Friday 26 September 2014

जल संरक्षण




अब जरूरी है तालाब विकास प्राधिकरण

03-08-14

अब देश के 32 फीसदी हिस्से को पानी की किल्लत के लिए गरमी के मौसम का इंतजार नहीं करना पड़ता है- बारहों महीने, तीसों दिन वहां जेठ ही रहता है। जिन इलाकों की जनता जुलाई-अगस्त में अतिवृष्टि के लिए हाय-हाय करती दिखती है, सितंबर आते-आते उनके नल सूख जाते हैं। बारिश से सड़क व नदियां उफनती हैं और पानी देखते ही देखते गायब! इस पानी को सहेजने के लिए पारंपरिक स्रोत ताल-तलैयों को सड़क, बाजार, कॉलोनी  जैसे कंक्रीट के जंगल खा गए। आज पानी के लिए हाय-हाय कर रहे इलाके कभी स्थानीय स्रोतों की मदद से ही खेत और गले, दोनों के लिए इफरात में पानी जुटाते थे। एक दौर आया कि अंधाधुंध नलकूप लगाए जाने लगे, जब तक संभलते, तब तक भूगर्भ का कोटा साफ हो चुका था। अब बीती बात बन चुके जल-स्रोतों की ओर जाने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है- तालाब, कुएं, बावड़ी। लेकिन पीढ़ियों का अंतर सामने खड़ा है, पारंपरिक तालाबों की देखभाल करने वाले लोग किसी और काम में लग गए और अब तालाब सहेजने की तकनीक नदारद हो चुकी है। कहीं तालाबों को जान-बूझकर गैर-जरूरी मानकर समेटा जा रहा है, तो कहीं उसके संसाधनों पर किसी एक ताकतवर का कब्जा है। कालाहांडी हो या फिर बुंदेलखंड या फिर तेलंगाना; देश के जल-संकट वाले सभी इलाकों में एक सदी पहले तक कई-कई सौ बेहतरीन तालाब होते थे। यहां के तालाब लोगों की प्यास ही नहीं बुझाते थे, बल्कि यहां की अर्थव्यवस्था का मूल आधार भी होते थे। मछली, कमल गट्टा , सिंघाड़ा , चिकनी मिट्टी, यहां के हजारों-हजार घरों के लिए खाना उगाहते रहे हैं। तालाबों का पानी यहां के कुओं का जल स्तर बनाए रखने में सहायक होते थे। एक आंकड़े के अनुसार, मुल्क में आजादी के समय लगभग 24 लाख तालाब थे। देश भर में फैले तालाबों, बावड़ियों और पोखरों की 2000-2001 में गिनती की गई थी। देश में इस तरह के जलाशयों की संख्या साढे पांच लाख के करीब है, इसमें से करीब 4 लाख, 70 हजार जलाशय किसी न किसी रूप में इस्तेमाल हो रहे हैं, जबकि करीब 15 प्रतिशत बेकार पड़े हैं। यानी आजादी के बाद के 53 वर्षों में समाज कोई 20 लाख तालाब चट कर गया। तालाबों पर कब्जा इसलिए आसान है कि पूरे देश के तालाब अलग-अलग महकमों के पास हैं- राजस्व विभाग, वन विभाग, पंचायत, मछली पालन, सिंचाई, स्थानीय निकाय, पर्यटन..शायद और भी  हों। अभी तालाबों के कुछ मामले राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण के पास हैं। आज जिस तरह जल संकट गहराता जा रहा है, जरूरी है कि केंद्र में एक सशक्त तालाब प्राधिकरण गठित हो, जो तालाबों का मालिकाना हक राज्य के जरिये अपने पास रखे, यानी उनका राष्ट्रीयकरण हो, फिर तालाबों के संरक्षण, मरम्मत की व्यापक योजना बनाई जाए।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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खतरे की घंटी

जनसत्ता 8 अक्तूबर, 2014: भूजल का स्तर देश के तमाम हिस्सों में जिस तरह नीचे खिसकता जा रहा है, वह एक बड़े जल संकट का रूप ले सकता है। विडंबना यह है कि न सरकारें इस मामले में संजीदा दिखती हैं न समाज। पंजाब के कई इलाके डार्क जोन की श्रेणी में आ चुके हैं, यानी वहां अब जमीन के नीचे से पानी निकालना संभव नहीं रह गया है।
राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र की हालत भी कम चिंताजनक नहीं है। यहां विकास की चकाचौंध के बीच एक बड़े खतरे की घंटी भी बज रही है।केंद्रीय भूजल बोर्ड और राज्यों के भूजल विभागों के सहयोग से हुआ अध्ययन बताता है कि दिल्ली में हर साल सिंचाई के लिए चौदह करोड़ घन मीटर और घरेलू तथा औद्योगिक उपयोग के लिए पचीस करोड़ घन मीटर भूजल का दोहन होता है। इस तरह भविष्य के लिए यहां सिर्फ दस लाख घन मीटर पानी बचता है। गुड़गांव सहित हरियाणा के तमाम जिलों में आने वाले दिनों के लिए इस्तेमाल योग्य भूजल का स्तर ऋणात्मक स्थिति में पहुंच चुका है। नोएडा और गाजियाबाद में भी स्थिति इससे थोड़ी ही बेहतर है। पर वहां भी भूजल का स्तर ऋणात्मक है। अध्ययन में यह भी उजागर हुआ है कि भवन निर्माता कंपनियां भूजल के अंधाधुंध दोहन में सबसे आगे हैं। इन पर नजर रखने का कोई कारगर तंत्र नहीं है।
दिल्ली और इसके आसपास के शहरों में लोग इसलिए भूजल पर आश्रित हैं कि जल बोर्ड जरूरत भर पानी की आपूर्ति नहीं कर पा रहे हैं। दिल्ली की ज्यादातर हाउसिंग सोसाइटियां भूजल पर निर्भर हैं। फिर भूजल का स्तर जैसे-जैसे नीचे जा रहा है, पानी में हानिकारक तत्त्वों का मिश्रण बढ़ता जा रहा है। ऐसे में उस पानी को इस्तेमाल लायक बनाने के लिए लोग बड़े पैमाने पर शोधन संयंत्र लगाने लगे हैं। इसमें बहुत सारा पानी बर्बाद चला जाता है। इसी तरह बोतलबंद पानी का कारोबार करने वाली इकाइयां गैर-कानूनी तरीके से भूजल का दोहन कर रही हैं। पिछले दिनों राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण ने उन पर नकेल कसने की मुहिम शुरू की, मगर प्रशासन की संजीदगी के अभाव में इसके सकारात्मक नतीजे शायद ही आ पाएं। समझना मुश्किल है कि जब दिल्ली और आसपास के इलाकों में नलकूप लगाने पर कानूनन प्रतिबंध है तो जल बोर्ड, पर्यावरण विभाग, नगर निगम आदि की नजरों से बचकर लोग कैसे नलकूप लगा लेते हैं? भवन निर्माताओं को चाहे जितनी मात्रा में पानी खींचने और बहाने की इजाजत किस आधार पर दे दी जाती है? वर्षा जल संचय को लेकर बने दिशा-निर्देश के बावजूद सरकारी परिसरों, दफ्तरों, रिहाइशी कॉलोनियों वगैरह में इसके उपाय अभी तक नहीं हो पाए हैं?
जब पानी, बिजली आदि की बर्बादी को लेकर कोई अध्ययन आता है तो सरकारें तात्कालिक प्रभाव में कोई नया कानून या नियम-कायदा बना कर और कड़े दंड-जुर्माने के प्रावधान कर अपनी जिम्मेदारी पूरी मान लेती हैं। वे यह देखना जरूरी नहीं समझतीं कि उन पर कहां तक अमल हो रहा है। पानी सबकी बुनियादी जरूरत है, इंसान के साथ ही पशु-पक्षियों और पेड़-पौधों की भी। विकास को लेकर अलग-अलग अवधारणाएं हो सकती हैं, पर पानी का सवाल हमारे वजूद से ताल्लुक रखता है। तेल या गैस का विकल्प हो सकता है, पर पानी का नहीं। इसलिए पानी को सहेजने और उसके विवेकपूर्ण इस्तेमाल की आदतें, नीतियां और नियम-कायदे अपनाना कोई वैचारिक आग्रह नहीं, बल्कि हमारे अस्तित्व से जुड़ा तकाजा है।


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