Friday 26 September 2014

जलवायु परिवर्तन




हम अकालों की तरफ बढ़ रहे हैं  

  Apr 22, 2014

जलवायु परिवर्तन पर नजर रखने वाले संयुक्त राष्ट्र के अंतर सरकारी पैनल (आईपीसीसी) की पिछले दिनों जारी नई रिपोर्ट ने दुनिया भर में खतरे की घंटी बजा दी है। 'जलवायु परिवर्तन 2014: प्रभाव, अनुकूलन और जोखिम' शीर्षक इस रिपोर्ट के अनुसार यों तो जलवायु परिवर्तन का प्रभाव पहले ही सभी महाद्वीपों और महासागरों में फैल चुका है, लेकिन इसके कारण एशिया को बाढ़, गर्मी, सूखा तथा पेयजल से संबंधित गंभीर समस्याएं झेलनी पड़ सकती हैं। कृषि की प्रधानता वाले भारत जैसे देश के लिए यह काफी खतरनाक हो सकता है। जलवायु परिवर्तन की वजह से दक्षिण एशिया में गेहूं की पैदावार पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। वैश्विक खाद्य उत्पादन धीरे-धीरे घट रहा है। एशिया में तटीय और शहरी इलाकों में बाढ़ के चलते बुनियादी ढांचे, आजीविका और बस्तियों को काफी नुकसान हो सकता है। ऐसे में मुंबई, कोलकाता, ढाका जैसे शहरों पर खतरे की आशंका बढ़ सकती है। लोग ज्यादा, खाना कम क्लाइमेट चेंज दुनिया में खाद्यान्नों की पैदावार और आर्थिक समृद्धि को जिस तरह प्रभावित कर रहा है, उससे आने वाले समय में जरूरी चीजें इतनी महंगी हो जाएंगी कि विभिन्न देशों के बीच युद्ध जैसे हालात पैदा हो सकते हैं। यह खतरा उन देशों में ज्यादा होगा जहां कृषि आधारित अर्थव्यवस्था है। पर्यावरण का सवाल जब तक 'तापमान में बढ़ोतरी से मानवता के भविष्य पर खतरा' जैसे अमूर्त रूपों तक सीमित रहा, तब तक विकासशील देशों का इसकी ओर ध्यान नहीं गया। परंतु अब जलवायु चक्र का सीधा असर खाद्यान्न उत्पादन पर पड़ रहा है। किसान तय नहीं कर पा रहे कि कब बुवाई करें और कब फसल काटें। तापमान में बढ़ोतरी जारी रही तो आने वाले 15 सालों में खाद्य उत्पादन 40 प्रतिशत तक घट जाएगा। इससे पूरे विश्व में खाद्यान्नों की भारी कमी हो जाएगी। ऐसी स्थिति वर्ल्ड वार से कम खतरनाक नहीं होगी। एक नई अमेरिकी स्टडी में दावा किया गया है कि तापमान में एक डिग्री तक का इजाफा साल 2030 तक अफ्रीकी सिविल वार के रिस्क को 55 प्रतिशत तक बढ़ा सकता है। दुनिया जिस तरह विकास की दौड़ में अंधी हो रही है, उसे देखकर तो यही लगता है कि आज नहीं तो कल ग्लोबल वार्मिंग मानव सभ्यता के लिए भारी संकट पैदा करने वाली है। प्राकृतिक आपदाएं हमें बार-बार चेतावनी दे रही हैं। लोगों को इस कथित विकास की बेहोशी से जगाने के लिए ही अमेरिकी सीनेटर जेराल्ड नेल्सन द्वारा 22 अप्रैल 1970 से धरती को बचाने की मुहिम पृथ्वी दिवस के रूप में शुरू की गई थी। लेकिन, अभी यह दिवस सिर्फ रस्मी आयोजनों तक सिमट कर रह गया है।
दुनिया भर में पर्यावरण संरक्षण को लेकर काफी बातें, सम्मेलन, सेमिनार आदि हो रहे हैं। लेकिन, इनके निष्कर्षों पर अमल की सूरत बनती दिखाई नहीं देती। केंद्रीय पर्यावरणमंत्री ने 3 साल पहले सभी वाहनों में फ्यूल एफिशंसी स्टैंडर्ड, मॉडल ग्रीन बिल्डिंग कोड और इंडस्ट्रीज के लिए एनर्जी एफिशंसी सर्टिफिकेट आवश्यक करने के लिए ऊर्जा संरक्षण कानून में संशोधन, देश के सभी कोयला आधारित ताप बिजलीघरों में 50 प्रतिशत प्रदूषण रहित कोयले का प्रयोग, वन क्षेत्र संरक्षण के लिए कठोर कदम आदि बातों का जिक्र किया था। परंतु वास्तविकता के धरातल पर इनमें से एक भी पहलू पर ठीक ढंग से काम नहीं हुआ है। हम अपने लक्ष्य से अभी बहुत दूर है। हालांकि यह मुद्दा 2009 में घोषित नैशनल एक्शन प्लान के 8 मिशनों में से एक है। पर्यावरण संबंधी मुद्दों पर सरकार ने अभी तक कोई गंभीर प्रयास नहीं किया। असल में पर्यावरण सरंक्षण का मुद्दा पार्टियों के राजनीतिक अजेंडे में ही नहीं है। देश में लोकसभा के चुनाव चल रहे हैं, लेकिन अधिकांश राजनीतिक दलों ने अपने घोषणापत्र में ऐसे किसी भी मुद्दे को जगह देना जरूरी नहीं समझा। जलवायु परिवर्तन पलायन की बड़ी वजह भी बनने जा रहा है। इंटरनेशनल ऑर्गनाइजेशन फॉर माइग्रेशन ने अनुमान लगाया है कि सन 2050 तक तकरीबन 20 करोड़ लोगों का पलायन जलवायु परिवर्तन की वजह से होगा जबकि उस समय तक दुनिया की आबादी बढ़ कर 9 अरब तक पहुंच जाने का अनुमान है। कितना महंगा विकास पर्यावरण असंतुलन के लिए जनसंख्या वृद्धि उतनी जिम्मेदार नहीं है जितनी उपभोगवादी संस्कृति। यही संस्कृति हर कीमत पर विकास वाली मनोवृत्ति बनाती है। क्या सिर्फ औद्योगिक उत्पादन में बढ़ोतरी कर देने को विकास माना जा सकता है? खासकर तब जब एक बड़ी आबादी को अपनी जिंदगी बीमारी और पलायन में गुजारनी पड़े? आखिर ऐसे विकास का क्या मतलब जो विनाश को आमंत्रित करता हो? ऐसे विकास को क्या कहें जिसकी वजह से संपूर्ण मानवता का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाए? वास्तव में पर्यावरण संरक्षण ऐसा ही है जैसे विपरीत परिस्थितियों में भी अपने जीवन की रक्षा करने का संकल्प। सरकार और समाज के स्तर पर लोगों को पर्यावरण के मुद्दे पर गंभीर होना होगा, नहीं तो सबको प्रकृति का कहर झेलने के लिए तैयार रहना होगा। इसलिए आज और अभी हम संकल्प लें कि पृथ्वी को संरक्षण देने के लिए जो कुछ भी हम कर सकेंगे, वह करेंगे और अपने परिवेश में इस बारे में जागरूकता भी फैलाएंगे।
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पर्यावरण की चिंता

Sat, 13 Sep 2014 

अक्टूबर-नवंबर उत्तर भारत खासकर पंजाब, हरियाणा व दिल्ली के पर्यावरण के लिए दम घोंटने वाला होता है। इसका प्रमुख कारण निस्संदेह खेतों में जलाई जाने वाली पराली की आग ही होती है। इस पर नियंत्रण के लिए गत दिवस राष्ट्रीय ग्रीन ट्रिब्यूनल की ओर से केंद्र को दिया गया आदेश गौरतलब है।
ट्रिब्यूनल ने केंद्र सरकार को एक सप्ताह के भीतर राष्ट्रीय पराली नीति बनाने का आदेश दिया है। ऐसे किसी आदेश की अपेक्षा लंबे समय से की जा रही थी, क्योंकि खेतों में पराली जलाने से रोकने के लिए अभी तक कोई स्पष्ट नीति केंद्र व राज्य सरकारों के पास नहीं है। जिलाधिकारी जरूर हर बार अपने स्तर पर पराली जलाने के खिलाफ धारा 144 का उपयोग करते हुए निषेधाज्ञा जारी करते हैं जिसके तहत पराली जलाने वाले किसानों के विरुद्ध कार्रवाई की जाती है, लेकिन इसमें किसी तरह के कठोर दंड का प्रावधान नहीं है। यही कारण है कि किसान निडर होकर पराली जलाते रहते हैं। हर साल यही क्रम दोहराया जाता है।
खेतों में अवशेष जलाने से लाखों टन जहरीली गैस हवा में घुल जाती है जो कई प्रकार की जानलेवा बीमारियों का कारण बनती है। इतना ही नहीं, कई बार तो पराली के धुएं के कारण सड़क हादसे भी हो चुके हैं जिनमें कई लोगों को जान से हाथ धोना पड़ा है। एक आकलन के अनुसार पंजाब में हर साल औसतन करीब 12 मिलियन टन धान की पराली अक्टूबर-नवंबर के दौरान जलाई जाती है। यह निस्संदेह चिंताजनक स्थिति है। ऐसा नहीं है कि इसका असर मात्र पंजाब तक ही सीमित रहता है। 2012 में तो दिल्ली और उसके आसपास 26 अक्टूबर से 8 नवंबर के बीच धुंध छाए रहने के लिए भी पंजाब और हरियाणा के खेतों में बड़े पैमाने पर खुले में पराली जलाए जाने को ही जिम्मेदार माना गया था। सरकार कृषि अवशेष को खेतों में जलाने से रोकने के लिए कभी पायरोफार्मर के जरिए पराली से तेल व गैस निकालने की योजना बनाती है तो कभी इससे एथनॉल बनाने की कवायद करती है, परंतु परिणाम हर बार वही ढाक के तीन पात वाले ही होते हैं।
ऐसा कदाचित पराली के लिए किसी ठोस नीति के न होने के कारण ही होता है। अब जबकि राष्ट्रीय ग्रीन ट्रिब्यूनल ने इस संबंध में सख्ती की है तो उम्मीद की जानी चाहिए कि इसके सुखद परिणाम सामने आएंगे।
(स्थानीय संपादकीय: पंजाब)
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कमजोर होती जिंदगी की परत

Tue, 16 Sep 2014 

आज के इस वैज्ञानिक युग में हम दिन दोगुनी रात चौगुनी उन्नति कर रहे हैं, परंतु हमें यह भी स्वीकार करना पड़ेगा कि इस प्रगति के साथ-साथ हम अपनी कब्र भी खोदते जा रहे हैं। दुनिया के सभी देशों के सामने जलवायु परिवर्तन, पृथ्वी के बढ़ते तापमान, कहीं पर सूखा तो कहीं पर बाढ़ की समस्या, पिघलते ग्लेशियर, ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन से जुड़े संकट अत्यधिक गहरे हो रहे हैं। इसके फलस्वरूप वातावरण में कार्बन डाई आक्साइड की वृद्धि हो रही है। इन सब के कारण एक विकराल समस्या उत्पन्न हो गई है। जलवायु परिवर्तन का प्रमुख कारण तापमान में हो रही वृद्धि है। पृथ्वी का तापमान लगातार बढ़ रहा है, इस तापमान की वृद्धि को 'ग्लोबल वार्मिंग' का नाम दिया गया है। वास्तव में देखा जाए तो वैश्रि्वक तापमान से उत्पन्न जलवायु परिवर्तन एक सार्वभौमिक विकराल समस्या है। सामान्य शब्दों में कहें तो ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन से पृथ्वी का तापमान निरंतर बढ़ रहा है, यह बढ़ता हुआ तापमान ही जलवायु परिवर्तन के लिए जिम्मेदार है। सूर्य से आने वाली किरणों का लगभग 40 प्रतिशत भाग पृथ्वी तक पहुंचने से पहले ही आकाश में वापस लौट जाता हैं। 15 प्रतिशत वातावरण में अवशोषित हो जाता है। पृथ्वी तक लगभग 45 प्रतिशत ही पहुंचता है। यह किरणें गर्मी के रूप में पृथ्वी से परावर्तित होती हैं। वायुमंडल में पाई जाने वाली कुछ प्रमुख गैसें लघु तरंगी सौर विकिरणों को पृथ्वी के धरातल तक आने देती हैं, परंतु पृथ्वी से निकलने वाली दीर्घ विकिरणों को अवशोषित कर लेती हैं, जिसके कारण वायुमंडल में पृथ्वी का औसत तापमान 35 डिग्री सेल्सियस के इर्द-गिर्द बना रहता है। इस संपूर्ण प्रक्रिया के द्वारा गैसें ऊपरी वायुमंडल में एक ऐसी परत बना लेती हैं, जिसका असर वातावरण में सर्दी व गर्मी से बचाने के लिए बनाई गई ग्रीन हाउस की परत के समान ही होता है। इस संपूर्ण प्रक्रिया को ही हरित गृह प्रभाव कहा जाता है। हरित गृह प्रभाव के लिए कार्बन डाई आक्साइड, सल्फर डाई आक्साइड, जल वाष्प, क्लोरो-फ्लोरो कार्बन, मीथेन, नाइट्रस आक्साइड व ओजोन गैसें उत्तरदायी हैं। इनमें कार्बन डाई आक्साइड प्रमुख गैस है। कार्बन चक्त्र के माध्यम से इसे नियंत्रित किया जा सकता है, परंतु कुछ वषरें से इसकी मात्रा में निरंतर वृद्धि हो रही है, साथ ही वायुमंडल में मीथेन, क्लोरो-फ्लोरो कार्बन की भी निरंतर वृद्धि हो रही है। ग्रीन हाउस गैसों की वृद्धि से वायुमंडल में विकिरणों के अवशोषण करने की क्षमता में लगातार वृद्धि हो रही है। यदि वायुमंडल में ग्रीन हाउस गैसों की लगातार इसी प्रकार वृद्धि होती रही तो पृथ्वी का तापमान बढ़ जाएगा। तापमान में इस वृद्धि को ही ग्लोबल वार्मिंग कहा जाता है। ग्लोबल वार्मिंग के लिए जिम्मेदार कारकों में सबसे प्रमुख हैं ताप बिजलीघर व औद्योगिक इकाइयों से निकलने वाली गर्म हवा और इनके बाद निकलने वाला गर्म पानी। यह गर्म पानी नदियों में मिला दिया जाता है, जिससे नदी के जल का तापमान लगभग 10 डिग्री तक बढ़ जाता है, फलस्वरूप इसमें रहने वाले जलीय जीवों का जीवन संकट में आ जाता है और गर्म हवा वातावरण में विलीन होकर वातावरण को और गर्म कर देती है। पेट्रोलियम पदाथरें की वृद्धि से वातावरण में जहरीली गैसों के स्तर में लगातार वृद्धि हो रही है, जिससे अनेक रोगों की उत्पत्ति हो रही है। उद्योगों, फैक्ट्रियों तथा वाहनों से निकलने वाला धुआं वातावरण को अत्यधिक गर्म कर देता है तथा इन सबसे निकलने वाली कार्बन डाई आक्साइड का प्रतिशत प्रत्येक वर्ष लगभग 40 अरब टन होता है। ओजोन की परत धरती के लिए अत्यंत लाभदायक है। यह सूर्य से आने वाली पराबैंगनी विकिरणों को पृथ्वी पर आने से रोकती है, परंतु कुछ वषरें में यह पता चला है कि ओजोन परत के एक भाग को इस रसायन के कारण काफी क्षति हुई है। इस क्षति के कारण पृथ्वी के तापमान में वृद्धि हुई है। ओजोन गैस ऑक्सीजन के तीन परमाणुओं से मिलकर बनी है। ओजोन गैस की परत सूर्य से पृथ्वी पर आने वाली पराबैंगनी किरणों की कुछ मात्रा अवशोषित करती है जिससे पृथ्वी का तापमान नियंत्रित रहता है, परंतु अब इसमें छिद्र हो गया है, जिससे सूर्य से आने वाली किरणें सीधे पृथ्वी पर आती हैं और पृथ्वी के तापमान में वृद्धि कर देती हैं। अगर जलवायु परिवर्तन इसी गति से होता रहा तब हिमखंड और बर्फीली चोटियों के पिघलने से कहीं बाढ़ तो कहीं सूखे की स्थिति निर्मित हो जाएगी। अत्यधिक गर्मी व बसंत ऋतु के जल्द आ जाने के कारण जंगलों में आग लगने का खतरा उत्पन्न हो सकता है। इससे भूमिगत जल के स्तर में कमी आई है। नदियों, तालाबों और समुद्री जल के तापमान में वृद्धि से जलीय जीवन के ऊपर खतरा मंडराने लगा है। हाल ही में अमेरिका की एक पत्रिका में छपी रिपोर्ट के अनुसार पृथ्वी के तापमान में वृद्धि हो रही है, जिससे मानव शरीर में डीहाइड्रेशन की आशंका बढ़ रही है। डीहाइड्रेशन के कारण गुर्दे में पथरी की समस्या में वृद्धि हो रही है। आज हमारी पृथ्वी जिस दौर से गुजर रही है उसे इस हाल में लाने वाले हम मानव ही हैं। अब हमारा कर्तव्य बनता है कि हम किसी के लिए न सही स्वयं अपने व अपनी आने वाली पीढि़यों के लिए सोचें, परंतु कष्ट तो इस बात का है कि आज विश्व पटल पर इस संकट से उबरने के लिए युद्धस्तर पर कोई प्रयास होते नहीं दिखाई दे रहे हैं। विकसित व विकासशील देश अपने यहां विकास की होड़ में कार्बन डाई आक्साइड के उत्सर्जन में कमी नहीं लाना चाहते अत: वे सब मौन हैं। चारो ओर कटते वनों के कारण वृक्षों की संख्या में अत्यधिक गिरावट आई है। इससे भी कार्बन डाईआक्साइड की मात्रा में वृद्धि हुई है। हमें इस संकट से बचने के लिए वनों का संरक्षण करना होगा, बिजली के उपकरणों का अनावश्यक प्रयोग करने से बचना होगा, कूड़े को जलाने के बजाय रीसाइक्लिंग करना होगा। इसके अलावा भी अन्य उपाय हैं, जिनके प्रति लोगों को जागरूक होना होगा।
[लेखक स्वामी चिदानंद सरस्वती, परमार्थ निकेतन के परमाध्यक्ष एवं गंगा एक्शन परिवार के प्रणेता हैं]
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आपदा के भूगोल और जलवायु परिवर्तन के बरक्स भारत का विकास

आरबी सिंह उपाध्यक्ष, इंटरनेशनल ज्योग्राफिकल यूनियन अध्यक्ष, भूगोल विभाग, दिल्ली विवि

विश्व दिनोदिन प्राकृतिक आपदाओं की दृष्टि से असुरक्षित होता जा रहा है। बीते 20 वर्षो में कोई तीस लाख लोग प्राकृतिक आपदाओं के शिकार हो चुके हैं। प्राकृतिक आपदाओं की 90 प्रतिशत और विश्व भर में होने वाली तमाम आपदाओं की 95 प्रतिशत मौतें विकासशील देशों में होती हैं। इनमें भारत का स्थान दूसरा है। जलवायु परिवर्तन कोरी कल्पना नहीं, करीब-करीब समूची पृथ्वी ने इसे बाहरी परत पर महसूस किया है। विश्व भर में औसतन तमाम भूमि और सागरीय सतह के तापमान के रुझान का गणन किया गया तो पाया गया कि 1880 से 2012 के दौरान यह 0.85 (0.65 से 1.06) डिग्री सेंटिग्रेड गरमा गया है। 1850-1900 की अवधि तथा 2003-2012 की अवधि में कुल वृद्धि का औसत आईपीसीसी (इंटरगवर्नमेंटल पैनल फॉर क्लाइमेंट चेंज) द्वारा उपलब्ध कराए गए एकल सबसे लंबे आंकड़े के आधार पर 0.78 (0.72 से 0.85) डिग्री सेंटिग्रेड रहा। अनुभवजनित सव्रेक्षणों से 95 प्रतिशत पुष्टि होती है कि 20वीं सदी के मध्य से पृथ्वी की गरमाहट का प्रमुख कारण बढ़ती मानवीय गतिविधियां रहीं। आईपीसीसी रिपोर्ट-2013 इस बात की पुष्टि करती है कि जलवायु की गरमाहट असंदिग्ध है। कुछ दशकों से लेकर सहस्त्राब्दियों के दौरान अप्रत्याशित बदलाव भी देखे गए। इसके चलते वायुमंडल और सागर गरमा गया। बर्फ पिघली। समुद्र का स्तर ऊंचा उठ गया। और ग्रीनहाउस गैसों की सघनता बढ़ी। बीते तीन दशकों के प्रत्येक दशक में पृथ्वी की सतह लगातार गर्माती गई है। यह सिलसिला 1850 से शुरू हुआ था। आईपीसीसी रिपोर्ट इस बात की भी पुष्टि करती है कि अनेक ऐसे भूक्षेत्र हैं, जहां विनाशकारी परिघटनाएं बढ़ी हैं, तो कुछ अन्य क्षेत्रों में इनमें कमी भी आई है। बेहद संवेदनशील है अपना हिमालय हिमालय सर्वाधिक कम आयु की भुरभुरी पारिस्थतिकी वाला पर्वत है। जलवायु परिवर्तन के मद्देनजर यह बेहद संवेदनशील माना जाता है। खड़ी ढलान, जटिल भौगोलिक बनावट और सक्रिय टूट-फूट, सतत भूकंपीय घटनाओं और कमजोर परतदार बनावट के चलते यहां ऊंचाई पर ऊर्जावान पर्यावरण बना रहता है। जलवायु में रह-रह कर परिवर्तन इस क्षेत्र में आये दिन देखने को मिलता है। भौगोलिक स्थिति और मॉनसूनी जलवायु के कारण ऐसा होता है। इस पर्वत क्षेत्र पर भूकंप, भूस्खलन, बाढ़ जैसी विभिन्न आपदाएं आसन्न रहती हैं। आपदा का सामना करने के मद्देनजर ध्यान देना होगा कि हाल के समय में इस प्रकार की समस्याएं खासी बढ़ी हैं। बढ़ते पर्यटन, शहरीकरण और जलवायु परिवर्तन के कारण से ऐसा हो रहा है। लेह (2012), उत्तराखंड (2013) तथा जम्मू-कश्मीर (2014) में हालिया बाढ़ के प्रकोप से जाहिर हो गया है कि हिमालय पर खतरों का अंदेशा मंडरा रहा है। तीनों परिघटनाओं की प्रकृति और तरीके भिन्न थे, तो इसलिए कि भौगोलिक कारक अलग-अलग रहे। अलबत्ता, तीनों परिघटनाओं में जान-माल का भारी नुकसान हुआ। लेह और केदारनाथ, दोनों ही मामलों में बादल फटने से बाढ़ आई लेकिन इनका स्थानिक प्रभाव अलग-अलग रहा। हाल के समय में बादल फटने की घटनाओं और रुझान में लगातार बढ़ोतरी होती रही है। 1908 में बादल फटने की एक घटना प्रकाश में आई थी। उसके 62 वर्षो बाद जुलाई, 1970 में उत्तराखंड में बादल फटने की एक अन्य घटना घटी। 1990 के दशक के बाद से बादल फटने की 17 घटनाएं हो चुकी हैं, जिनसे जान-माल की खासी क्षति हुई है। इनमें से 11 घटनाएं पर्वतीय राज्यों-उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और जम्मू-कश्मीर-में घटीं। वास्तव में, ये घटनाएं बारंबार होने लगी हैं : 17 में से 11 घटनाएं केवल 2010-13 के मध्य ही घटीं। कोई भी कहेगा कि इन घटनाओं के बढ़ने का कारण जलवायु परिवर्तन है। भौगोलिक रूप से समतल भूमि और ऊंचे पर्वतीय क्षेत्र में इनका प्रभाव अलग-अलग रहता है। चूंकि लेह समतल भूमि है, तो वहां स्थानीय क्षेत्र ही प्रभावित हुए लेकिन केदारनाथ के मामले में भौगोलिक स्थिति भिन्न होने के कारण प्रभाव अलग रहा। पर्वतीय क्षेत्र के निचले क्षेत्र तक इसकी जद में आ गए। मूसलाधार बारिश ने बरपाया कहर जम्मू-कश्मीर में हाल में आई बाढ़ बादल फटने के कारण से नहीं थी। यह तीन दिनों तक लगातार मूसलाधार बारिश (450 मिमी. से ज्यादा) होने से आई। गौरतलब है कि जम्मू-कश्मीर में सालाना औसतन 100 मिमी. बारिश होती है। बारिश के पानी की भारी मात्रा झेलम के जलग्रहण क्षेत्र की क्षमता से कहीं ज्यादा थी। उस पर बारिश के दौरान भूमि क्षरण भी हुआ। सो, ड्ऱेनेज सिस्टम ठप हो गया। मानवीय गतिविधियों के कारण भूमि की सतह पहले ही कमजोर पड़ चुकी थी। इसलिए भूमि क्षरण तेजी से हुआ। पुराने रिकॉडरे पर दृष्टिपात करें तो पाएंगे कि जम्मू क्षेत्र में भारी बारिश 1903, 1908, 1926, 1942 और 1988 में हुई, जबकि कश्मीर घाटी में बेहद सघन बारिश 1903, 1911, 1917, 1928 और 1992 में हुई थी। अनुभवों से हम सोचने पर विवश होते हैं कि हमें हर हाल में आपदाओं से पार पाना होगा। हिमालय पर ग्लेशियर पिघलने से जलवायु परिवर्तन का प्रभाव खासी शिद्दत से महसूस होता है। बीते दशकों में ऊंचाई वाले क्षेत्रों में लगातार गरमाहट में इजाफा हुआ है। फलत: बर्फ तेजी से पिघलने लगी। देखा गया है कि ऊंची पर्वत श्रृंखलाओं में हिमनद फटने की परिघटनाओं की बारंबारता 20वीं सदी के दूसरे अर्ध के बाद से बढ़ने पर है। सो, जरूरी हो गया है कि इस बाबत उपाय के रूप में ऊंचे स्थानों पर ग्लेशियरों के पिघलने की प्राकृतिक प्रक्रिया और उसकी मात्रा पर निगरानी रखी जाए। हिमालयी क्षेत्र में हिमनद फटने से बाढ़ के प्रति जागरूकता के मामले में स्थानीय लोगों के हवाले और घटनाओं संबंधी दस्तावेज खासे उपयोगी रहते हैं। वृहत्तर हिमालय में कोई 8 हजार हिमानी झीलें हैं। इनमें से कोई दो सौ बर्फानी झीलें यकीनन खतरनाक हैं। हिमालयी क्षेत्र में ये झीलें ज्यादातर बीते पांच दशकों के दौरान वजूद में आई हैं। इसी दौरान, इस क्षेत्र में हिमनद फटने की घटनाएं भी ज्यादा प्रकाश में आई। औसतन प्रत्येक 3 से 10 वर्ष के कालखंड के दौरान हिमालयी क्षेत्र में हिमनद फटने की एक घटना घटी। जान-माल का भारी नुकसान हुआ। मकान, पुल, खेत-खलिहान और जंगलात के बीच की सड़कें नष्ट हो गई। लोगों की आजीविका के हालात तंग हो गए। मौसम के सटीक पूर्वानुमान जरूरी वो कहते हैं न कि इलाज से एहतियात बेहतर है। इस दृष्टि से देखें तो पाएंगे कि आपदाओं को लेकर भविष्यवाणी सटीक न होने से समय रहते उपाय नहीं हो पाते। इस वजह से जान-माल की खासी क्षति उठानी पड़ती है। हिमालयी क्षेत्र में क्लाइमेट स्टेशन सीमित संख्या में हैं। हिमालयी क्षेत्र के ओर-छोर की थाह ले पाने में मुश्किल के चलते मौसम संबंधी सटीक अनुमान जताना संभव नहीं हो पाता। हालांकि हिमालयी क्षेत्र को फ्लश बाढ़ के मद्देनजर अनेक रिपोटरे में नाजुक क्षेत्र के रूप में चिह्नित किया गया है, तो भी जलग्रहण क्षेत्र तथा भारत और खास तौर पर हिमायली क्षेत्र में कारगर शहरी आयोजना का खासा अभाव है।ंिहमालयी क्षेत्र के शहरी इलाकों में बढ़तीं पर्यटन गतिविधियों से हालात चिंताजनक हुए हैं। जरूरी हो गया है कि बढ़ती शहरी आबादी के मद्देनजर भूमि के उपयोग/सतही बदलाव की निगरानी में ज्योस्पेशियल तकनीक का उपयोग किया जाए। इससे प्राकृतिक आपदाओं का सामना करने में आसानी होगी। मौसम की जानकारी के साथ ही बाढ़ संबंधी पूर्व सूचना के तौर-तरीकों में सुधार किया जा सकता है। हाल के समय में ‘नेशनल मॉनसून मिशन’ नाम की पहल के तहत थोड़े समय में बारिश की कुछ हद तक सटीक पूर्व सूचना देना संभव हो सका है। आपाद जोखिम को कम से कम रखे जाने की गरज से कुछ कार्य किए जाने आवश्यक हैं। पहला, तमाम आपदाओं के तरतीबवार सव्रे, रिकॉर्ड तथा उनसे हुई क्षति और आर्थिक तथा सामाजिक प्रभावों संबंधी लेखा-जोखा रखा चाहिए। दूसरा, समय-समय पर आपदा जोखिमों, उनकी बारंबारता का आकलन किया जाना चाहिए। तीसरा, तमाम क्षेत्रों के आपदा संबंधी विशेषज्ञों, प्रबंधकों और योजनाकारों के नेटवर्क को मजबूत किया जाना चाहिए। चौथा, मौसम विज्ञानियों, आर्थिक व सामाजिक विशेषज्ञों तथा आपदा जोखिम प्रबंधन में जुटे प्रबंधकों के बीच परस्पर वैचारिक आदान-प्रदान को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। कहना होगा कि आपदा प्रबंधन में स्थानिक तौर पर सूचना प्रौद्योगिकी का ज्यादा इस्तेमाल किया जाना जरूरी है। यह भी जरूरी है कि घर-घर में आपदा प्रबंधन को लेकर पर्याप्त जानकारी पहुंचे। हमारे हर दिन के कार्य-व्यवहार का यह हिस्सा हो।
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सही तस्वीर की जरूरत

Tue, 07 Oct 2014

कुछ साल पहले नोबेल पुरस्कार से सम्मानित इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आइपीसीसी) ने एक चेतावनी जारी कर सबको चौंका दिया था कि हिमालय के ग्लेशियर 2035 तक खत्म हो जाएंगे। मई 2009 में जब मैं पर्यावरण एवं वन मंत्री था, तब यह बात मेरे संज्ञान में लाई गई थी। मैं चौंक गया। क्या सच में ऐसा हो सकता है? इसके बाद मैंने देश भर में पर्यावरण के क्षेत्र में कार्यरत अलग-अलग संस्थानों के वैज्ञानिकों से बातचीत की। इनका निष्कर्ष बिल्कुल अलग था और इससे आइपीसीसी की अजीबोगरीब घोषणा पर सवाल खड़े हो गए।
हिमालयी ग्लेशियरों का अध्ययन करने वाले वैज्ञानिकों ने मुझे बताया कि हिमालय के ग्लेशियर आर्कटिक ग्लेशियरों से इस मायने में अलग हैं कि उनका निम्नतम बिंदु समुद्र की सतह से तीन हजार मीटर से अधिक है। इसलिए ग्लोबल वार्मिंग का उन पर बहुत कम असर पड़ेगा। भारतीय क्षेत्र में करीब दस हजार ग्लेशियरों में अधिकांश पिघल रहे हैं। गंगोत्री जैसे कुछ ग्लेशियर तो तेजी से घट रहे हैं। जबकि सियाचिन ग्लेशियर समेत कुछ ग्लेशियर घटने के बजाय बढ़ रहे हैं। बढ़ते कचरे के कारण भारत के ग्लेशियरों का स्वास्थ्य बेहद नाजुक है। तब मैंने प्रख्यात भू-वैज्ञानिक वीके रैना से तमाम निष्कषरें पर आधारिक एक रिपोर्ट तैयार करने का अनुरोध किया। वीके रैना पांचवें दशक से हिमालयी ग्लेशियरों का अध्ययन कर रहे हैं। उनकी रिपोर्ट को सितंबर 2009 में पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने प्रकाशित किया और इसने पूरी दुनिया में तहलका मचा दिया। इसकी विश्वसनीयता पर हमले किए गए। मुझे जलवायु परिवर्तन को नकारने वाला बताया गया और आइपीसीसी के अध्यक्ष आरके पचौरी ने रैना की रिपोर्ट को तंत्र-मंत्र विज्ञान करार दिया। इस कहानी का अंत 31 मार्च, 2014 को जापान के योकोहोमा में हुआ जहां आइपीसीसी ने एक रिपोर्ट जारी करके स्वीकार किया कि 2035 तक हिमालयी ग्लेशियर समाप्त होने संबंधी उनकी रिपोर्ट गलत थी और यह बेहद गंभीर गलती थी। यह पहली बार नहीं हुआ था कि विश्व के विज्ञान जगत ने जलवायु परिवर्तन पर भारत को कठघरे में खड़ा किया था। नौवें दशक में अमेरिका सरकार की एक रिपोर्ट में दावा किया गया था कि भारत में धान के खेतों से प्रति वर्ष 3.8 करोड़ टन मीथेन गैस निकलती है। इस आंकड़े को प्रख्यात वैज्ञानिक डॉ. एपी मित्रा ने चुनौती दी और साबित किया कि धान के खेतों से होने वाला उत्सर्जन महज 40 से 60 लाख टन प्रतिवर्ष है। यह अध्ययन बेहद महत्वपूर्ण है, क्योंकि मीथेन गैस कार्बन डाईऑक्साइड से भी अधिक खतरनाक है।
इन दो उदाहरणों से पता चलता है कि जलवायु परिवर्तन विज्ञान का छुपा हुआ राजनीतिक एजेंडा हो सकता है। इसलिए जलवायु परिवर्तन के क्षेत्र में भारत को विश्व स्तरीय वैज्ञानिक और प्रौद्योगिकी तंत्र विकसित करना होगा। यही सोच 2010 में इंडियन नेटवर्क ऑन क्लाइमेट चेंज एसेसमेंट के गठन की पृष्ठभूमि बनी। करीब 125 संस्थानों से 250 वैज्ञानिक इस शोध नेटवर्क का हिस्सा बने। आइएनसीसीए ने दो रिपोर्ट प्रकाशित कीं, जो इस क्षेत्र में मील का पत्थर साबित हुईं। इसमें हिमालयी, पूर्वोत्तर, तटीय और पश्चिमी घाट क्षेत्रों में कृषि, जल, प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र, जैवविविधता और स्वास्थ्य का आकलन किया गया। यह विश्लेषण साल 2030 को ध्यान में रखते हुए किया गया था। दूसरी रिपोर्ट 2007 में भारत के ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन पर आधारित थी। यह रिपोर्ट आने के बाद भारत पहला विकासशील देश बन गया जिसने जीएचजी पर अपनी स्थिति साफ की।
आइएनसीसीए ने काले कार्बन पर भी विस्तृत अध्ययन की जिम्मेदारी ली। इस तरह भारत ने जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर सक्रियता दिखाई। यह मुद्दा अंतरराष्ट्रीय चर्चा का विषय बना हुआ था और इस संबंध में भारत पर सवाल उठाए जाते थे। 2010 में देहरादून में नेशनल सेंटर फॉर हिमालयन ग्लेशियोलॉजी के गठन का फैसला लिया गया। डॉ. मनमोहन सिंह ने क्षेत्र के अन्य देशों के साथ समन्वय की जरूरत पर जोर दिया। अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन इसरो भी कार्बन डाईऑक्साइड और एयरोसोल के वितरण पर आंकड़े उपलब्ध कराने के लिए एक नैनो सेटेलाइट और ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन पर निगरानी रखने के लिए एक विशेष सेटेलाइट छोड़ने को राजी था। इसके अलावा देश के अलग-अलग क्षेत्रों में मौसम संबंधी जानकारी के लिए स्टेशनों का सघन जाल बिछाने के लिए भी तैयारी की गई थी। आइएनसीसीए ने इस संबंध में शोधपत्र प्रकाशित करने की पहल भी की। उदाहरण के लिए एक ऐसे ही शोधपत्र में विख्यात अंतरिक्ष वैज्ञानिक डॉ. यूआर राव ने कहा कि ग्लोबल वार्मिग के पूर्वानुमान के लिए वैश्विक अंतरिक्षीय किरणों की तीव्रता पर ध्यान देने की जरूरत है। यह एक ऐसा क्षेत्र है जिसकी वैश्विक वैज्ञानिक समुदाय अनदेखी करता रहा है। अंतरराष्ट्रीय वार्ताओं में अपना पक्ष मजबूती और तार्किक ढंग से रखने के लिए हमें जलवायु परिवर्तन के आकलन का खुद का तंत्र विकसित करना होगा। यह सामरिक महत्व का क्षेत्र है। उचित जानकारी के अभाव में हम अंतरराष्ट्रीय मोर्चे पर कमजोर पड़ जाते हैं। अभी भी भारत की खेती और उद्योग काफी हद तक मानसून पर निर्भर हैं। भारत में सात हजार किलोमीटर समुद्री सीमा है। वैज्ञानिक अध्ययनों से यह साबित हो गया है कि समुद्र का जलस्तर बढ़ रहा है और आगे भी बढ़ता जाएगा। इसके अलावा उत्तरी और पूर्वी क्षेत्रों में जल सुरक्षा में हिमालयी ग्लेशियरों की अहम भूमिका है। साथ ही तीव्र विकास के लिए हम कोयला और लौह अयस्क जैसे जिन प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर हैं वे घने जंगलों में पाए जाते हैं। इनके खनन के लिए बड़े पैमाने पर वनों को उजाड़ा जाएगा और इसका नतीजा यह होगा कि कार्बन को अवशोषित करने की देश की क्षमता काफी कम हो जाएगी।
इन सब चिंताओं का समाधान जलवायु परिवर्तन के क्षेत्र में काम करने वाले वैश्विक समुदाय के साथ जुड़ने से ही हो सकता है। इसमें हमें बड़ा लाभ यह होगा कि विदेशों में कार्यरत भारतीय वैज्ञानिकों की सेवाएं हमें आसानी से मिल सकती हैं। किंतु इस प्रकार की साझेदारी हमारी घरेलू ताकत के आधार पर ही हो सकती है। हम जिन चुनौतियों का सामना करते हैं उनमें से बहुत सी भारत के लिए विशिष्ट हैं। उदाहरण के लिए हमारे कोयले में बहुत अधिक राख निकलती है। इसके लिए हमें खुद ही नए समाधान निकालने होंगे। विश्व 16 जैव-भूगोलीय क्षेत्रों में विभक्त है, जिनमें से दस का प्रतिनिधित्व भारत में है। इसलिए यह और भी जरूरी हो जाता है कि भारत पारिस्थितिकीय के अध्ययन के लिए खुद का तंत्र विकसित करे।
[लेखक जयराम रमेश, पूर्व पर्यावरण एवं वन मंत्री हैं]




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