Friday 26 September 2014

गंगा एक्शन प्लान-




दूर करना होगा अनमनापन

Sunday,Jul 06,2014

हर गुजरते क्षण के साथ मोक्षदायिनी गंगा पर बढ़ रहे प्रदूषण के हानिकारक प्रभाव को नजरअंदाज करना मुश्किल होता जा रहा है। नेशनल कैंसर रजिस्ट्री प्रोग्राम के अध्ययन से उजागर हुआ है कि देश के अन्य हिस्सों की तुलना में उत्तर प्रदेश, बिहार और बंगाल के गंगा किनारे रहने वाले बाशिंदों में कैंसर होने का खतरा ज्यादा होता है। नदी का जल पीने और नहाने लायक ही नहीं बल्कि कृषि के लिए भी फिट नहीं है। लंबे समय से सरकार और जनता इस दिशा में काम करती प्रतीत हो रही है लेकिन विश्वसनीय नतीजे क्यों नहीं निकल रहे हैं? गंगा एक्शन प्लान-एक और उसके विस्तारित रूप गंगा एक्शन प्लान-दो के 15 वर्षो की अवधि में 900 करोड़ रुपये खर्च करने के बावजूद जीएपी अपने लक्ष्यों को पाने में कामयाब नहीं हो पाया। इसके अनुभवों से सबक लेते हुए अधिक प्रभावी एक अन्य निकाय नेशनल रीवर कंजर्वेशन अथॉरिटी (एनआरसीए) का गठन किया गया लेकिन अपने निर्णयों को क्रियान्वित नहीं कर पाने के कारण यह प्रयास भी नाकाफी रहा। अतीत की विफलताओं से उबरने और गंगा सफाई अभियान को फिर से शुरू करने के लिए 2009 में नेशनल गंगा रीवर बेसिन अथॉरिटी (एनजीआरबीए) की स्थापना की गई। इसकी क्रियान्वयन एजेंसी नेशनल मिशन फॉर क्लीन गंगा (एनएमसीजी) पर 2020 तक गंगा में अशोधित म्युनिसिपल सीवेज अथवा औद्योगिक कचरे के प्रवाह को रोकने की कठिन जिम्मेदारी है। लेकिन एनएमसीजी ने बढि़या काम करते हुए अकादमिकों के बीच की दूरी को पाटते हुए अपने कदमों के क्रियान्वयन के लिए आइडब्ल्यूएमआइ, डब्ल्यूडब्ल्यूएफ, आइआइटी और आइएससीआइ जैसी राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों के विशेषज्ञों को एक साथ जोड़ने की पहल की है। धरातल पर स्थितियों में सुधार होते न देख डॉ जीडी अग्रवाल और स्वामी निगमानंद सरस्वती जैसे सामाजिक कार्यकर्ताओं और पर्यावरणविदों ने अधिक गंभीर कदम उठाए जाने की मांग की। अतीत की विफलताओं में से एक कारण मुद्दे की सीमित पहचान रहा। मुख्य फोकस संरचनात्मक व्यवधान मसलन सीवेज शोधन प्लांट को विकसित करने पर रहा ताकि विभिन्न तरीकों से सीवेज का शोधन किया जा सके। मुख्य मुद्दे मसलन ऐसे सीजन में जब पानी कम होता है तब सिंचाई और पर्यावरण के लिए जल के पुन:आवंटन और कृषि कार्यो से निकलने वाले प्रवाह के कारण परोक्ष रूप से सबसे ज्यादा होने वाले प्रदूषण की समस्या को भी रेखांकित नहीं किया गया। नदी के विभिन्न स्तरों पर होने वाले प्रवाह से उत्पन्न होने वाली विभिन्न समस्याओं को भी नहीं समझा गया। सरकार के केंद्रीकृत दृष्टिकोण से भी मदद नहीं मिली। शुरुआत में 100 प्रतिशत फंड केंद्र द्वारा दिया गया। पिछले दशक के शुरुआती वर्षो में भविष्य के कार्यो के लिए केंद्र और राच्य सरकारों के बीच 70:30 शेयर के आधार पर समेकित दृष्टिकोण को अपनाने का निश्चय किया गया। यह घातक रहा क्योंकि कुछ राच्य जरूरी फंड मुहैया नहीं करा सके। जीएपी के अंतर्गत बनाई गई संरचनाओं की ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त धनराशि नहीं थी। इससे भी बढ़कर यह कि ये संरचनाएं काम नहीं कर सकीं और निष्क्रिय रहीं। जीएपी संपत्तियां स्थानीय सरकारों के लिए बोझ बन गईं। नागरिक निकायों की तकनीकी और प्रबंधकीय क्षमता दयनीय ही रही। शहरों और कचरे के बढ़ने के कारण चुनौतियां बढ़ती गई। वर्तमान में इलाहाबाद में 50 से भी अधिक नाले सीवेज को गंगा और यमुना में पहुंचा रहे हैं जबकि 1986 में जीएपी के शुरू होने से पहले इनकी संख्या महज 13 थी। सफाई अभियान में विभिन्न तबकों को शामिल करने के बजाय उनको दूर किया गया। औद्योगिक एवं निजी सेक्टर की तरफ दृष्टिकोण सहयोगी के बजाय नियमन का ही रहा। धार्मिक निकायों, सिविल सोसायटियों और आम नागरिकों को अधिक जागरूक करने का प्रयास नहीं किया गया। अतीत में राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी ने भी अहम भूमिका निभाई। कमेटियों के साल में एक बार भी मीटिंग नहीं करने के कारण मुद्दा और भी हाशिये पर जाता रहा। इस समस्या के निराकरण के लिए सरकार द्वारा शुरू की गई पहली आधिकारिक पहल के तीन दशक बीत चुके हैं। लेकिन तब से आज तक कुछ खास सुधार नहीं आया है। स्वच्छ गंगा के लिए दृष्टि, जल, धन, टेक्नोलॉजी, नवोन्मेषी प्रबंधन और निश्चित रूप से मजबूत सहभागी और राजनीतिक इच्छाशक्ति की जरूरत है। संयोग से आशा की एक नई किरण उपजी है। हमको अन्य देशों के अनुभवों से सबक लेना चाहिए जहां सिंगापुर जैसे शहर को साफ करने एवं डेन्यूब, टेम्स एवं राइन जैसी प्रदूषित नदियों को साफ करने में सफलता पाई गई है।
-भरत शर्मा [मुख्य शोधकर्ता और समन्वयक, इंटरनेशनल वाटर मैनेजमेंट इंस्टीट्यूट, नई दिल्ली]
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युद्ध से कम नहीं है गंगा की सफाई

नवभारत टाइम्स | Jul 22, 2014

बृजेश शुक्ल

पिछले साल की बात है। उन्नाव के डौडियाखेड़ा में सोने की खोज के लिए खुदाई हो रही थी। ऋषिकेश और हरिद्वार के गंगा तट पर बैठने का सुख तलाशता हुआ मैं बगल में ही चंद्रिका देवी मंदिर की सीढ़ियों पर जा बैठा। सामने गंगा बह रही थी लेकिन वहां बैठ नहीं सका। गंगा की जगह एक गंदे नाले का एहसास हुआ। काले पानी से आती हुई बदबू के कारण मैंने वहां से हटना ही बेहतर समझा। अलकनंदा, मंदाकिनी, भागीरथी, सरस्वती, भिलंगना, जाह्नवी आदि नदियां देव प्रयाग में आकर गंगा मां बन जाती हैं। कल-कल निनाद करती पतित पावनी जब ऋषिकेश और फिर हरिद्वार पहुंचती है, तब तक वह अति निर्मल और अति स्वच्छ रहती है। हरिद्वार के आगे निकल कर गंगा ज्यों ही उत्तर प्रदेश के गढ़मुक्तेश्वर में प्रवेश करती है, उसके मैली होने की शुरुआत हो जाती है। इस मैली गंगा को निर्मल बनाने के लिए नरेंद्र मोदी सरकार ने 'नमामि गंगा' योजना की घोषणा की है। गंगा संरक्षण मिशन के लिए 2037 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया है। इसके अलावा गंगा में इलाहाबाद से हल्दिया तक 1620 किलोमीटर लंबे राष्ट्रीय जलमार्ग का निर्माण होगा। साथ ही 100 करोड़ रुपये से गंगा यमुना के घाट बनाए जाएंगे। मोदी सरकार के इस संकल्प से लोग उत्साहित भी हैं और अभिभूत भी। बावजूद इसके, अगर-मगर के तमाम प्रश्न भी इससे जुड़े हैं। पहले मैली, अब विषैली राजकपूर ने जब 'राम तेरी गंगा मैली' फिल्म बनाई थी तब शायद गंगा सिर्फ मैली थी। लेकिन अब यह विषैली हो चुकी है। लेकिन इसे साफ करने का मिशन शुरू करने से पहले यह समझना जरूरी है कि गंगा जल को विषैला बनाने में किन लोगों का हाथ है। गंगा को क्या सिर्फ शहरों से निकला सीवर का पानी ही गंदा कर रहा है, या बड़े-बड़े उद्योगपतियों की फैक्ट्रियों से निकले विषैले कचरे की भी इसमें कुछ भूमिका है? जब गंगा कानपुर में प्रवेश करती है, तो लगभग 3 सौ चमड़ा फैक्ट्रियों का प्रदूषित और कचरायुक्त पानी इसमें डाल दिया जाता है। गंगा में विषैला जल डालने वाली ये फैक्ट्रियां कई नेताओं और प्रदूषण नियंत्रण से जुड़े अधिकारियों की काली कमाई का जरिया हैं। राजीव गांधी ने गंगा को साफ करने के लिए गंगा ऐक्शन प्लान बनाया था। इस योजना में तीन राज्यों उत्तर प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल की सरकारों को शामिल किया गया। लेकिन गंगा साफ नहीं हुई। बाद में प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में गंगा रिवर बेसिन अथॉरिटी का गठन हुआ। इस अथॉरिटी के एक सदस्य बीडी त्रिपाठी का कहना है कि गंगा को साफ करने के लिए मजबूत राजनीतिक इरादे की जरूरत है। बीडी त्रिपाठी वह व्यक्ति हैं, जो पिछले 40 साल से गंगा को प्रदूषण मुक्त करने की लड़ाई लड़ रहे हैं। बाद में गंगा की सफाई के लिए अपना पूरा जीवन लगा देने वाले वीरभद्र मिश्र ने संकट मोचन फाउंडेशन का गठन किया। गंगा सफाई अभियान में हजारों साधु-संत शामिल हुए। बीजेपी की नेता और केंद्रीय मंत्री उमा भारती ने पिछले दिनों गंगा की सफाई के लिए गंगोत्री से गंगा सागर तक की यात्रा की थी। लेकिन, गंगा को प्रदूषित करने वाले इन सबसे कहीं ज्यादा ताकतवर हैं। गंगा को साफ करना है तो उन धनकुबेरों से लड़ना होगा जो अपनी फैक्ट्रियों का कचरा गंगा में गिरा रहे हैं। उन धर्मभीरुओं से भी जूझना होगा जो फूल मालाएं और अन्य कचरा गंगा में फेंक रहे हैं। यूपी के मौजूदा सीएम अखिलेश यादव या पिछली सरकारों के मुखिया क्या यह बताएंगे कि गंगा में लगातार कचरा डाल रही कानपुर की फैक्ट्रियों पर उन्होंने क्या कार्रवाई की? एक रिसर्च में यह पाया गया है कि जाजमऊ के चमड़ा कारखानों के गंदे पानी में क्रोमियम की मात्रा लगभग 124 मिलीग्राम प्रति लीटर है, जो निर्धारित मात्रा से 60 गुना अधिक है। गंगा किसी धर्म के दायरे में नहीं बंधती। वह पतित पावनी है। वह अपने जल से सभी को तृप्त करती चलती है। अबुल फजल ने अपनी पुस्तक आईन-ए-अकबरी में लिखा है कि अकबर गंगा जल को अमृत समझते थे। इसीलिए भोजन में और पीने में गंगा जल का उपयोग करते थे। अरब यात्री इब्नबतूता ने अपने यात्रा वृतांत में लिखा है कि मोहम्मद तुगलक के लिए गंगा जल दौलताबाद तक जाया करता था। डॉ राही मासूम रजा गंगा तट पर बसे गाजीपुर के एक छोटे गांव से निकल कर मुंबई चले गए, लेकिन गंगा पुत्र कहलाने में सदैव गौरव का अनुभव करते रहे। हम सब बनें भगीरथ कहते हैं, अपने पुरखों को तारने के लिए भगीरथ तपस्या कर गंगा को धरती पर लाए थे। अब समय आ गया है कि गंगा को बचाने के लिए सभी लोग भगीरथ बन कर लगें। सरकारें अकेले दम पर यह काम नहीं कर पाएंगी। 'नमामि गंगा' योजना तभी सफल हो सकती है, जब उसके भक्तजन भगीरथ जैसा मजबूत संकल्प लेंगे। यदि गंगा साफ न हुई तो जल्द ही यह इतिहास का विषय बन जाएगी। गंगा के स्वच्छ पानी में डुबकी लगा कर उत्साह से हर-हर गंगे कहते हुए लोगों को हम फिर कभी नहीं सुन पाएंगे। लोग दूर से ही गंगा के नाम पर प्रदूषित जल को प्रणाम करते हुए विदा ले लेंगे। काश ऐसा न हो। 
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