाघ और तेंदुए ऊंची घास में छिपकर रहना पसंद करते हैं। ऐसे में गन्ने के खेत उन्हें प्राकृतवास सरीखे लगते हैं। गन्ने के खेतों में छिपे वन्यजीवों को बस भोजन के लिए ही बाहर आना पड़ता है और तभी उन्हें टकराव का सामना करना पड़ता है। इस टकराव में वन्यजीव भी मारे जाते हैं और मानव भी। यह वातावरण तेंदुओं को ज्यादा रास आ रहा है। कुछ वषरें में दुधवा नेशनल पार्क, कतर्नियाघाट वन्यजीव अभ्यारण्य, सोहेलवा, हस्तिनापुर सेंचुरी सहित अन्य वन्य क्षेत्रों में सर्वाधिक टकराव की घटनाएं तेंदुए और मानव में ही हुई हैं। तमाम जानें भी गईं। जिस तेजी से वनों की तरफ आबादी बढ़ रही है उससे जंगली जीवों के अस्तित्व पर खतरा बढ़ा है। भारत की लगभग 1400 किलोमीटर सीमा नेपाल से सटी है। 1975 से पूर्व सीमा के दोनों ओर घने और विशाल वनक्षेत्र थे, जिससे वन्य-पशुओं का आवागमन निर्बाध रूप से होता था। अब इस क्षेत्र में भी वनों का काफी क्षरण हो चुका है, जिससे वन्यजीवों का भोजन और विचरण क्षेत्र घटा है। जरूरत आज के परिवेश में वन नीति बनाने की है। उम्मीद की जानी चाहिए कि सरकार कारगर वन नीति बनाएगी, जिससे वन्यजीवों और मानव दोनों सुरक्षित रह सकें।
(स्थानीय संपादकीय: उत्तर प्रदेश)
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तट के वन

जनसत्ता 7 अक्तूबर, 2014: पर्यावरणविद बहुत पहले से समुद्रतटीय वनों के संरक्षण के लिए आवाज उठाते रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र की एक ताजा रिपोर्ट ने भी ऐसे वनों की हालत को लेकर चिंता जताते हुए उन्हें बचाने का आह्वान किया है। यों सब तरह के जंगल तेजी से कटे हैं, पर यह रिपोर्ट बताती है कि मैंग्रोव वनों के नष्ट होने की रफ्तार कहीं ज्यादा रही है। सामान्य वनक्षेत्रों की तुलना में तटीय वन तीन से पांच गुना ज्यादा तेजी से कट रहे हैं। इस रिपोर्ट की अहमियत इसलिए और बढ़ जाती है, क्योंकि ग्लोबल वार्मिंग के चलते समुद्र का दायरा बढ़ने का अंदेशा जताया जा रहा है। मैंग्रोव वन समुद्र और थल के बीच बफर क्षेत्र का काम करते हैं। वे समुद्री भूकम्प या चक्रवात के समय रक्षक की भूमिका निभाते हैं; उनकी मौजूदगी ऐसी आपदा का असर कम कर देती है। इंडोनेशिया, श्रीलंका, भारत में आई सुनामी के जिन इलाकों में मैंग्रोव वन बचे हुए थे, वहां लहरों का कहर कम रहा। ये वन प्राकृतिक आपदा में प्रहरी का काम तो करते ही हैं, हमेशा से तटीय आबादी के लिए र्इंधन के स्रोत और आजीविका का सहारा भी साबित हुए हैं। इसके साथ ही ये जंगल जलीय और स्थलीय, दोनों तरह की बहुत-सी जीव-प्रजातियों के आश्रय भी रहे हैं। लेकिन इनके अनियंत्रित दोहन ने तटीय आबादी के साथ ही बहुत-सी वन्य प्रजातियों के लिए भी खतरा पैदा कर दिया है। अगर यही सिलसिला जारी रहा, तो संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट कहती है कि अगले सात-आठ दशक में मैंग्रोव नाममात्र को बचेंगे। यों इस रिपोर्ट ने होने वाले नुकसान का आर्थिक हिसाब भी लगाया है, पर ज्यादा बड़ा सवाल पारिस्थितिकी के क्षरण का है, जिसकी भरपाई नहीं की जा सकती।
भारत पहले ही इस मामले में बहुत कुछ खो चुका है। खुद एक सरकारी अध्ययन के मुताबिक पिछली शताब्दी में देश का मैंग्रोव आवरण चालीस फीसद कम हो गया। भारत के मैंग्रोव वन मुख्य रूप से इसके पश्चिमी और पूर्वी समुद्रतटीय क्षेत्रों और अंडमान एवं निकोबार में हैं। लेकिन इन्हें गंवाने की गति का अंदाजा इस एक तथ्य से लगाया जा सकता है कि 1987 से 1997 के बीच, एक दशक में अंडमान एवं निकोबार में बाईस हजार चार सौ हेक्टेयर मैंग्रोव वन नष्ट हो गए। यह सब कुदरती तौर पर नहीं, अंधाधुंध दोहन के चलते हुआ है। यही हाल सुंदरबन का भी है, जिसका एक हिस्सा भारत में आता है और बाकी बांग्लादेश में। वहां के मैंग्रोव वनों के भविष्य की कीमत पर बांग्लादेश ने तेरह सौ मेगावाट की बिजली परियोजना स्थापित की। दुनिया भर के पर्यावरणविदों की चेतावनी पर आखिरकार अमेरिका और विश्व बैंक ने उस परियोजना की वित्तीय मदद से हाथ खींच लिए। भारत में तटीय वनों के संरक्षण के मकसद से 1976 में पर्यावरण मंत्रालय के तहत राष्ट्रीय मैंग्रोव समिति गठित हुई थी। फिर मैंग्रोव वनों के सर्वेक्षण, सीमांकन जैसेकाम हुए।
पर समिति की ज्यादातर सिफारिशें ठंडे बस्ते में डाल दी गर्इं। सुनामी के कड़वे अनुभव के बावजूद तटीय जंगलों को बचाने की कोई कारगर योजना नहीं दिखती, उलटे पर्यटन को बढ़ावा देने के नाम पर समुद्रतटीय नियमन कानून को और नरम बना दिया गया। पर्यावरणीय तकाजों की अनदेखी करते हुए नदियों के किनारे भी अतिक्रमण और बेजा निर्माण का सिलसिला चलता रहा है, जिसका भयावह नतीजा पिछले साल उत्तराखंड में और हाल में जम्मू-कश्मीर में हम देख चुके हैं। संयुक्त राष्ट्र की ताजा रिपोर्ट एक गंभीर चेतावनी है, जिसे अनसुना नहीं किया जाना चाहिए।


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