Monday 27 October 2014

औद्योगिक प्रदूषण




प्रदूषण की नई चुनौती

Wed, 22 Oct 2014

लंबे समय से प्रदूषण की समस्या से जूझ रहे उत्तर प्रदेश के सोनभद्र जिले में सिंगरौली क्षेत्र के लोगों के लिए अंतत: अब जाकर थोड़ी बहुत राहत मिलने की उम्मीद जगी है। यहां पर बड़ी तादाद में निजी और सार्वजनिक क्षेत्र की औद्योगिक इकाइयां तथा विद्युत पैदा करने वाले उद्योगों का समूह है। यह इलाका देश में सर्वाधिक विद्युत उत्पादन और खनन वाले क्षेत्रों में शुमार है। कुछ आकलन के अनुसार जहरीले मरकरी अथवा पारा का उत्सर्जन करने वाले देश के उद्योगों में 17 प्रतिशत उत्सर्जन केवल इस इलाके से होता है। स्थानीय आबादी को लेकर किए गए आधिकारिक और गैर-आधिकारिक, दोनों ही तरह के अध्ययनों से पता चलता है कि यहां के लोगों के खून में मरकरी का स्तर बहुत अधिक है। इसी तरह उनके बालों में भी इसका प्रभाव नजर आता है और इसके चलते उनके स्वास्थ्य में कई तरह की विसंगितयां उत्पन्न हो रही हैं। इस तरह के प्रदूषण से होने वाली बीमारी विशेषकर श्वांस संबंधी होती है।
दिसंबर 2009 में आइआइटी, दिल्ली और पर्यावरण तथा वन मंत्रालय के केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने संयुक्त अध्ययन के बाद घोषित किया कि सिंगरौली क्षेत्र देश के 43 सबसे अधिक प्रदूषित औद्योगिक क्षेत्रों के शीर्ष क्त्रम में शुमार है। इस गंभीर समस्या को देखते हुए निर्णय किया गया कि सफाई-स्वच्छता की विश्वसनीय योजना पर क्रियान्वयन किए बिना इस क्षेत्र का और अधिक विस्तार नहीं किया जाएगा। इस प्रतिबंध को एक एक्शन प्लान के आधार पर हटा लिया गया। लेकिन यह बात अलग है कि जिस एक्शन प्लान के आधार पर इस प्रतिबंध को हटाया गया वह कभी फलीभूत नहीं हो सका। यहां मरकरी के उच्च प्रदूषण की समस्या आज भी बरकरार है। मरकरी मानव स्वास्थ्य के लिए बेहद हानिकारक है। यही कारण है कि पिछले माह ही भारत अंतत: मिनामाटा कन्वेंशन ऑन मरकरी पर हस्ताक्षर करने को राजी हुआ। इस समझौते को पूर्ण रूप लेने में तकरीबन छह वषरें का समय लगा और इसका नामकरण एक जापानी शहर के आधार पर किया गया जो 1950 से ही घातक मरकरी के प्रदूषण और इसके जहरीलेपन का पर्याय रहा है। मरकरी प्रदूषण विभिन्न प्रकार के स्नोतों अथवा माध्यमों से बढ़ता है। अभी भी मरकरी का खनन कार्य जारी है। हालांकि यह विशेष रूप से चीन और कुछ मध्य एशियाई देशों में होता है। दस्तकारी में इसका बहुतायत में उपयोग होता है और अयस्कों से स्वर्ण कणों को अलग करने के लिए छोटे स्तर पर स्वर्ण खनन के दौरान इसका इस्तेमाल किया जाता है।
मरकरी का इस्तेमाल रासायनिक और पेट्रोरासायनिक उद्योगों में होता है और घरेलू जरूरत की चीजों जैसे सीएफएल और थर्मामीटर आदि में भी इसका इस्तेमाल किया जाता है। जिन संयत्रों में कोयले का इस्तेमाल होता है अथवा उसे जलाया जाता है उससे भी वातावरण में मरकरी का उत्सर्जन होता है। उद्योगों से स्नावित पदाथरें में भी मरकरी की उपस्थिति होती है जो बाद में पानी में फैलता है और नदियों तथा समुद्र तक पहुंचता है। इस प्रकार यह मानव खाद्य पदाथरें में पहुंचता है और मछली के माध्यम से भी हमारे शरीर में पहुंचता है। यही वे कारण हैं जिसने 1950 में जापान के मिनामाटा में एक आपदा का रूप लिया। प्रदूषित स्थलों में पुरानी खदान, अपशिष्ट भरावक्षेत्र तथा कूड़ा फेंकने वाले स्थान शामिल हैं। ये मरकरी प्रदूषण फैलने के महत्वपूर्ण स्नोत हैं। सिंगरौली से इतर बात करें तो तमिलनाडु के कोडाइकनाल हिल स्टेशन पर भी यह बहुत ही चिंता का विषय है। यहां पर थर्मामीटर का निर्माण करने वाले कारखानों की मौजूदगी है। इन कारखानों को पोंड कंपनी ने 1983 में अमेरिका से यहां पर स्थानांतरित किया और बाद में 1998 में हिंदुस्तान लीवर ने इसका अधिग्रहण कर लिया। मार्च 2001 में इस फैक्ट्री को तब बंद किया गया जब राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने इन्हें बंद करने का आदेश दिया। इसके बाद कंपनी ने यह आश्वासन दिया कि वह बंदीकरण के बाद व्यावसायिक सुरक्षा के साथ-साथ उपचारात्मक अन्य मानदंडों का पालन करेगी, लेकिन सिविल सोसायटी के कार्यकर्ताओं समेत कुछ गैर सरकारी संगठन निरंतर इसके खिलाफ संघर्षरत रहे हैं। चार वर्ष बाद दिसंबर 2011 में मद्रास हाईकोर्ट द्वारा गठित विशेषज्ञ समिति ने कंपनी के पक्ष में अपनी रिपोर्ट सौंपी, जबकि केंद्रीय श्रम और रोजगार मंत्रालय ने मद्रास हाईकोर्ट को एक अन्य रिपोर्ट सौंपी जिसमें उसके पूर्व कर्मचारियों ने खुद पर मरकरी के दीर्घकालिक हानिकारक प्रभावों का उल्लेख किया था। यह मामला अभी भी लंबित है।
कोडाइकनाल और सिंगरौली के अतिरिक्त ओडिशा का गंजम एक अन्य क्षेत्र है जहां मरकरी प्रदूषण खतरनाक स्तर पर पहुंच चुका है। इस बारे में कुछ विशेषज्ञों ने इसके खतरनाक पहलुओं पर ध्यान आकर्षित करते हुए बताया है कि भारतीय संदर्भ में मरकरी के संचयन के मामले में कीटनाशकों का प्रयोग सर्वाधिक खतरनाक है। मरकरी के प्रदूषण जिनमें आर्सेनिक, कैडमियम, क्रोमियम और सेलेनियम को भी जोड़ा जा सकता है, का उच्च स्तर पंजाब के भटिंडा जिले में पानी की सतह पर देखा जा सकता है। पंजाब का यह शहर कैंसर संभावना की दृष्टि से खतरनाक क्षेत्र के तौर पर उभरा है। आगामी दशकों में इनका तेजी से विस्तार होना स्वाभाविक है। इन वजहों से यह आवश्यक हो जाता है कि भारत अब कोयला आधारित विद्युत संयत्रों के साथ साथ कोयला खदानों के मामलों में मरकरी उत्सर्जन के मानदंडों का सख्ती से पालन सुनिश्चित करे। इस संदर्भ में मिनामाटा समझौते के तहत भारत के पास पांच वषरें का समय है, जबकि वह इन्हें नियंत्रित करे और नए विद्युत संयत्रों में इनका उत्सर्जन घटाए या कम करे। इस क्रम में मौजूदा विद्युत संयंत्र अधिकतम 10 वषरें तक इनका उत्सर्जन कर सकेंगे। लेकिन हमें इतना अधिक इंतजार करने की आवश्यकता नहीं है। हमें मरकरी रहित तकनीक की ओर अग्रसर होना है और सीएफएल से मरकरी मुक्त एलइडी तकनीक पर जोर देना होगा। मिनामाटा समझौते को लेकर आलोचना की जाती है कि यह एक कानूनी प्रक्त्रिया अधिक है, जो राजनीतिक दृष्टि से बहुत अधिक महत्वपूर्ण है, लेकिन इसके प्रभाव को कम करके नहीं आंका जाना चाहिए।
अंततोगत्वा इस बात की भी आवश्यकता है कि भारत मरकरी के अतिरिक्त विद्युत संयंत्रों से निकलने वाले सल्फर डाइऑक्साइड के उत्सर्जन के मानदंड को भी सख्ती से लागू करने की दिशा में कदम उठाए। भारत एकमात्र बड़ा देश है जिसके पास ऐसे किसी मानदंड का अभाव है। सिंगरौली जैसे स्थानों पर यह स्वास्थ्य संबंधी एक अन्य बड़ी समस्या है। सल्फर डाइऑक्साइड उत्सर्जन के मामले में भारत दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा देश है। इसका एक प्रमुख कारण देश में कोयला आधारित विद्युत उत्पादन की प्रणाली है। तथ्य यही है कि सल्फर डाइऑक्साइड वातावरण में लंबे समय तक बना रहता है। सल्फर डाइऑक्साइड हमारी श्वांस प्रणाली में आसानी से समा जाती है। इस प्रदूषण का हमारे स्वास्थ्य पर हानिकारक प्रभाव पड़ता है, जो दूसरी अन्य गंभीर बीमारियों को जन्म देती है।
[लेखक जयराम रमेश, पूर्व केंद्रीय मंत्री हैं]

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