Friday 26 September 2014

विकास और पर्यावरण




विकास और पर्यावरण

:Wednesday,Jul 30,2014 05:12:08 AM

इस बात को लेकर एक तरह से वैश्विक स्वीकृति अथवा सहमति है कि भारत को एक बार फिर से उच्च आर्थिक विकास की पटरी पर लौटना चाहिए। हालांकि पिछले दशक के दौरान भारत का सकल घरेलू उत्पाद अथवा जीडीपी अप्रत्याशित रूप से तकरीबन 7.7 फीसद वार्षिक औसत की दर से बढ़ा, जो कि दुनिया के किसी भी लोकतांत्रिक देश में सर्वाधिक विकास दर है, लेकिन यह भी सच है कि पिछले दो वर्ष समूची दुनिया के लिए निराशाजनक रहे। उच्च आर्थिक विकास दर के लिए जरूरी है कि निवेश की दर भी उच्च हो। ऐसा इसलिए, क्योंकि यह सरकार के लिए विशाल राजस्व को जुटाने का काम करती हैं, जिसे सामाजिक कल्याण और बुनियादी ढांचे की विकास योजनाओं में उपयोग अथवा खर्च किया जा सकता है।
यह कहने की आवश्यकता नहीं कि अकेले तेज आर्थिक विकास ही पर्याप्त नहीं है। विकास की यह गति स्वाभाविक तौर पर होनी चाहिए, जिससे उत्पादक रोजगार अवसरों का सृजन होता है और इनमें बढ़ोतरी होती है। विकास का समावेशी होना भी आवश्यक है। यह जितना अधिक समावेशी होगा, प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तौर पर समाज के उतने ही अधिक वगरें अथवा हिस्सों को अधिकाधिक लाभ होगा। तेज और समावेशी विकास के अतिरिक्त आर्थिक विकास का एक और पहलू भी है और यह पक्ष पर्यावरण का है। इस पहलू पर भी समान रूप से ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है। आज विकास करो और बाद में इसकी कीमत चुकाओ वाला मॉडल भारत के लिए सही नहीं है, हालांकि इसे दूसरे अन्य तमाम देशों द्वारा अपनाया गया है, जिनमें चीन और ब्राजील जैसे देश भी शामिल हैं। इसके लिए हमें कम से कम चार बातों पर बल देना होगा। पहली बात यह कि अपनी 124 करोड़ की वर्तमान आबादी के साथ इस शताब्दी के मध्य तक कोई भी अन्य देश 40-50 करोड़ आबादी और नहीं जोड़ने जा रहा, लेकिन भारत में ऐसा होना तय है। अपनी 150 करोड़ की आबादी के साथ चीन में इसी समयावधि में महज 2.5 करोड़ की आबादी बढ़ेगी। आज की अधीरता अथवा जल्दबाजी और लालच के लिए हम आने वाली पीढि़यों के भविष्य से समझौता नहीं कर सकते। दूसरी बात यह है कि दुनिया में दूसरा कोई भी देश नहीं है जहां जलवायु परिवर्तन की अधिक विषमताएं हों। मौजूदा समय और भविष्य में भी भारत में ऐसा ही रहेगा। ऐसा मानसून पर हमारी निर्भरता के कारण है। एक बड़ी आबादी तटवर्ती इलाकों में निवास करती है, जिनके लिए प्रतिकूलता का मतलब समुद्री जलस्तर में वृद्धि है। यह जलापूर्ति की सुरक्षा के लिए हिमालयी ग्लेशियर पर निर्भर हैं और इन इलाकों में ही कोयला और लौह अयस्क जैसे प्राकृतिक संसाधनों का सर्वाधिक खनन होता है। इसका मतलब है कि जितना अधिक खनन होगा उतना अधिक वनों का कटाव होगा और उसी अनुपात में ग्लोबल वार्मिंग में इजाफा होगा।
इस क्त्रम में जिस तीसरी बात पर गौर किया जाना जरूरी है वह पर्यावरण में परिवर्तन के कारण स्वास्थ्य संबंधी चिंताओं से जुड़ी है। अप्रत्याशित औद्योगिक और वाहन प्रदूषण, रासायनिक कचरे का बढ़ता ढेर और नदियों में नगरपालिकाओं के गंदे पानी आदि के कारण स्वास्थ्य संबंधी संकट को प्रत्यक्ष तौर पर देखा जा सकता है। लोग अन्य तमाम तरीकों से संकटों का सामना कर रहे हैं, ऐसे में पर्यावरण में क्षरण बीमारियों का बड़ा कारण बनकर उभरा है। चौथे, जिसे भारत में पर्यावरणवाद कहा जाता है वह अधिकांशत: मध्यवर्गीय जीवनशैली से संबंधित पर्यावरणवाद नहीं है, बल्कि यह वास्तव में आजीविका पर्यावरणवाद है, जो दिन-प्रतिदिन की जमीन उत्पादकता के मुद्दों, जल उपलब्धता, लकड़ी के अतिरिक्त अन्य वन उत्पादों, जल निकायों का संरक्षण, चरागाहों के संरक्षण तथा पवित्र स्थानों के रखरखाव आदि से जुड़ा है। यही कारण है यहां पर्यावरणीय चिंता महज विदेशी षड्यंत्र नहीं है। हम अपना नुकसान खुद ही कर रहे हैं। यह महज हमारी ऊर्जा आपूर्ति में नवीकरणीय स्नोतों को बढ़ाने तक का मसला नहीं है। उद्योग, कृषि, ऊर्जा, परिवहन, निर्माण और अर्थव्यवस्था के दूसरे अन्य क्षेत्रों में निवेश और तकनीक का चयन कहीं अधिक महत्वपूर्ण है।
अप्रैल 2014 में योजना आयोग के विशेषज्ञों ने समावेशी विकास में अल्प कार्बन रणनीति पर अपनी अंतिम रिपोर्ट जमा की। यह रिपोर्ट बेहद अहम है, लेकिन इसकी उपेक्षा हो रही है। रिपोर्ट में क्षेत्रवार विस्तृत विश्लेषण किया गया है कि अल्प कार्बन वाला समावेशी विकास न केवल आवश्यक है, बल्कि यह संभव भी है, हालांकि इसके लिए अतिरिक्त निवेश की आवश्यकता होगी। अपने पूर्ववर्तियों की तरह ही मोदी सरकार ने भी आर्थिक विकास की प्रक्त्रिया के तहत पर्यावरणीय चिंताओं को भी हल किए जाने पर बल दिया। यह प्रशंसनीय है, लेकिन हमें ऐसे समय में जब विकास और पर्यावरण पर ध्यान देने की आवश्यकता है तब कुछ कठिन निर्णय भी लेने होंगे और इसके लिए हमें अपनी कुछ पसंद को ना करना होगा अथवा उन्हें छोड़ना होगा। ऐसा तब होता है जब आप समन्वय अथवा एकीकरण पर अमल करते हैं। इसके लिए हम अपने विरोधाभासों, जटिलताओं और संघर्ष को दरकिनार नहीं कर सकते। इन्हें भी स्वीकार करना होगा और संवेदनशीलता से इन्हें व्यवस्थित करना होगा, जो कि लोकतांत्रिक प्रक्त्रिया का हिस्सा है। वास्तव में यहां मुख्य मुद्दा पर्यावरण बनाम विकास का नहीं है, बल्कि उन नियमों, प्रावधानों और कानूनों को मानने का है, जो आवश्यक हैं। जब लोक सुनवाई का मतलब बिना जनता के सुनवाई और बिना सुनवाई के जनता होता है तो यह कम से कम पर्यावरण बनाम विकास का मुद्दा नहीं होता।
जब कोई रिफाइनरी अपनी क्षमता को 10 लाख टन प्रतिवर्ष से बढ़ाकर 60 लाख टन बढ़ाने के लिए कानून द्वारा निर्धारित पर्यावरणीय अनुमति अथवा क्लीयरेंस लिए बिना ही निर्माण करती है तो यह पर्यावरण बनाम विकास का प्रश्न नहीं है, लेकिन यह अवश्य है कि संसद द्वारा बनाए कानूनों का सम्मान किया जाएगा अथवा नहीं? जब किसी शराब फैक्ट्री, पेपर मिल अथवा चीनी फैक्ट्री को भारत की सर्वाधिक पवित्र गंगा नदी में जहरीला तत्व छोड़ने के लिए बंदी नोटिस जारी किया जाता है तो यह पर्यावरण बनाम विकास का मुद्दा नहीं है, लेकिन प्रश्न यही होता है कि कानून द्वारा निर्धारित मापदंड का अनुपालन हुआ या नहीं। सभी बातों में हमें कानून को ऊपर रखना होगा। हर लिहाज से नियमों का पालन करते समय हमें बाजार उन्मुख होना होगा। हरसंभव तरीके से हमें निवेश को बढ़ाना होगा, विशेषकर श्रम प्रधान विनिर्माण क्षेत्र में। हम नियमों और कानूनों का मजाक नहीं बना सकते। भारतीय सभ्यता ने जैवविविधता के प्रति सदैव उच्च आदरभाव दिखाया है। इसलिए हरित विकास के क्षेत्र में वैश्रि्वक अगुआ बनना हमारे लिए कठिन नहीं। यह रणनीतिक नेतृत्व का क्षेत्र है, जिसमें भारत दुनिया को नई राह दिखा सकता है। 'विकास किसी भी कीमत पर' वाले सिद्धांत के समर्थकों और पर्यावरण बचाने की लड़ाई लड़ने वालों को भारत को इस मुकाम तक ले जाने के लिए मिलकर काम करना होगा।
[लेखक जयराम रमेश, पूर्व केंद्रीय मंत्री हैं]

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