Friday 26 September 2014

इबोला वायरस




इबोला का खतरा

06-08-14

इबोला वायरस के संक्रमण से अब तक आठ सौ से ज्यादा लोग मर चुके हैं। इसका खतरा और डर अब विश्वव्यापी हो चुका है। अफ्रीका के तीन देश- सियरा लियोन, गिनी और लाइबेरिया में इसका व्यापक प्रकोप है, लेकिन इसके कुछ मरीज पश्चिमी देशों में भी हैं। पश्चिमी देशों में अब तक वे ही लोग इसके मरीज हैं, जो इबोला प्रभावित देशों में चल रही विभिन्न स्वास्थ्य सेवाओं में काम कर रहे थे। लेकिन एक बड़ी चुनौती यह है कि इन मरीजों से स्थानीय लोगों में यह संक्रमण न फैल जाए। यह खतरा अब इन तीन देशों तक ही सीमित नहीं है, पूरी दुनिया के लिए है। भारत समेत कई देशों ने हवाई अड्डों पर प्रभावित देशों से आने वाले यात्रियों के लिए इबोला की जांच अनिवार्य कर दी है। कई एयरलाइंस ने प्रभावित देशों में अपनी उड़ानें स्थगित कर दी हैं। इबोला का इतना डर इसलिए है कि इससे होने वाली बीमारी का इलाज अभी तक तकरीबन असंभव है और इससे प्रभावित व्यक्ति के मरने की आशंका 50 से 90 प्रतिशत है। इसके अलावा अफ्रीकी देशों में इलाज की सुविधाएं जितनी और जैसी हैं, उसमें मरीज के बचने की संभावना बहुत कम हो जाती है। गनीमत यह है कि इबोला वायरस बहुत तेजी से और आसानी से फैलने वाला वायरस नहीं है, इसलिए इस पर नियंत्रण करना अपेक्षाकृत आसान है। इबोला वायरस पानी या हवा के जरिये नहीं फैलता और इसके फैलने का एकमात्र जरिया किसी संक्रमित जीव या व्यक्ति से सीधा संपर्क है। इबोला वायरस चमगादड़ों और सूअरों के जरिये फैल सकता है और जब कोई इंसान इसका शिकार हो जाता है, तो फिर उससे सीधे संपर्क में आने वाला दूसरे इंसान को यह जकड़ सकता है। ऐसे में, इसे रोकने का सबसे प्रभावी तरीका यह है कि मरीज को दूसरे लोगों के संपर्क से बचाया जाए और स्वास्थ्यकर्मी भी इस बात का खयाल रखें कि उनकी त्वचा सीधे मरीज के संपर्क में न आए। लेकिन अफ्रीका में मरीजों के संपर्क में आने से दूसरों को बचाना बहुत मुश्किल हो रहा है। चूंकि मरीज के परिजन यह जानते हैं कि मरीज का बचना तकरीबन नामुमकिन है, इसलिए वे भावनात्मक वजहों से उसे अस्पतालों में अलग-थलग रखने और उससे मिलने पर पाबंदी का विरोध करते हैं। ऐसी कई घटनाएं हुई हैं, जिनमें मरीजों के परिजनों ने अस्पतालों पर धावा बोल दिया और मरीजों को घर ले गए। कई जगह तो स्थिति इतनी गंभीर हो गई कि सियरा लियोन में सरकार को सेना बुलानी पड़ी, ताकि मरीजों को अलग रखा जा सके और परिजनों को अस्पतालों पर धावा बोलने से रोका जा सके। यह एक विचित्र स्थिति है कि एक वायरस जो बहुत तेजी से नहीं फैलता, वह लोगों की भावुकता और आधुनिक परिवहन के तेज साधनों की वजह से अंतरराष्ट्रीय खतरा बन गया है। इनमें से पहला कारण तो अत्यंत आदिम है और दूसरा कारण अत्यंत आधुनिक। प्रथम विश्व युद्ध के अंतिम दौर में फैला स्पैनिश फ्लू ज्ञात इतिहास में सबसे ज्यादा लोगों को मारने वाली बीमारी है। यह बीमारी लगभग पूरी दुनिया में फैल गई थी और कई करोड़ लोग इससे मर गए थे। यह बीमारी विश्व युद्ध में सैनिकों की आवाजाही की वजह से दुनिया भर में फैली थी और इससे अंतरराष्ट्रीय संपर्क बढ़ने के साथ महामारियों के भी व्यापक रूप से फैलने के खतरे की ओर ध्यान गया था। आज के दौर में अंतरराष्ट्रीय आवागमन व संपर्क और ज्यादा बढ़ गया है, लेकिन सौभाग्य से बीमारियों के बारे में जानकारी और इलाज के साधनों में भी बढ़ोतरी हुई है, इसलिए उम्मीद यही है कि इबोला  के फैलते संक्रमण पर जल्दी काबू पा लिया जाएगा।
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इबोला का कहर

जनसत्ता 11 अगस्त, 2014 : पिछले कुछ सालों से दुनिया के किसी न किसी हिस्से में किसी खतरनाक बीमारी का संक्रमण फैल जाता है और उसके सामने विकसित देशों का चिकित्सा तंत्र भी लाचार नजर आता है। स्वाइन फ्लू के खौफ से कई देशों के लोग दो-चार हो चुके हैं। अब तक उस बीमारी का कोई सटीक और सहज उपलब्ध इलाज सामने नहीं आ सका है। अब पश्चिमी अफ्रीका के कुछ देशों खासकर गिनी के दूरदराज वाले इलाके जेरेकोर से शुरू हुए इबोला वायरस के संक्रमण ने दुनिया भर में लोगों के माथे पर चिंता की लकीरें खींच दी हैं। यह चिकित्सा सेवा के सामने एक बड़ी चुनौती है। इसकी गंभीरता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि इबोला के वायरस से उपजे खतरे के मद्देनजर बीते शुक्रवार को विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इसे महामारी बताते हुए वैश्विक स्वास्थ्य-आपातकाल की घोषणा कर दी। गौरतलब है कि इस बीमारी की चपेट में आए सत्रह सौ से ज्यादा लोगों में से अब तक लगभग एक हजार की मौत हो चुकी है। इसका सबसे ज्यादा प्रकोप पश्चिमी अफ्रीका में सामने आया है, जिससे गिनी, सिएरा लियोन, लाइबेरिया और कुछ हद तक नाइजीरिया में रहने वाले लोगों के सामने गंभीर खतरा है। लेकिन इस बीमारी की प्रकृति को देखते हुए दुनिया में इसके कहीं भी फैलने और कहर बरपाने के अंदेशे से इनकार नहीं किया जा सकता। हालांकि भारत में अभी इस बीमारी का कोई मामला सामने नहीं आया है, लेकिन इसके मद्देनजर एहतियाती कदम उठाए गए हैं। किसी दूसरे देश से शुरू होकर स्वाइन फ्लू जैसी बीमारी ने अपने यहां भी कैसा आतंक मचा दिया था, लोग भूले नहीं हैं। बंदर, चमगादड़ और सूअर के खून या शरीर के तरल पदार्थ से फैलने वाले इबोला वायरस की जद में अगर कोई इंसान आ जाता है तो यह दूसरे लोगों में फैलने की भी वजह बन जाता है। अभी तक चूंकि इस बीमारी का कोई इलाज नहीं ढूंढ़ा जा सका है, इसलिए बुखार आने से शुरू होकर यह बीमारी सिर और मांसपेशियों में दर्द के अलावा यकृत और गुर्दे तक को बुरी तरह अपनी चपेट में ले लेती है और फिर भीतरी और बाहरी रक्तस्राव के बाद मरीज के बचने की गुंजाइश बेहद कम हो जाती है। हालत यह है कि इससे संक्रमित व्यक्ति की मौत के बाद अगर उसके शरीर को ठीक तरह से नष्ट नहीं किया गया तब भी उस वायरस के फैलने की आशंका बनी रहती है। इस तरह के खतरनाक रोगों की रोकथाम या इनसे लड़ने के मोर्चे पर कमजोरी के चलते ही इनके जीवाणु या विषाणु अपने अनुकूल आबोहवा पाकर पहले जानवरों और फिर लोगों में संक्रमित होते हैं और बेलगाम हो जाते हैं। इबोला के विषाणु सबसे पहले 1976 में सूडान और कांगो में पाए गए थे और उसके बाद उप-सहारा के उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में भी फैले थे। तब से पिछले साल तक अमूमन हर साल कम से कम एक हजार लोग इसकी जद में आते रहे हैं। लेकिन हैरानी है कि दुनिया के विकसित देशों में चिकित्सा के क्षेत्र में लगभग हर समय चलते रहने वाले प्रयोगों में इस बीमारी का कोई कारगर इलाज खोजने के तकाजे को पिछले चार दशक के दौरान कभी गंभीरता से नहीं लिया गया।
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इबोला का कहर

जनसत्ता 14 अक्तूबर, 2014: करीब तीन महीने पहले इबोला के विषाणुओं के जानलेवा संक्रमण और गंभीर खतरे को देखते हुए विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इसे महामारी बताते हुए वैश्विक स्वास्थ्य-आपातकाल की घोषणा की थी। लेकिन रोकथाम की तमाम कोशिशों के बावजूद इस साल अब तक इबोला की चपेट में आकर दुनिया के अलग-अलग देशों में जान गंवाने वाले लोगों की तादाद चार हजार से ऊपर पहुंच चुकी है। भारत के लिए फिलहाल यह राहत की बात है कि यहां अभी तक इबोला का कोई मामला सामने नहीं आया है। पर सावधानी बरतने की जरूरत हमारे लिए भी है। हमारे देश में चिकित्सा तंत्र की दो हालत है उसमें मामूली-सी चूक या लापरवाही भी महंगी पड़ सकती है। इसलिए दूसरे देशों से भारत में प्रवेश के तमाम रास्तों पर गहन जांच की व्यवस्था कर कम से कम बचाव के इंतजाम जरूर किए जाने चाहिए। दुनिया के सबसे विकसित देशों का चिकित्सा तंत्र भी इस रोग के सामने लाचार नजर आ रहा है और अब भी यह बीमारी लाइलाज है। इबोला के विषाणु सबसे पहले 1976 में सूडान और कांगो में पाए गए थे और उसके बाद उप-सहारा के उष्णकटिबंधीय इलाकों में भी फैल गए थे। तब से कोई भी साल ऐसा नहीं गुजरा जब इसका असर देखने में न आया हो। तब से लगभग हर साल कम से कम एक हजार लोग इसकी जद में आते रहे हैं। जब भी इबोला का कहर चर्चा में आ जाता है, सारे विकसित देश अपने यहां इससे निपटने के तमाम इंतजाम करते हैं, हवाई अड्डों समेत सभी प्रवेश-स्थलों पर लोगों की गहन स्वास्थ्य-जांच की जाती है। लेकिन एक खास समय तक कहर बरपाने के बाद इस बीमारी का जोर कम हो जाता है और इसके बाद फिर सब कुछ पहले की तरह आश्वस्ति-भाव से चलने लगता है। शायद यही बेफिक्री इबोला के बेलगाम हो जाने की एक बड़ी वजह है।
गौरतलब है कि बंदर, चमगादड़ और सूअर के खून या शरीर के तरल पदार्थ से फैलने वाले इबोला वायरस की चपेट में अगर कोई इंसान आ जाता है तो उसके बाद इस पर काबू पाना बहुत मुश्किल हो जाता है। अगर प्रभावित व्यक्ति को पूरी तरह से अलग-थलग न रखा जाए और उसकी देखरेख में लगे लोग उच्चस्तर के सुरक्षा इंतजामों से लैस न हों तो यह तुरंत आसपास के दूसरे लोगों में फैल सकता है। इसका खतरा ज्यादा घातक इसलिए है कि अभी तक इस बीमारी का कोई इलाज या टीका नहीं खोजा जा सका है। इसकी जद में आए व्यक्ति को पहले बुखार आता है, फिर यह सिर और मांसपेशियों के दर्द के अलावा यकृत और गुर्दे तक को बुरी तरह अपनी चपेट में ले लेता है। इसमें पहले भीतरी, फिर बाहरी रक्तस्राव के बाद मरीज के बचने की गुंजाइश लगभग खत्म हो जाती है। यही नहीं, इस रोग से प्रभावित व्यक्ति की अगर मौत हो जाती है और उसके शरीर को सुरक्षित तरीके से पूरी तरह नष्ट नहीं किया गया तो आसपास इसके वायरस की जद में दूसरे लोग भी आ सकते हैं। इस बार अफ्रीकी देश गिनी के दूरदराज वाले इलाके जेरेकोर से शुरू हुआ इबोला वायरस का संक्रमण सिएरा लियोन, लाइबेरिया और कुछ हद तक नाइजीरिया जैसे देशों तक सिमटा हुआ है। लेकिन अगर सौ फीसद सावधानी नहीं बरती गई तो कहीं भी एक बड़ा संकट खड़ा हो सकता है।
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इबोला के मुकाबले क्यूबाई

नवभारत टाइम्स| Oct 20, 2014

लाइलाज इबोला वायरस से जूझती दुनिया के लिए यह सूचना निराश करने वाली है कि इसका टीका बीतते 2016 से पहले, यानी अगले दो साल तक तैयार नहीं हो पाएगा। यह सूचना टीके पर काम कर रही ब्रिटिश प्रयोगशाला की तरफ से आई है, और इसका अर्थ यही है कि बीमारी के मौजूदा हमले से निपटने में इस तरफ से कोई मदद नहीं मिलने वाली। 1976 में पहली बार संज्ञान में आने के बाद से ही इबोला दुनिया के लिए चुनौती बना हुआ है, लेकिन समर्थ देशों ने इसको कभी गंभीरता से नहीं लिया। वे यह मानकर चलते रहे कि वायरस से फैलने वाली बाकी बीमारियों की तरह इबोला भी मंद पड़ते-पड़ते अपने आप खत्म हो जाएगा। लेकिन यहां इस बात पर जोर देना जरूरी है कि प्लेग जैसी महामारियां दुनिया में हर सौ-दो सौ साल पर उभरती थीं और मर-मर कर दोबारा जिंदा हो जाती थीं। उनकी जड़ पिछली सदी में ही टूटी और इसे तोड़ने में मुख्य भूमिका विज्ञान की रही। इबोला के साथ ऐसा नहीं हुआ तो इसकी इंसानी वजह यह थी कि पश्चिमी अफ्रीका के पिछड़े गरीब देशों के साथ विकसित देशों का कोई बड़ा हित नहीं जुड़ा था। एक खासियत इस बीमारी की यह भी है कि प्रकृति और मनुष्य जितनी तेजी से इसका प्रतिरोध तैयार करते हैं, उससे ज्यादा तेजी से यह अपने बचाव का मैकेनिजम डिवेलप कर लेती है। अभी हालत यह है कि 9000 से ज्यादा लोग इसकी चपेट में आ चुके हैं, जिनमें 4555 लोग पिछले हफ्ते तक मौत के ग्रास बन चुके थे। जिन अफ्रीकी देशों में लोग इससे पीड़ित हैं, बाकी सारे देश उनके साथ हवाई संपर्क तक से कतराने लगे हैं। जो बाहरी लोग इन इलाकों में फंसे हैं, वे जल्द से जल्द वहां से निकल भागना चाहते हैं, जबकि बाहरी दुनिया में उन्हें संदिग्ध माना जा रहा है। सभी को डर है कि कहीं इन लोगों के जरिए इबोला वायरस हमारे यहां भी न आ जाए। ऐसे माहौल में पूरी दुनिया को रास्ता दिखाने का काम किया है एक करोड़ की आबादी वाले छोटे से मुल्क क्यूबा ने, जहां से 165 स्वास्थ्यकर्मियों की टीम इबोला प्रभावित इलाकों में पहुंच चुकी है और जल्द ही 300 क्यूबाई इसमें और जुड़ने वाले हैं। वसुधैव कुटुंबकम जिसको कहना है, कहता रहे। मानवता की सच्ची उम्मीद तो विश्व बंधुत्व की मिसाल पेश करने वाले ये साहसी क्यूबाई ही हैं।


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